कठिनाइयाँ हमारी उन्नति में सहायक होती हैं
साधारण लोग कठिनाइयों को दुर्भाग्य की बात समझते हैं । जिन लोगों ने किसी संपन्न परिवार में जन्म लिया है, वे तो हर तरह की असुविधा से ही बहुत घबड़ाते हैं और यही अभिलाषा किया करते हैं कि उनकी समस्त आवश्यकताएँ बिना किसी दिक्कत के यथासमय पूर्ण होती रहें। अन्य लोग भी ऐसे व्यक्तियों को बड़ा ‘भाग्यवान’ समझते हैं । पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है। जिन लोगों ने कभी जीवन की कठोरता के दर्शन नहीं किए हैं, वे अनेक दृष्टियों से कच्चे रह जाते हैं । इसलिए भगवान ने जहाँ सुखों की सृष्टि की है, वहाँ दुःखों और कठिनाइयों की रचना भी कर दी है। इनका अनुभव हुए बिना मनुष्य अपूर्ण रह जाता है और उसका उचित विकास नहीं हो पाता।
भगवान को दयासिंधु एवं करुणासागर कहा जाता है। उनके वात्सल्य, दान और उपकार का कोई अंत नहीं। साधारण प्राणियों का जब अपनी कृतियों पर, अपनी संतति पर इतना ममत्व होता है तो उस महान प्रभु का अपने बालकों पर कितना स्नेह होगा, इसकी कल्पना करना भी सहज नहीं है। चित्रकार अपने चित्र को, माली अपने बाग को, मूर्तिकार अपनी मूर्ति को, किसान अपने खेत को, गड़रिया अपनी भेड़ों को अच्छी, उन्नत, विकसित स्थिति में रखना चाहता है। उन्हें अच्छी स्थिति में देखकर प्रसन्न होता है, फिर परमात्मा अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य को अच्छी स्थिति में न रखना चाहे, ऐसा नहीं हो सकता है। निश्चय ही प्रभु का यह प्रयत्न निरंतर रहता है कि हम सब सुखी एवं सुविकसित हों । उनकी दया और करुणा निरंतर हमारे ऊपर बरसती रहे।
इतना होते हुए भी देखा जाता है कि कितने ही मनुष्य अत्यंत दुखी हैं। उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट और अभाव सता रहे हैं। भय, पीड़ा वियोग, त्रास, अन्याय एवं अभाव से संत्रस्त हुए कितने ही व्यक्ति बुरी तरह दुःख के सागर में गोते लगा रहे हैं। किसी -किसी पर ऐसी आकस्मिक विपत्ति आती है कि देखने वालों का हृदय दहल जाता है । ऐसे अवसरों पर ईश्वर की दयालुता पर संदेह होने लगता है, कई बार तो कष्टों को दैवी कोप, ईश्वरीय निष्ठुरता मान लिया जाता है। परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। प्रभु एक क्षणभर के लिए भी रुक नहीं सकता। जिसे हम विपत्ति समझते हैं, वह भी एक प्रकार से उनकी दया ही होती है ।
माता का अपने बच्चे पर असाधारण प्यार होता है, वह उसे सुखी बनाने के लिए अपनी समझ के अनुसार कोई बात उठा नहीं रखती, तो भी उसके कई कार्य ऐसे हैं जो बालक को अप्रिय होते हैं। बालक किसी स्वादिष्ट भोजन को बहुत अधिक मात्रा में खाना चाहता है, माता जानती है कि अधिक खाने से यह बीमार पड़ जाएगा इसलिए वह बच्चे के रूठने, रोने, हाथ-पाँव पीटने की कुछ भी परवाह न करके उतना ही खाने देती है जितना कि आवश्यक है। आग, हथियार, बारूद आदि से बच्चे को दूर रखा जाता है, वह उनसे खेलना चाहे तो बलपूर्वक रोक दिया जाता है। घर के पशुओं के साथ खेलना चाहे तो भी उसे रोका जाता है ताकि उनके पैरों की चपेट में आकर कहीं कुचल न जाए। बच्चा खिड़की, छज्जों में से बाहर की ओर झुककर देखना चाहे तो उसकी स्वाधीनताको तुरंत रोक दिया जाता है। कोई अनुचित काम करने पर चपत भी लगाई जाती है और डराने के लिए कोठरी में भी बंद कर दिया जाता है । कई बार उसे मुर्गा बनाने, धूप में खड़ा होने, कान पकड़कर उठने-बैठने, भूखा रहने आदि की सजा दी जाती है। बीमार होने पर माता उसे कडूई दवा जबरदस्ती पिलाती है। और उसके कष्ट की परवाह न करके आवश्यक होने पर इंजेक्शन या ऑपरेशन कराने के लिए भी छाती कड़ी करके तैयार हो जाती है।
बालक समझता है कि माता बड़ी निष्ठुर है, मुझे अमुक वस्तु नहीं देती, अमुक प्रकार सताती है और अमुक कष्ट पड़ने पर भी मेरी सहायता नहीं करती। अल्पज्ञान के कारण वह माता के प्रति अपने मन में दुर्भावना ला सकता है, उस पर निष्ठुरता का दोषारोपण कर सकता है, पर निश्चय ही उसकी मान्यता भ्रमपूर्ण होती है । यदि वह माता के हृदय को देख सकता तो उसे प्रतीत होता कि उसमें कितनी अपार करुणा भरी हुई है। और कितना ऊँचा वात्सल्य उसमें हिलोरें ले रहा है। यदि इतना वात्सल्य उसमें न होता तो उसके हितसाधन के लिए बच्चे के कष्ट के समय होने वाले अपने दुःख को, वह किस प्रकार छाती कड़ी करके सहन करती ?
