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विवेक की कसौटी भाग २

by Akhand Jyoti Magazine

विवेक ही सच्ची शक्ति है

मनुष्य जीवन को सफल बनाने और निर्वाह करने के लिए अनेक प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता पड़ती है। शारीरिक बल, बुद्धि-बल, अर्थ-बल, समुदाय बल आदि अनेक साधनों से मिलकर मानव-जीवन की समस्याओं का समाधान हो पाता है। इन्हीं बलों के द्वारा शासन, उत्पादन और निर्माण कार्य होता है और सब प्रकार की सम्पत्तियाँ और सुविधायें प्राप्त होती हैं । विवेक द्वारा इन सब बलों का उचित रीति से संचालन होता है, जिससे ये हमारे लिए हितकारी सिद्ध हों ।

मस्तिष्क – बल और विचार बल में थोड़ा अन्तर है, उसे भी हमें समझ लेना चाहिए । मस्तिष्क बल का शरीर बल से संबंध है । विद्याध्ययन, व्यापारिक कुशलता, किसी कार्य व्यवस्था को निर्धारित प्रणाली के अनुसार चलाना, यह सब मस्तिष्क बल का काम है । वकील, डाक्टर, व्यापारी, कारीगर, कलाकार आदि का काम इसी आधार पर चलता है । यह बल शरीर की आवश्यकता और इच्छा की पूर्ति के कारण उत्पन्न होता और बढ़ता है। परन्तु विवेक बल आत्मा से संबंधित है, आध्यात्मिक आवश्यकता, इच्छा और प्रेरणा के अनुसार विवेक जागृत होता है । उचित अनुचित का भेदभाव यह विवेक ही करता है ।

मस्तिष्क बल शरीर जन्य होने के कारण उसकी नीति शारीरिक हित साधन की होती है । इन्द्रिय सुखों को प्रधानता देता हुआ वह शरीर को समृद्ध एवं ऐश्वर्यवान बनाने का प्रयत्न करता है। अपने इस दृष्टिकोण के आगे वह उचित-अनुचित का भेदभाव करने में बहुत दूर तक नहीं जाता । जैसे भी हो वैसे भोग ऐश्वर्य इकट्ठा करने की धुन में प्रायः लोग कर्तव्य अकर्तव्य का ध्यान भूल जाते हैं, अनुचित रीति से भी स्वार्थ साधन करते हैं ।

विवेक इससे सर्वथा भिन्न है। देखने में ‘विवेक’ भी मस्तिष्क बल की ही श्रेणी का प्रतीत होता है, पर वस्तुतः वह उससे सर्वथा भिन्न है । विवेक आत्मा की पुकार है, आत्मिक स्वार्थ का वह पोषक है । अन्तःकरण में से सत्य, प्रेम, न्याय, त्याग, उदारता, सेवा एवं परमार्थ की जो भावनाएँ उठती हैं उनका वह पोषण करता है । सत् तत्वों के रमण में उसे आनन्द आता है। जैसे शरीर की भूख बुझाना मस्तिष्क बल का प्रयोजन होता है । वैसे ही आत्मा की भूख बुझाने में ‘विवेक’ प्रवृत्त रहता है । काम और अहंकार की पूर्ति में बलशाली लोग सुख अनुभव करते हैं पर उससे अनेकों गुना आनन्द – परमानन्द – विवेकवान् को प्राप्त होता है ।

बल द्वारा सम्पत्ति और भोग सामग्री उपार्जित होती है, परन्तु इस उपार्जन का तरीका इतना संकुचित और स्वार्थमय होता है कि उसकी धुन में मनुष्य धर्म-अधर्म की परवाह नहीं करता। इसलिए केवल बल द्वारा उत्पन्न की हुई सम्पत्ति कलह और क्लेश उत्पन्न करने वाली दुखदायक एवं परिणाम में विष के समान होती है। ऐसी सम्पत्ति का उपार्जन संसार में अशान्ति, युद्ध, शोषण, उत्पीड़न एवं प्रतिहिंसा की नारकीय अग्नि को प्रज्ज्वलित करने में घृत का काम करता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए विवेक बल से शरीर बल और मस्तिष्क बल पर नियंत्रण कायम करना पड़ता है ।

