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इंद्रिय संयम भाग – ३

by Akhand Jyoti Magazine

इंद्रिय संयम और अस्वाद व्रत

 अस्वाद का अर्थ है-स्वाद का गुलाम न होना। अस्वाद का यह अर्थ नहीं है कि हम संसार के भोग्य पदार्थों का सेवन न करें, या षटरसों का पान न करें या जिह्वा की रस-ज्ञान की शक्ति को खो दें। अस्वाद व्रत ऐसा नहीं कहता, वह तो कहता है कि शरीर के पोषण, स्वास्थ्य तथा रक्षा के लिए जिन-जिन पदार्थों की आवश्यकता हो उनका अवश्य सेवन करो,परंतु कभी जीभ के चोचले पूरा करने के लिए किसी वस्तु का सेवन न करो। दूसरे स्पष्ट शब्दों में जिह्वा के गुलाम न बनो, उसके ऊपर सदैव अपना स्वामित्व कायम रखो। ऐसे रहो कि वह तुम्हारे आदेश पर चले। ऐसा न हो कि तुम ही उसके संकेतों पर नाचने लगो । विनोबा जी के सुंदर शब्दों में जीभ की स्थिति चम्मच जैसी हो जानी चाहिए “चम्मच से चाहे हलुआ परोसो, चाहे दाल-भात, उसे उसका कोई सुख-दुःख नहीं ।”

हनुमान जी के भक्तों ने बहुत बार कथा सुनी होगी कि एक दफा विभीषण भगवान राम के पास आए और कहने लगे- ” प्रभु! लौकिक तथा पारलौकिक सफलता का साधन क्या है?” भगवान ने कहा कि “यह तो बड़ा सरल प्रश्न है, इसको तो तुमको हनुमान जी से ही पूछ लेना चाहिए था ” और यह कहकर उन्हें हनुमान जी के पास भेज दिया। विभीषण ने जब हनुमान जी के पास जाकर पूछा तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया पर अपने हाथ से अपनी जीभ को पकड़कर बैठ गए। विभीषण के कई बार कहने पर भी जब हनुमान कुछ न बोले तो विभीषण नाराज होकर भगवान के पास वापस गए और बोले-” भगवान आपने मुझे कहाँ भेज दिया ?” भगवान ने कहा – हनुमान जी ने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया? ” विभीषण बोले – ” प्रभु! वह क्या उत्तर देंगे? मैंने उनसे कई बार पूछा पर उन्होंने कोई उत्तर तो दिया नहीं बल्कि अपने हाथ से अपनी जीभ को पकड़कर बैठ गए।” भगवान बोले-“विभीषण ! हनुमान जी ने सब कुछ तो बतला दिया और क्या कहते? तुम्हारे प्रश्न का केवल यही उत्तर है कि अपनी जीभ को अपने वश में रखो। यही लौकिक और पारलौकिक सफलता का सबसे सुंदर साधन है।”