माता के दुलार के तरीके दो प्रकार के होते हैं । एक वे जिनसे बालक प्रसन्न होता है। जब उसे मिठाई, खिलौने, बढ़िया कपड़े आदि दिए जाते हैं और सैर कराने या तमाशे दिखाने ले जाया जाता है, तो बालक प्रसन्न होता है और सोचता है कि मेरी माता कितनी अच्छी है । परंतु जब माता काजल लगाने के लिए हाथ पकड़कर जबरदस्ती करती है, जबरदस्ती नहलाती है, स्कूल जाने के लिए कमची फटकारकर विवश करती है तो बच्चा झल्लाता है और माता को कोसता है । बालबुद्धि नहीं जानती कि कभी मधुर, कभी कठोर व्यवहार उसके साथ क्यों किया जाता है । वह माता के वात्सल्य पर शंका करता है, जो वस्तुस्थिति को जानते हैं उन्हें पता है कि माता बच्चे के प्रति केवल उपकार का व्यवहार ही कर सकती है। मधुर और कठोर दोनों ही व्यवहारों में वात्सल्य भरा होता है। प्रभु की कृपा भी दो प्रकार की होती है-एक सुख और दूसरी दुःख। दोनों में ही हमारा हित और उसका स्नेह भरा होता है। अल्पज्ञता उस वस्तुस्थिति से हमें परिचित नहीं होने देती, पर भगवान की जब कृपा होती है, सद्बुद्धि का हृदय में प्रकाश हो जाता है, तो ‘कष्ट’ नाम की दुःख देने वाली कोई वस्तु शेष नहीं रहती। कठोर एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ एक भिन्न प्रकार का दैवी उपहार प्रतीत होती हैं और उनसे डरने या दुखी होने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता।
सुख से मनुष्य को कई लाभ हैं, चित्त प्रसन्न रहता है, इंद्रियाँ तृप्त होती हैं, मन में उत्साह रहता है, उन्नति करने में सुविधा रहती है, मित्र बढ़ जाते हैं, साहस बढ़ता है, मान-बड़ाई के अवसर मिलते हैं । इस प्रकार के और भी लाभ सुख में होते हैं, परंतु दुःख के लाभ भी कम लाभ नहीं हैं। दुःख से मनुष्य की सोई हुई प्रतिभा का विकास होता है, कष्ट से त्राण पाने के लिए मन के सब कलपुरजे बड़ी तत्परता से क्रियाशील होते हैं, शरीर भी आलस्य छोड़कर कर्मनिष्ठ हो जाता है । घोड़े को अच्छी चाल सिखाने वाले सईस उसके पुट्ठे पर हंटर फटकारते हैं जिससे घोड़ा उत्तेजित होकर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता है, इसी समय लगाम के इशारे से उसे बढ़िया चाल चलाने का अभ्यास कराया जाता है। दुःख, एक प्रकार का हंटर है जो हमारी शिथिल हुई शारीरिक और मानसिक शक्तियों को भड़काकर क्रियाशील बनाता है और साथ ही धर्माचरण की शिक्षा देकर सही चाल चलना सिखाता है।
फोड़ा चिर जाने से उसमें भरा हुआ मवाद निकल जाता है, दस्त हो जाने से पेट में संचित मल की शुद्धि हो जाती है, लंघन हो जाने से कोष्ठ गत दोषों का शमन हो जाता है। दुःख आ जाने से संचित पाप का भार उतर जाता है और अंतश्चेतना बड़ी शुद्ध, निर्मल एवं हलकी हो जाती है । सोने को अग्नि में डालने से उसके साथ चिपटे हुए दूषित पदार्थ छूट जाते हैं और कांतिमान तथा तपा हुआ शुद्ध स्वर्ण प्रत्यक्ष हो जाता है। मनुष्य की कितनी ही बुराइयाँ, बुरी आदतें, दूषित भावनाएँ और विचारधाराएँ तब तक नहीं छूटतीं जब तक वह किसी विपत्ति में नहीं पड़ता । कुदरत का एक बड़ा तमाचा खाकर उस बेहोश को होश आता है और तब वह उस बेढंगी चांल को सँभालता है। जो ज्ञान बड़े-बड़े उपदेशों, प्रवचनों और कथाओं के सुनने से नहीं होता, वह विपत्ति की एक दुलत्ती खा लेने पर बड़ी सरलता से हृदयंगम एक आघात, हजार ज्ञानी गुरुओं से अधिक शिक्षा दे जाता है ।
