द्रौपदी जमुना में स्नान कर रहीं थीं। दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि कुछ दूर पर एक साधु स्नान कर रहा है। हवा से उसकी किनारे पर रखी लँगोटी पानी में बह गई और जिसे वह पहने था, पुरानी होने के कारण संयोगवश वह भी उसी समय फट गई। बेचारा असमंजस में था। नंगी-उघारी स्थिति में लोगों के बीच से कैसे गुजरे ? उसने दिनभर झाड़ी में छिपकर समय काटने और अँधेरा होने पर कुटी में लौटने का निश्चय किया। सो छिप गया। द्रौपदी को स्थिति समझने में देर न लगी। वे झाड़ी तक पहुँचीं। अपनी साड़ी का एक तिहाई भाग फाड़कर साधु को दे दिया। कहा- “इसमें से दो लँगोटियाँ बना लीजिए। दो तिहाई से मेरी भी लाज ढँक जाएगी। एक तिहाई से आप भी लाज बचा लें। मनुष्य की लाज एक है।” साधु ने कृतज्ञतापूर्वक वह अनुदान स्वीकार किया।
जब एक बार दुर्योधन की सभा में द्रौपदी की लाज उतारी जा रही थी। उसने भगवान को पुकारा। भगवान सोचने लगे- इसका कुछ पुण्य जमा हो, तो बदले में अधिक दे सकना संभव है। देखा तो साधु की लँगोटी वाला कपड़ा ब्याज समेत अनेक गुना हो गया। भगवान ने उसी को द्रौपदी तक साड़ी के रूप में पहुँचाया और उसकी लाज बचाई। देवता शब्द बना ही दान से है अर्थात जो सदैव देता रहता है, वही देवता है। मनुष्य के पास परमात्मा ने शक्ति का अक्षय कोष भर दिया, ताकि परंपरा बंद न हो।
अमृत कण ( सचित्र बाल वार्ता )
युग निर्माण योजना , मथुरा