श्री महादेव गोविंद रानाडे के जीवन की एक घटना इस अस्वाद व्रत के सही रूप को समझने में हमें बड़ी मदद देगी । कहते हैं कि एक दिन किसी मित्र ने उनके यहाँ कुछ बहुत स्वादिष्ट आम भेंट में भेजे । उनकी चतुर पत्नी ने उनमें से एक आम को धोकर ठंढा करके, बनाकर एक तश्तरी में उनके सामने रखा। रानाडे ने उसमें से एक- दो टुकड़े खाकर आम की प्रशंसा करते हुए वह तश्तरी अपनी पत्नी को वापस कर दी और कहा कि अब यह तुम खाना और बच्चों को देना। पत्नी ने उत्तर दिया कि उसके और बच्चों के लिए तो और आम हैं तो रानाडे बोले कि फिर नौकरों को दे देना । पत्नी बोली कि नौकरों के लिए भी और आम हैं, आप सब खा लीजिए। जब इस पर भी रानाडे आम खाने को तैयार न हुए तो पत्नी ने कहा कि क्या आम अच्छे नहीं हैं ? रानाडे बोले कि आम तो इतने मीठे और स्वादिष्ट हैं कि मैने अपने जीवन मेंइससे पहले इतने स्वादिष्ट आम कभी खाए नहीं । फिर पत्नी ने पूछा-आपका स्वास्थ्य तो ठीक है? रानाडे बोले-मेरा स्वास्थ्य आज इतना अच्छा है कि कभी नहीं रहा। तब पत्नी ने कहा कि आप भी अजीब बात करते हैं, आम को भी स्वादिष्ट बताते हैं और फिर भी कहते हैं कि अब और न खाऊँगा। रानाडे हँसे और बोले कि आम बहुत सुंदर और स्वादिष्ट हैं इसलिए अब और न खाऊँगा । ऐसा मैं क्यों कर रहा हूँ, उसका कारण सुनो। बात यह है कि बचपन में जब मैं मुंबई में पढ़ता था, तब मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थी। वह पहले एक धनी घराने की सदस्या रह चुकी थी। परंतु भाग्य के फेर से अब उसके पास वह धन नहीं था, पर इतनी आय थी कि वह और उसका लड़का दोनों भली प्रकार भोजन कर सकें और अपना निर्वाह कर सकें। वह महिला बड़ी दुखी रहती और प्राय: रोया करती थी। एक दिन जब मैंने जाकर उससे उसके दुःख का कारण पृछा तो उसने अपना पहला वैभव बतलाते हुए कहा कि मेरे दुःख का कारण मेरी जीभ का चटोरपन है,बहुत समझाती हूँ फिर भी दुखी रहती हूँ। जिस जमाने में मैं स्वादिष्ट पदार्थ खाती थी, प्राय: रोगी रहा करती थी, औषधियों की दासी बनी हुई थी। अब जब से वह पदार्थ नहीं मिलते बिलकुल स्वस्थ रहती हूँ, किसी भी औषधि की शरण नहीं लेनी पड़ती। मन को बहुत समझाती हूँ कि अब नाना प्रकार के साग, अचार, मुरब्बे, सोंठ, चटनी, रायते,मिठाइयों और पकवानों के दिन गए। अब उनका स्मरण करने से कोई फायदा नहीं फिर भी जीभ मानती नहीं है । मेरा बेटा रूखी-सूखी खाकर पेट भर लेता हैऔर आनंदित रहता है । क्योंकि उसने वह दिन देखे नहीं। वह जिह्वा का गुलाम नहीं हुआ है, परंतु मेरा दो-तीन साग बनाए बिना पेट नहीं भरता। रानाडे ने कहा-जब से मैंने उस महिला की बात सुनी और उसकी वह दशा देखी तभी से मैने यह नियम बना लिया कि जीभ जिस पदार्थ को पसंद करे, उसे बहुत थोड़ा खाना, जीभ के वश में न होना, क्योंकि यह आम जीभ को बहुत उच्छा लगा इसलिए मैं अब और नहीं खाऊँगा।

किसी वस्तु के खाने से पहले अपने आप से प्रश्न कीजिए कि उस समय उस वस्तु का खाना आपके लिए आवश्यक  या नहीं, अथवा उस वस्तु के खाए बिना आप रह सकते हैं या नहीं। यदि उत्तर मिले कि नहीं रह सकते तो उस वस्तु को अवश्य खाइए अन्यथा नहीं।

इस साधन को अपनाने में आपको शारीरिक, आर्थिक या सामजिक किसी प्रकार की भी हानि नहीं होगी। इसके विपरीत इन तीनों दशाओं में भी आपको लाभ ही लाभ होगा । भोग और स्वाद का आनंद तो पशु भी लेते हैं। और आपको भी इसका आनंद लेते न जाने कितना समय बीत गया, अब त्याग और अस्वाद का आनंद भी देख लीजिए।

यदि किसी समय आपको इस कल्याण मार्ग को अपनाने की प्रेरणा मिले तो आप सबसे प्रथम भोजन में से खोआ, मैदा, बेसन से बनी हुई चीजों का त्याग कर दीजिए। यदि आपको पारमार्थिक या धार्मिक जीवन की ओर रुचि न भी हो तब भी इस साधन को अपनाने में आपके स्वास्थ्य को बड़ा लाभ पहुँचेगा। पढ़े-लिखे व्यक्तयों में आजकल जितने रोग हैं,उन सबके पीछे उपर्युक्त वस्तुओं की भोजन में प्रधानता होना ही मुख्य कारण है ।