बल के ऊपर विवेक का नियंत्रण कायम रहना अत्यन्त आवश्यक है, बिना इसके संसार में सुख-शान्ति कायम नहीं रह सकती । बल अन्धा है और विवेक पंगा है। केवल बल की प्रधानत रहे तो उससे अनर्थ, अत्याचार एवं पाप की उत्पत्ति होंगी, बल के अभिमान में मनुष्य अन्धा हो जाता है । विवेक नेत्र स्वरूप है, वह सत्पथ का प्रदर्शन करता है, किन्तु अकेला विवेक क्रिया रहित हो जाता है । अनेकों एकान्तवासी विवेकशील विद्वान् एक कोने में पड़े अपनी निरुपयोगिता सिद्ध करते रहते हैं । जब विवेक और बल दोनों का सामञ्जस्य हो जाता है, तो उसी प्रकार सब व्यवस्था ठीक हो जाती है जैसे एक बार अन्धे की पीठ पर पंगा आदमी बैठ गया था और वे आपसी सहयोग के कारण जलते हुए गाँव में से बचकर भाग गये थे । यदि दोनों सहयोग न करते तो दोनों का ही जल मरना निश्चित था ।

धर्मशास्त्रों ने बल के ऊपर विवेक का शासन स्थापित किया है । भौतिक जगत में भी यही प्रथा और परिपाटी कायम की गई है । कला- कौशल- बल, धन और शरीर बल इन तीनों बलों के प्रतिनिधि स्वरूप शुद्ध, वैश्य एवं क्षत्रिय पर विवेक के प्रतिनिधि ब्राह्मण का शासन कायम किया गया है। हम प्राचीन इतिहास में देखते हैं कि हर एक राजा की शासन प्रणाली राजगुरु के आदेशानुसार चलती थी । तीनों वर्गों का पथ-प्रदर्शन ब्राह्मण करते थे ।

ऐतरेय ब्राह्मण ७-४–८ में एक श्रुति आती है- ‘अर्धात्मोहक एय क्षत्रियस्य यत्पुरोहितः ।’ अर्थात् क्षत्रिय की आघी आत्मा पुरोहित है । पुरोहित के अभाव में क्षत्रिय आधा आत्मा मात्र है । हम देखते हैं कि जनता के आन्दोलनों का समुचित लाभ प्राप्त होना नेताओं की सुयोग्यताओं पर निर्भर है । विवेकशील सुयोग्य नेताओं के नेतृत्व में अल्प जन बल से भी महत्वपूर्ण सफलता मिल जाती है । नेपोलियन के पास थोड़े से सिपाही थे, पर वह अपने बुद्धि कौशल द्वारा इस इस थोड़ी-सी शक्ति से ही महान सफलताएँ प्राप्त करने में समर्थ हुआ ।

जो विवेकवान व्यक्ति पथ प्रदर्शन एवं नेतृत्व कर सकने योग्य क्षमता रखते हैं उन पुरोहितों का उत्तरदायित्व महान है । एतरेय ब्राह्मण के ८-५२ में ऐसे पुरोहितों को ‘राष्ट्र गोप’ अर्थात राष्ट्र की रक्षा करने वाला कहा है । यदि देश समाज एवं व्यक्तियों का बल अनुचित दिशा में प्रवृत्त होता था तो उसका दोष पुरोहितों पर पड़ता था । ताण्ड्य ब्राह्मण के १३३-१३ में एक कथा आती है कि इक्ष्वाकुवंशीय अरुण नामक एक राजा की अहंकारिता और उद्दण्डता सीमा से बाहर बढ़ गई । एक बार उस राजा की लापरवाही से रथ चलाने के कारण एक व्यक्ति को चोट लग गई । वह व्यक्ति अरुण के पुरोहित ‘वृक्ष’ के पास गया और उनकी भर्त्सना करते हुए कहा- आपने राजा को उचित शिक्षा नहीं दी है । आपने अपने गौरवास्पद पुरोहित पद के कर्तव्य का भलीभाँति पालन नहीं किया है। यदि किया होता तो राजा इस प्रकार का आचरण न करता । उस व्यक्ति के यह वचन सुनकर ‘वृक्ष’ बहुत, लज्जित हुए । उन कुछ कहते न बन पड़ा, उन्होंने उस व्यक्ति को अपने आश्रम में रखा और जब तक उसकी चोट अच्छी न हो गई तब तक उसकी चिकित्सा की ।

उपरोक्त कथा इस सत्य को प्रदर्शित करती है कि राज्य के प्रति पुरोहित का कितना उत्तरदायित्व है । बल को उचित दिशा में प्रयोजित करने की ‘विवेक’ की कितनी बड़ी जिम्मेदारी है । आज पुरोहित-तत्व और राज्य तत्व दो प्रथक दिशाओं में चल रहे हैं, एक ने दूसरे का सहयोग कम कर दिया है । फलस्वरूप हमारी राजनैतिक,  सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक सुव्यवस्था नष्ट भ्रष्ट हो रही है । जब तक पुरोहित तत्व अपने उचित स्थान को ग्रहण न करेगा तब तक हमारे बाह्य और भीतरी जीवन में शान्ति भी स्थापित न होगी । विवेक का शरीर, समाज और राष्ट्र के ऊपर समुचित शासन होना चाहिए ।