सुख में जहाँ अनेक अच्छाइयाँ हैं, वहाँ यह एक भारी बुराई भी है कि मनुष्य उन सुख-साधनों को सत्कर्म बढ़ाने में लगाने का सदुपयोग भूलकर, ऐश उड़ाने, अहंकार में डूब जाने, अधिक जोड़ने के कुचक्र में पड़ जाता है। उसके समय का अधिकांश भाग तुच्छ स्वार्थों में लगा रहता है। परमार्थ की ओर से वह प्राय: पीठ ही फेर लेता है । इस बुरी स्थिति से अपने पुत्र को बचाने के लिए ईश्वर उसकी धन- संपत्ति छीन लेते हैं, पढ़ने से जी चुराकर हर घड़ी खिलौने से उलझे रहने वाले बालक के खिलौने जाता है, इस प्रकार कई बार काल दंड का जैसे माता छीनकर छिपा देती है वैसे ही धन, संतान, स्त्री वैभव आदि के खेल-खिलौनों को छीनकर ईश्वर हमें यह प्रेरणा देता है कि इस झंझट की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य आपके लिए करने को पड़ा हुआ है। ‘खेल छोड़ो और स्कूल जाओ’ की शिक्षा के लिए कई बार हानि का, आपत्ति का दैवी आयोजन होता है ।
कितनी ही उच्च आत्माएँ तप रूपी कष्ट को अपना परम मित्र और विश्व-कल्याण का मूल समझकर उसे स्वेच्छापूर्वक छाती से लगाती हैं । इससे उनकी कीर्ति अजर-अमर हो जाती है और उस तप की अग्नि युग-युगांतरों तक जनता को प्रकाश देती रहती है । हरिश्चंद्र, प्रह्लाद, शिवि, मोरध्वज, दधीचि, प्रताप, शिवाजी, हकीकतराय, वंदावैरागी, भगीरथ, गौतम बुद्ध, ईसा मसीह आदि ने जो कष्ट सहे, वे उने स्वेच्छापूर्वक शिरोधार्य किए थे। यदि वे अपनी गतिविधि में थोड़ा सा परिवर्तन कर लेते तो उन आपत्तियों से सहज ही बच सकते थे । पर उनने देखा कि यह कष्ट या हानि उस महान लाभ की तुलना में तुच्छ है इसलिए उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपने कष्टसाध्य मार्ग पर दृढ़ रहना उचित समझा । दूसरे लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि उन्होंने बड़े कष्ट सहे, पर यदि उनकी मनोभूमि का कोई ठीक प्रकार परिचय प्राप्त कर सकेगा तो उसे प्रतीत होगा कि उनकी अंतरात्मा प्रसन्नतापूर्वक उस सबको सहन कर रही थी।
भगवान जिसे अपनी शरण में लेते हैं, जिसे बंधन-मुक्त करना चाहते हैं, उसके अनिवार्य कर्म भोगों को जल्दी – जल्दी भुगतवाकर उसे ऐसा ऋण मुक्त बना देते हैं कि भविष्य के लिए कोई बंधन शेष न रहे और भक्त को फिर जन्म-मरण के चक्र में न जाना पड़े । एक ओर तो विपत्ति द्वारा प्रारब्ध भोग समाप्त हो जाते हैं दूसरी ओर उसकी आंतरिक पवित्रता बहुत बढ़ती है। इन उभयपक्षीय लाभों से वह बड़ी गति से परम लक्ष्य की ओर प्रगति करता है। तपस्वी लोग ऐसे कष्टों को प्रयत्नपूर्वक अपने ऊपर आमंत्रित करते हैं ताकि उनकी लक्ष्य यात्रा शीघ्र पूरी हो जाए।
साधारणत: अनेक सद्गुणों के विकास के लिए भगवान समय-समय पर अनेक कटु अनुभव कराते हैं। बच्चे की मृत्यु होने पर उसके शोक में ‘वात्सल्य’ का हृदयगत परम सात्विक तत्त्व उमड़ता है जिसके कारण वह अन्य बालकों पर अधिक प्रेम करना सीखता है। देखा गया है कि जिसकी पहली पत्नी गुजर जाती है, वह अपनी दूसरी पत्नी से अधिक सद्व्यवहार करता है क्योंकि एक पत्नी खो देने के कारण जो भावोद्रेक मन में हुआ उसके कारण दांपत्य कर्त्तव्यों का उसे ज्ञान हुआ है। और अपने प्रथम दांपत्य की अपेक्षा दूसरे दांपत्य जीवन में अधिक सफल सिद्ध होता है, एक वियोग उसे उस खोई हुई वस्तु के महत्त्व को भली प्रकार हृदयंगम करा देता का सदुपयोग किस प्रकार किया जाना चाहिए ? रोगी हो जाने पर आदमी यह जान पाता है कि संयत आहार-विहार का क्या महत्त्व है ? गाली देने पर जिसका मुँह पिट जाता है उसी को यह अक्ल आती है कि गाली देना बुरी बात है। जिसको अत्याचार सहना पड़ा है वही जानता है कि दूसरों पर यदि जुल्म करूँ तो उन्हें कितना कष्ट होगा? जब हम आपत्तिग्रस्त होकर दूसरों की सहायता के लिए हाथ पसारते हैं और दीन नेत्रों से दूसरों की ओर ताकते हैं, तब यह पता चलता है कि दूसरे दुखियों की सहायता करना हमारे लिए भी कितना आवश्यक कर्त्तव्य है ?
