अध्यात्म इस जीवन का सारतत्त्व है। संसार समाज की तमाम उपलब्धियों के बाद भी जीवन में जो खाली स्थान रह जाता है, उसकी पूर्ति अध्यात्म करता है। अपने जीवन के परम विकास की ओर अग्रसर चेतना का यह सहज सोपान है। प्रकृति के नियमों के अंतर्गत सृष्टि का हर घटक, हर प्राणी पूर्णता के पथ पर अग्रसर है, लेकिन मनुष्य को ही यह विशेषता मिली है कि वह अपने सचेतन प्रयास के आधार पर आत्मिक प्रगति को त्वरित कर सकता है।
युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने युगानुकूल परिस्थितियों को देखते हुए उपासना, साधना एवं आराधना के रूप में इसके त्रिविध सूत्र दिए, जिसको त्रिवेणी में अवगाहन कर कोई भी अध्यात्म लाभ प्राप्त कर सकता है। प्रस्तुत हैं यहाँ इस पथ के कुछ व्यावहारिक सूत्र, जो अध्यात्म पथ की यात्रा को और सरल सहज एवं प्रभावी बनाते हैं।
सबसे पहले जीवन से शिकायत करना बंद करें। हम जो हैं, वह हमारे पूर्वकर्मों का फल है और जो हम आगे बनना चाहते हैं, उसके लिए भी हमें अपने वर्तमान के कर्मों को सुधारना होगा अपने लक्ष्य के अनुरूप अपने चिंतन कर्म व भावों का निर्धारण करना होगा। यदि वर्तमान हमें संतोषजनक नहीं लगता, इसमें तमाम न्यूनताएँ व कमियाँ प्रतीत होती हैं तो इसका मूल्यांकन करते हुए इसके जड़मूल में जाएँ, अपने सत्य को खोजें व वहीं से अपनी यात्रा को प्रारंभ करें अपनी प्रकृति, स्वभाव के अनुकूल निश्चित पथ का अनुगम करे।
सबकी प्रकृति अलग होती है, कोई कर्मप्रधान होता है, तो कोई ज्ञानप्रधान और कोई भावप्रधान होता है तो कोई ध्यानप्रधान तथा कोई इनमें से भिन्न-भिन्न भावों का मिश्रण। सद्गुरु के सान्निध्य में, उनके जीवन से निस्सृत प्रकाश के आलोक में जीवन को यह राह सूझती है, प्रकाशित होती है। जितना सत्य प्रत्यक्ष हो जाए, उस पर अडिग रहें। शनैः शनैः मार्ग में आगे बढ़ते हुए अधिक प्रकाश प्रकट होने लगेगा। इस तरह क्रमिक रूप में दैनिक रूप में संयम,स्वाध्याय, साधना व सेवा के मार्ग पर चलते हुए आत्मिक विकास के पथ पर उत्तरोत्तर बढ़ते जाएँ।
इसमें अपने आहार-विहार पर विशेष ध्यान रखें; क्योंकि आहार का मन पर सीधा प्रभाव पड़ता । कहा भी गया है कि ‘ जैसा अन्न वैसा मन’। इसलिए अपने श्रम का, ईमानदारी का अर्जित अन्न ग्रहण करें। इंद्रियों से प्राप्त संवेदनों पर भी ध्यान दें; क्योंकि ये सूक्ष्म आहार के रूप में मन की प्रकृति का निर्धारण करते हैं। आहार यथासंभव सात्त्विक हो, तो बेहतर। राजसिक भी है तो उसे अपनी आवश्यकतानुसार ही ग्रहण करें। तामसिक आहार से बचें।
इस संदर्भ में संग-साथ का विशेष ध्यान दें; क्योंकि कुसंग इंद्रियों की उत्तेजना के साथ विचारों को भी दूषित करता है और व्यवहार में भी अनावश्यक विचलन एवं तनाव का कारण बनता है। इस संदर्भ में बरती गई सावधानी आत्मिक प्रगति एवं आत्मिक शांति की दिशा में एक बड़ा कदम साबित होती है। इस संदर्भ में बरती गई लापरवाही व अति आत्मविश्वास अपनी परिणति में घातक हो सकता है, जिसका शिकार कितने सारे नए साधकों को पग-पग पर होते देखा जा सकता है।