अस्वाद व्रत द्वारा यदि आपने प्रयास किया और निरंतर अभ्यास करते रहे तो आप अवश्य बुद्धियोग के द्वारा ज्ञान, भक्ति या कर्म किसी से भी योग करके सच्चा सुख और शांति प्राप्त करते हुए अपने वास्तविक सत्यं, शिवं, सुंदरम्, स्वरूप को प्राप्त हो जाएँगे।

 इंद्रिय संयम और ब्रह्मचर्य व्रत

 ब्रह्मचर्य व्रत की महिमा सर्वविदित है । इसकी शक्ति अमोघ मानी गई है और आज, संसार में जितने व्यक्तियों ने महान और उपयोगी काम कर दिखाए हैं, वे किसी न किसी रूप में ब्रह्मचर्य के अनुगामी थे। जैसा अमेक बार बतलाया जा चुका है, ब्रह्मचर्य का मतलब यह नहीं कि कामवृत्ति का सर्वथा परित्याग ही कर दिया जाए। उचित अवस्था प्राप्त होने पर शास्त्रों की मर्यादा के अनुसार उसको प्रयोग करना किसी ने बुरा नहीं बतलाया। इतना ही नहीं, शास्त्रकारों ने तो उस गृहस्थ को भी ब्रह्मचारी ही बतलाया है जो केवल अपनी स्त्री तक सीमित रहकर नियमानुकूल आचरण करता है।

 ब्रह्मचर्य का विश्लेषण करने पर निम्नलिखित तीन तत्त्व मिलते हैं :

(१) आत्मसंयम -ब्रह्मचर्य यथार्थ में शक्ति संयम ही है ।

 (२) सादगी -भोजन, वेश तथा जीवन के प्रत्येक अंग में, दैनिक जीवन की हर एक बात में सादगी रखना, इसी की युवकों को जरूरत है। जो लोग जरूरतों के बढ़ाने ही को सभ्यता का अर्थ समझते हैं, उनसे मैं सहमत नहीं, सच्ची सभ्यता सादगी में हैं, न कि संग्रह में ।

(३) विचारशक्ति -ब्रह्मचर्य एक आंतरिक शक्ति है । विचारशक्ति का विकास किस प्रकार हो सकता है, सादगी का जीवन किस प्रकार आचरण में लाया जा सकता है तथा आत्मसंयम या आत्मशक्ति किस प्रकार बढ़ सकती है? इन बातों का विवेचन पर्याप्त किया जा चुका है, तो भी कुछ ऐसे साधन और अभ्यास हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य भाव की वृद्धि के लिए पालन करना आवश्यक है।

प्राचीन और आधुनिक में जो बड़ा भारी भेद है, वह और भोग का। वर्तमान आदर्शों के आंतरिक महत्त्व को मैं नहीं भुलाता। आजकल के वैज्ञानिक विवेचन आलोचनात्मक भाव तथा राजनीतिक स्वतंत्रता की भावनाओं का मैं अनादर नहीं करता । किंतु आधुनिक सभ्यता की इन आंतरिक और गूढ़तर भावनाओं पर हमारी शालाओं में आजकल जोर नहीं दिया जाता। वहाँ तो आधुनिक सभ्यता के ऊपरी पहलू और गलत भावनाओं तथा दुर्गुणों पर ही दृष्टि रखी जाती है । नवयुवक भोग के पीछे दौड़ रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि सभ्यता का अर्थ जरूरतों की बढ़ोत्तरी या कामनाओं का संग्रह नहीं, किंतु उनकी सादगी है । वे नहीं समझते कि मनुष्यता का नियम आत्मभोग नहीं, किंतु आत्मसंयम है । प्राचीन भारत ने यह अनुभव किया था कि मनुष्य भोग विलासी जानवर नहीं, किंतु वह एक दिव्यपुरुष है, जो आत्मसंयम और आत्मतपस्या के द्वारा अपनी दिव्य मनुष्यता का अनुभव प्राप्त करना चाहता है। प्राचीन आदर्श ब्रह्मचर्य था, वर्तमान आदर्श बहुतों की दृष्टि में भोगचर्या जान पड़ता है। वे आराम-तलबी और विलासिता चाहते हैं, पर हिंदू शास्त्रों के अनुसार तपस्या ही सभ्यता और सृष्टि की आधारशिला है।

