मनुष्य जीवन इस सृष्टि की सबसे श्रेष्ठ रचना है। लगता है भगवान ने अपनी सारी कारीगरी को समेटकर इसे बनाया है। जिन गुणों और विशेषताओं के साथ इसे भेजा गया है, वे अन्य किसी प्राणी को प्राप्त नहीं हैं। इस कथन में भगवान पर पक्षपाती होने का आरोप लग सकता है, किंतु बात ऐसी है नहीं। भगवान तो सबका पालनहार पिता है, उसे अपनी सभी संतानें एक समान प्रिय हैं और वह न्यायप्रिय है। सभी प्राणियों को उसने जीने लायक आवश्यक सुविधाओं को देकर भेजा है। स्वयं निराकार होने के कारण उसने मनुष्य को अपना मुख्य प्रतिनिधि बनाकर सृष्टि (विश्व व्यवस्था) की देख-रेख के लिए भेजा है। उसे उसकी आवश्यकता से अधिक सुविधाएँ और शक्तियाँ इसलिए दी गई हैं, ताकि वह उसके विश्व – उद्यान को सुंदर, सभ्य और खुशहाल बनाने में अपनी जिम्मेदारी को ठीक ढंग से निभा सके।” शारीरिक दृष्टि से मनुष्य की स्थिति अन्य प्राणियों से बेहतर नहीं है । पक्षियों की तरह हवा में उड़ना, मछलियों की भाँति जल में तैरना उसे नहीं आता। बंदर के समान पेड़ पर उछल-कूद वह नहीं कर सकता, शेर की तरह अपना पराक्रम-बल भी नहीं दिखा सकता। हाथी के सामने वह बौना सा दिखता है। इंद्रिय क्षमताओं में भी अन्य प्राणी उससे श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। सूँघने की शक्ति में कुत्ता, सुनने में उल्लू और देखने में बाज मनुष्य से बहुत कुशल ही सिद्ध होते हैं। कुछ जीवधारी तो भूकंप, वारिश तूफान आदि का पहले से ही अनुमान भी लगा लेते हैं और समय रहते अपना बचाव कर लेते हैं, किंतु मनुष्य अपनी बुद्धि और पुरुषार्थ की क्षमता में सभी प्राणियों पर भारी पड़ता है। अपने से अधिक शक्तिशाली, खतरनाक और भारी भरकम शेर, चीता व हाथी जैसे वनप्राणियों को वह अपने बुद्धि कौशल और मानसिक बल से हरा देता है। उन्हें पिजड़े में बंद कर देता है और वह सरकस में भाँति-भाँति के खेल-तमाशे करवाता है। अपनी बौद्धिक और मानसिक विशेषताओं के बल पर ही उसने अपने जीवन को सुखी व सरल बनाने के प्रयास में ज्ञान-विज्ञान की कितनी ही खोजें कर डाली हैं। भाषा -लिपि, कला – साहित्य, चिकित्सा, मनोविज्ञान,दर्शन, राजनीति आदि उसी की विशेषताएँ हैं, जिसके कारण वह सभ्य प्राणी कहलाता है। अन्य प्राणियों से इसकी तुलना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य की इच्छा शक्ति का भी कोई जबाव नहीं है। उसने चाहा तो अपने पुरुषार्थ के बल पर धरती, आकाश और समुद्र को मथकर रख दिया।धरती के घने जंगलों, पर्वत की ऊँची चोटियों, लंबी नदियों, चौड़े रेगिस्तानों और बर्फीले मरुस्थलों को उसने नाप लिया है। गहरे सागर के भीतर वह खोजबीन कर रहा है और अंतरिक्ष की गहराइयों में ग्रह-नक्षत्रों के ऊपर जीवन की संभावनाओं की तलाश करता हुआ, चाँद सितारों पर अपना घर बसाने की सोच रहा है। मनुष्य की इस पुरुषार्थ गाथा के सामने तो समुद्र मंथन की पौराणिक कथा भी फीकी पड़ जाती है, किंतु अपनी बौद्धिक क्षमता और पुरुषार्थ के बल पर ही मनुष्य को सबसे श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यदि इनका उपयोग खाली अपने स्वार्थ, दूसरों पर रौब जमाने या शोषण आदि में किया गया तो यही क्षमताएँ अशांति, मुसीबत और परेशानी भरा माहौल खड़ा करती हैं। ऐसे में मनुष्य की प्रशंसा नहीं की जा सकती। यह ईश्वर की उस इच्छा की भी अवज्ञा है, जिसके अनुसार उसने मनुष्य को अतिरिक्त योग्यताएँ अपने विश्व – उद्यान को सजाने-सँवारने के लिए दी हैं। ऐसे में ईश्वरीय न्याय विधान में दंड की भी उचित व्यवस्था है। इसी के अनुसार गंभीर कुकर्मों के लिए मनुष्य को पशु-पिशाच और भूत-प्रेत जैसी नीच योनियों तक में भटकना पड़ता है। बड़े अधिकारियों को उनके निर्वाह वेतन के अतिरिक्त गाड़ी – बंगला, नौकर-चाकर, सहयोगी आदि के रूप में अतिरिक्त सुविधाएँ इसलिए दी जाती हैं कि वे बड़ी जिम्मेदारियों को अधिक अच्छे ढंग के साथ निभा सकें, न कि अपना रौब और विलासिता प्रदर्शन के लिए सुविधा-साधनोंका गलत उपयोग करने पर उन्हें दंड भी मिल सकता है।
पुस्तक का नाम-मानव जीवन की गरिमा
-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य