यहाँ पर अपने आध्यात्मिक लक्ष्य के अनुकूल अनुशासित दिनचर्या का महत्त्व स्पष्ट होता है। इसके साथ अपने कर्त्तव्यपालन पर विशेष ध्यान दें। ऐसा कोई अध्यात्म पथ नहीं, जो व्यक्ति या समाज को कर्त्तव्य से विमुख होना सिखाता हो। स्वाभाविक रूप में विकसित वैराग्य के शिखर पर गृह त्याग, संसार-त्याग की बात दूसरी, जो एक विरल घटना रहती है, सामान्यतया व्यक्ति धीरे-धीरे वैराग्य को प्राप्त होता है।
अपने कर्त्तव्य कर्मों का निष्ठा के साथ पालन करते हुए, जीवन के संघर्षों के बीच तपता हुआ क्रमिक रूप में ही वैराग्य पनपता है, विवेक दृष्टि जाग्रत होती है। जब तक यह परिपक्व न हो, पूर्ण रूप से सांसारिक कर्त्तव्यों का त्याग संभव नहीं होता। श्मशान वैराग्य के चलते कितने सारे लोगों को ऐसा करते देखा जाता है, लेकिन देर-सबेर इनको अपनी भूल समझ आ जाती है।
अपने परिवेश के साथ सामंजस्य इसी का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए यह सहज स्वाभाविक रूप से संभव होता है। हमारे हर कार्य प्रायः स्वार्थप्रेरित, अहंकेंद्रित होते हैं। जीवन के इस संकुचन से बाहर निकलने का शुभारंभ हम एक ऐसे कर्म से कर सकते हैं, जिसमें अपना कोई स्वार्थ न हो, जो विशुद्ध रूप में परमार्थभाव से युक्त हो। यह अपने गली मुहल्ले में सफाई से लेकर किसी जरूरतमंद की सेवा शुश्रूषा व लोकहित के किसी सेवाकार्य के रूप में हो सकता है।
गायत्री परिवार में समयदान, अंशदान के रूप में ऐसा संयोग सहज रूप में उपलब्ध रहता है। अपने सत्य, अपने इष्ट-आराध्य एवं सद्गुरु के प्रति उत्कट प्रेम अध्यात्म पथ का केंद्रीय तत्त्व है। शाब्दिक रूप में ये अलग-अलग तत्त्व प्रतीत हो सकते हैं, किंतु तत्त्वतः ये सब एक ही सत्य की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इस आधार पर साधना अराधना का न्यूनतम कार्यक्रम सहज रूप में संपन्न हो जाता है। इसके साथ उपासना का सघन पुट अध्यात्म पथ को एक नया आयाम दे जाता है।
इसके लिए निश्चित स्थान व समय को निर्धारित किया जा सकता है। बाहर का एकांत, शांत एवं सात्त्विक वातावरण इसमें बहुत सहायक रहता है। यदि ऐसा कुछ उपलब्ध न हो तो आंतरिक एकांत का अभ्यास किया जा सकता है। गायत्री महामंत्र के जप के साथ उगते हुए सूर्य सविता का ध्यान, उसके मध्य अपनी भावना श्रद्धा के अनुरूप अपने गुरु, इष्ट की छवि का निर्धारण उपासना के प्रयोजन को पूरा करता है। उदित होते सूर्य के प्रकाश में अपने स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर के परिष्कार तथा सशक्तीकरण का भाव और भी ज्यादा प्रगाढ़ किया जाता है।
इसके बढ़ते क्रम में ध्यान की अगली कक्षाओं में पंचकोशों व षट्चक्रों पर ध्यान धारणा के प्रयोग किए जा सकते हैं। इस सबके साथ मन की चाल को भी समझें। सब कुछ इतनी सरलता से हो जाएगा, आवश्यक नहीं। सतत जागरूकता ही इसका एकमात्र उपाय है। चौबीस घंटों की सजग साधना ही कुछ मिनटों के ध्यान व उपासना को प्रगाढ़ एवं प्रभावशाली बनाती है। इस तरह उपासना-साधना व आराधना का सम्यक निर्वाह जीवन को आत्मिक प्रगति के राजमार्ग पर पूर्णता के चरम लक्ष्य की ओर गतिशील करता है।
जुलाई, 2022 अखण्ड ज्योति
2 comments
Insightful article for seekers of self realisation and the altimate truth.
Pranam, keep reading, keep sharing🙏
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