 संयम और सदाचार की महिमा

अपने जीवन को शुद्ध और समृद्ध बनाने की साधना जिन्होंने की है, वे अनुभव से कहते आए हैं किअहारशुद्धो सत्वशुद्धिः’ इस सूत्र के दो अर्थ हो सकते हैं, क्योंकि सत्य के दो माने हैं-शरीर का संगठन और चारित्र्य। अगर आहार शुद्ध है, याने स्वच्छ है, ताजा है, परिपक्व है, सुपाच्य है, प्रमाणयुक्त है और उसके घटक परंपरानुकूल हैं तो उसके सेवन से शरीर के रक्त, मज्जा, शुक्र आदि सब घटक शुद्ध होते हैं। वात, पित्त, कफ आदि की साम्यावस्था रहती है और सप्तधातु परिपुष्ट होकर शरीर सुदृढ़ कार्यक्षम तथा सब तरह के आघांत सहन करने के योग्य बनता है और इस आरोग्य का मन पर भी अच्छा असर होता है । आहारशुद्धिः’ का दूसरा और व्यापक अर्थ यह है कि आहार यदि प्रामाणिक है, हिंशाशून्य है और यज्ञ, दान, तप का फर्ज अदा करने के बाद प्राप्त किया गया है तो उससे चारित्र्य शुद्धि में पूरी – पूरी मदद मिलती है। चारित्र्य शुद्धि का आधार इस प्रकार की आहार शुद्धि पर ही निर्भर है।

अगर यह बात सही है, आहार का चरित्र पर इतना असर है तो बिहार का याने लैंगिक शुद्धि का चरित्र पर कितना प्रभाव हो सकता है, इसका अनुमान करना कठिन नहीं होना चाहिए।

जिसे हम काम विकार कहते हैं अथवा लैंगिक आकर्षण कहते हैं, वह केवल शारीरिक भावना नहीं है। मनुष्य के सारे के सारे पहलू उसमें उत्तेजित हो जाते हैं और अपना-अपना काम करते हैं। इसलिए जिसमें शरीर, मन, हृदय की भावनाएँ और आत्मिक निष्ठा, सबका सहयोग अपरिहार्य है, ऐसी प्रवृति का विचार एकांगी दृष्टि से नहीं होना चाहिए । जीवन के सार्वभौम और सर्वोत्तम मूल्य से ही उसका विचार करना चाहिए । जिस आचरण में शारीरिक प्रेरणा के वश में होकर बाकी के सब तत्त्वों का अपमान किया जाता है, वह आचरण समाज द्रोह तो करता ही है, लेकिन उससे भी अधिक अपने व्यक्तित्व के प्रति महान द्रोह करता है।

लोग जिसे वैवाहिक प्रेम कहते हैं, उसके तीन पहलू हैं। एक भोग से संबंद्ध रखता है, दूसरा प्रजा तंतु से और तीसरा भावना की उत्कटता से। पहली प्रधानता शारीरिक है, दूसरी मुख्यत: सामाजिक और व्यापक अर्थ में आध्यात्मिक। यह तीसरा तत्त्व सबसे महत्त्व का सार्वभौम है और उसी का असर जब पहले दोनों के ऊपर पूरा-पूरा पड़ता है, तभी वे दोनों उत्कट, तृप्तिदायक और पवित्र बनते हैं ।

इन तीनों तत्त्वों में से पहला तत्त्व बिलकुल पार्थिव होने से उसकी स्वाभाविक मर्यादाएँ भी होती हैं, भोग से शरीर क्षीण होता है । अति सेवन से भोगशक्ति भी क्षीण होती है और भोग भी नीरस हो जाते हैं । भोग से संयम का प्रमाण जितना अधिक होगा उतनी ही अधिक उसकी उत्कृष्टता होगी। भोग में संयम का तत्त्व आने से ही उसमें आध्यात्मिकता आ सकती है। संयमपूर्ण भोग में ही निष्ठा और आध्यात्मिकता आकर टिक सकते हैं। संयम और निष्ठा के बिना वैवाहिक जीवन का सामाजिक पहलू कृतार्थ हो ही नहीं सकता। केवल लाभ – हानि की दृष्टि से देखा जाए तो वैवाहिक जीवन का परमोत्कर्ष संयम और अनन्यनिष्ठा में ही है। भोगत्त्व हार्दिक और आत्मिक होने से उसके विकास की कोई मर्यादा ही नहीं है।