जनता को अज्ञानान्धकार से छुड़ा कर ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करना पुरोहित का कार्य है । जो व्यक्ति ज्ञानवान हैं, जागृत हैं, पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता रखते हैं उन पुरोहितों का कर्तव्य है कि जनता को जागृत करते रहें । सामाजिक, राष्ट्रीय, शारीरिक एवं आर्थिक खतरों से सजग रखना और कठिनाइयों को हल करने का मार्ग प्रदर्शित करना पुरोहित का प्रधान कर्तव्य है । अन्तःकरण में रहने वाले पुरोहित का कर्तव्य है कि वह विवेक द्वारा शक्तियों पर नियंत्रण करे और उन्हें कुमार्ग से बचा कर सन्मार्ग पर लगावें ।

हे पुरोहित ! जाग ! राष्ट्र के बारे में जागरूक रह । वेद पुरुष कहता है- ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः ।” पुरोहित राष्ट्र के सम्बन्ध में जागते रहें, सोवें नहीं। हमारे अन्तःकरण में बैठे हुए हे विवेक पुरोहित ! जागता रह ! ताकि हमारा बल ‘क्षत्रिय’ अनुचित दिशा प्रवृत्त न हो । हमारे देश और जाति का नेतृत्व कर सकने की क्षमता रखने वाले सामाजिक शक्तियों का अनुचित आधार पर अपव्यय न हो । हे पुरोहित ! जाग, हमारे बल पर शासन कर, ताकि हम पुनः अपने अतीत गौरव की झाँकी कर सकें ।

विवेक और स्वतंत्र चिन्तन

आधुनिक संसार में स्वतंत्र चिन्तन का बड़ा महत्व है । प्रायः अन्य देशीय लोग भारतीयों पर अन्ध विश्वास का दोष लगाया करते हैं, पर यह त्रुटि हमारे देश में पिछले कुछ सौ वर्षों के अन्धकार-काल में ही बढ़ी है अन्यथा वैदिक साहित्य तो स्पष्ट रूप से स्वतंत्र चिन्तन का समर्थन करता है । क्योंकि बिना स्वतंत्र चिन्तन के विवेक जागृत नहीं होता और इसके बिना अनेक मार्गों में से अपने अनुकूल श्रेष्ठ मार्ग का बोध हो सकना संभव नहीं है। दूसरों का अनुगमन करते रहने में कुछ सुविधा अवश्य जान पड़ती है, पर उससे सच्ची उन्नति का मार्ग अवरुद्ध रहता है ।

जिस भाँति आलसी, काहिल और विलासी वृत्ति के लोग अपने शरीर से पुरुषार्थ नहीं करना चाहते हैं उससे कतराते हैं, उसी भाँति अनेक लोग विचार और मन के जगत में सदा परोपजीवी स्वभाव के होते हैं । वे चाहते हैं कि दूसरे हमें चिन्तन और मनन करके विचार-दिशा प्रदान करें और मैं चुपचाप हाँके जाने वाले पशु की तरह केवल उस पथ का अनुसरण करता रहूँ । उस पथ के अच्छे और बुरे होने का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर नहीं हो, कोई इसे बुरा होने का दोष मेरे शिर नहीं डाल सकता, पर ऐसा करते समय उसे यह पता नहीं होता कि आखिर अनेकों पंथों में से किसी एक राह को अपने चलने के लिए चयन कर लेने में भी उसका एकमात्र उत्तरदायित्व हो जाता है। इसीलिए वे सभी भाँति अपने को निर्दोष सिद्ध करने में सफल नहीं हो सकते । फिर भी ऐसे जनों का मानसिक और बौद्धिक आलस्य दूर नहीं हो पाता । ऐसे मनुष्यों की, उन भेड़ों से बहुत कुछ समता की जा सकती है, जो एक भेड़ के पीछे चलने की वृत्ति रखकर कुएँ में गिर सकती हैं। इस वृत्ति के मनुष्यों का व्यक्तित्व कभी निखर नहीं सकता । वह अपने जीवन में महान कार्य करने के लिए प्रायः अयोग्य ही सिद्ध होते हैं ।