आजकल के लोग जब कभी लैंगिक नीति की स्वच्छंदता का प्रचार करते हैं, तब वे केवल भोगप्रधान पार्थिव अंश को ही ध्यान में लेते हैं । जीवन की इतनी क्षुद्र कल्पना वे ले बैठे हैं कि थोड़े ही दिनों में उन्हें अनुभव हो जाता है कि ऐसी स्वतंत्रता में किसी किस्म की सिद्धि नहीं है और न सच्ची तृप्ति। ऐसे लोगों ने अगर उच्च आदर्श ही छोड़ दिया तो फिर उनमें तारक असंतोष भी नहीं बच पाता। विवाह संबंध में केवल भोग के संबंध का विचार करने वाले लोगों ने भी अपना अनुभव जाहिर किया है-

एतत्कामफल लोके यत् द्वयोः एतचित्तता।

अन्य चित्तकृते कामे शवयो इव संगमः

यह एक चित्तता यानि हृदय की एकता अथवा स्नेहग्रंथि अन्योन्य निष्ठा और अपत्य निष्ठा के बिना टिक ही नहीं सकती। बढ़ने की बात दूर रही ।

 संयम और निष्ठा ही सामाजिकता की सच्ची बुनियाद है । संयम से जो शक्ति पैदा होती है, वही चरित्र का आधार है । जो आदमी कहता है कि मैं संयम नहीं कर सकता, वह चरित्र की छोटी-मोटी एक भी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकेगा। इसलिए संयम ही चरित्र का मुख्य आधार है।

 चरित्र का दूसरा आधार है निष्ठा। व्यक्ति का जीवन तभी कृतार्थ हो सकता है, जब वह स्वतंत्रतापूर्वक समष्टि में विलीन हो जाता है । व्यक्ति स्वातंत्र्य को सँभालते हुए अगर समाजपरायणता सिद्ध करनी हो तो वह अनन्य निष्ठा के बिना हो नहीं सकती और अखिल समाज के प्रति एकसी अनन्य निष्ठा तभी सिद्ध होती है, जब ब्रह्मचर्य का पालन करता है, अर्थात कम से कम वैवाहिक जीवन को परस्पर दृढ़ निष्ठा से प्रारंभ करता है ।

अनन्य निष्ठा जब आदर्श कोटि तक पहुंचती है, तब वहीं से सच्ची समाजसेवा शुरू होती है। अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।’ अगर आपने अपने मन को वश में कर लिया है और आप उस पर विवेक का अकुंश रखते हैं तो आपको संसार के व्यवहार करते हुए भी कोई कठिनाई प्रतीत न होगी। वैराग्य, त्याग, विरक्ति-इन महातत्वों का सीधा संबंध अपने मनोभावों से है। यदि भावनाएँ संकीर्ण हों, कलुषित हों, स्वार्थमयी हों तो चाहे कैसी भी उत्तम सात्विक स्थिति में मनुष्य क्यों न रहे, मन का विकार वहाँ भी पाप की सृष्टि करेगा। यदि भावनाएँ उदार एवं उत्तम हैं तो अनमिल और अनिष्टकारक स्थिति में भी मनुष्य पुण्य एवं पवित्रता उत्पन्न करेगा। महात्मा इमर्सन कहा करते थे कि “मझे नरक में भेज दिया जाए तो भी मैं वहाँ अपने लिए स्वर्ग बना लेंगा।” वास्तविक बात यही है कि बुराई-भलाई हमारे ही मन से उत्पन्न होती है। हमारी इंद्रियों अगर बुरे मार्ग पर जाती हैं तो उसकी जिम्मेदारी किसी दूसरे पर नहीं वरन स्वयं मन पर ही है। अगर हमारा मन सुमार्गगामी रहकर इंद्रियों को संयम में रखे तो समस्त सांसारिक कार्यों को करते हुए भी हम सादगी के अधिकारी बन सकते हैं।

लेखक : पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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2 comments

Suman singh May 5, 2022 - 7:49 am

Very good

अखंड ज्योति 🌄 July 16, 2022 - 3:03 pm

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