अध्ययन तो अनेकों व्यक्ति करते हैं, पर सभी विद्वान नहीं हो पाते, इसका कारण क्या है ? कितने व्यक्ति हजारों पुस्तक पढ़ डालते हैं, कितनी रट भी लेते हैं, फिर भी यदि उनका कुछ निश्चित विचार नहीं है, स्वतंत्र चिन्तन नहीं है तो वह उतना बड़ा विशाल पठन- अध्ययन भी उसके व्यक्तित्व को, उसकी सत्ता के महत्व को स्थापित करने में असमर्थ ही रहता है, जब कि एक स्वतंत्र चिंतक और मननशील व्यक्ति अपने थोड़े से अध्ययन के सहारे समाज और राष्ट्र में अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व निर्मित कर लेता है ।

जिस भाँति शरीर से उत्पन्न शिशुओं को मनुष्य अपनी सन्तान कर उसे स्नेह और प्यार देते हैं, उसके जीवन को विकसित, उत्कर्ष भरा बनाने के लिए यथासम्भव प्रयत्न करते हैं, उसी भाँति यदि हम अपने स्वतंत्र विचारों को सम्मान और स्नेह दे सकें, तो वे साधारण जैसे प्रतीत होने वाले विचार ही हमारे व्यक्तित्व को एक ऐसे विशेष रूप में गढ़ डालते हैं, जिस भाँति हम अपनी सन्तान को अपना रंग रूप प्रदान करते हैं ।

ऐसा नहीं करके यदि हमने केवल दूसरों के विचारों से अपने स्मृति भण्डार को भर कर उसे सदा दूसरों का ही बनाये रखा, अन्न की भाँति खा और पचा कर उसे रक्त की भौति अपने विचार का अंग नहीं बना लिया, उसका उपयोग नहीं किया, व्यवहार में चरितार्थ नहीं किया तो हमारे वे सारे अध्ययन, हमारे लिए केवल बोझ ही बनते हैं, हमारी शक्ति को नष्ट ही करते हैं, पुष्ट नहीं करते । इसलिए यदि हमें केवल भारवाही पशु न बनकर मानव बनने की अभिलाषा है, तो जिस वस्तु की हमें जिज्ञासा हो, उसे दूसरों से सुनकर, जानकर एवं अध्ययन करके ही निश्चिन्त न हो जायें, वरन् वह ज्ञान यदि हमारे अन्तरात्मा को स्वीकार है, तो उसे अपने अंग-अंग में उतर जाने दें, अपने मन, वाणी और व्यवहार को उससे ओत-प्रोत हो जाने दें । इसी का नाम स्वतंत्र चिन्तन और मनन है अन्यथा वह सत्वहीन है- कागज का फूल मात्र है ।

जिस भाँति माँ का दूध पीकर, शस्य श्यामला भूमि का अन्न खाकर, जल पीकर, प्रकृति देवी से अन्य खाद्य ग्रहण कर हमारे शरीर परिपुष्ट होते और बढ़ते हैं, उसी भाँति प्रत्येक व्यक्ति के मूलगत विचारों की भी दशा है । वह अपने परिपोषण के लिए सभी दिशाओं से पोषकतत्व ग्रहण कर बढ़ता जाता है, पर उन तत्वों में ही अपने को खो नहीं देता । जिसने अपने को उसी में खोया, वह फिर कोई वृक्ष या व्यक्ति नहीं बनता, वरन् स्वयं भी खाद्य- खाद बन जाता है और उसे चूसकर – अनुयायी बनाकर दूसरे बढ़ते और विकास करते हैं ।

अपने विचारों को निश्चित और विशिष्ट स्वरूप देने के लिए उसे वाणी और लेखन के द्वारा प्रकट करते रहना चाहिए । पुनः अभिव्यक्ति वाणी और लेखन का अनुशीलन कर उसे परिमार्जित और परिष्कृत बनाते जाना चाहिए । ऐसा अभ्यास करते करते वह विचार हमारे आचरण में संक्रमित होने लगते हैं और एक दिन हम स्वयं उस विचार के मूर्तिमान स्वरूप बन जाते हैं। यह है सही शुद्ध, चिन्तन-मनन का परिणाम |

यह सृष्टि विविधात्मक रूप में ही अनन्त है । इसीलिए यहाँ की कोई भी रचना, सृष्टि, रूप और आकृति सम्पूर्णतया एक जैसी नहीं होती । इसलिए विवेकयुक्त व्यक्तित्व निर्माण करने के पहले हमें स्वयं अपना ही चिन्तन और मनन करना चाहिए । हम कैसा बनना चाहते हैं, यह भी गम्भीर चिन्तन और मनन के फलस्वरूप अपने अन्तर से ही उत्पन्न होता है, दूसरा इसे नहीं दे सकता ।

लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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