धैर्य एक महत्त्वपूर्ण गुण है ?
संसार में रहते हुए विपरीत परिस्थितियाँ अथवा आपत्तियाँ आना स्वाभाविक है। विशेषकर यदि हम कोई महत्त्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो उसमें अनेक कठिनाइयों का मुकाबला करना अनिवार्य ही समझना चाहिए। अनेक व्यक्ति ऐसे ही भय के कारण कभी किसी भारी काम में हाथ नहीं डालते। संभव है वे इस जीवन में आपत्तियों से बच जाएँ, पर वे किसी प्रकार की प्रगति, उन्नति भी नहीं कर सकते और एक तत्त्वदर्शी की निगाह में उनका जीवन कीड़े-मकोड़ों से बढ़कर नहीं होता।
जिसने शरीर धारण किया है उसे सुख-दुःख दोनों का ही अनुभव करना होगा। शरीरधारियों को केवल सुख ही सुख या केवल दुःख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। जब यही बात है कि शरीर धारण करने पर सुख-दुःख दोनों का ही भोग करना है, तो फिर दुःख में अधिक उद्विग्न क्यों हुआ जाए? दु:ख-सुख तो शरीर के साथ लगे ही रहते हैं । हम धैर्य धारण करके उनकी प्रगति को ही क्यों न देखते रहें ! जिन्होंने इस रहस्य को समझकर धैर्य का आश्रय ग्रहण कर लिया है, संसार में वे ही सुखी समझे जाते हैं। दुःखों की भयंकरता को देखकर विचलित होना प्राणियों का स्वभाव है। किंतु जो ऐसे समय में भी विचलित नहीं होता वही ‘पुरुषसिंह’ धैर्यवान कहलाता है। आखिर हम अधीर होते क्यों हैं ? इसका कारण हमारे हृदय की कमजोरी के सिवा और कुछ भी नहीं है । इस बात को सब कोई जानते हैं कि आज तक संसार में ब्रह्मा से लेकर कृमि-कीट पर्यंत संपूर्ण रूप से सुखी कोई भी नहीं हुआ। सभी को कुछ न कुछ दुःख अवश्य हुए हैं। फिर भी मनुष्य दुःखों के आगमन से व्याकुल होता है, तो यह कमजोरी ही कही जा सकती है । महापुरुषों के सिर पर सींग नहीं होते, वे भी हमारी तरह दो हाथ और दो पैर वाले साढ़े तीन हाथ के मनुष्याकार जीव होते हैं । किंतु उनमें यही विशेषता होती है। कि दु:खों के आने पर वे हमारी तरह अधीर नहीं हो जाते । उन्हें प्रारब्ध कर्मों का भोग समझकर वे प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हैं। पांडव दुःखों से कातर होकर अपने भाइयों के दास बन गए होते, मोरध्वज पुत्र शोक से दुखी होकर मर गए होते, हरिश्चंद्र राज्यलोभ से अपने वचनों से फिर गए होते, श्री रामचंद्र वन के दुःखों की भयंकरता से घबराकर अयोध्यापुरी में रह गए होते, शिवि राजा ने यदि शरीर के कटने के दुःखों से कातर होकर कबूतर को बाज के लिए दे दिया होता, तो इनका नाम अब तक कौन जानता? वे भी असंख्य नरपतियों की भाँति काल के गाल में चले गए होते, किंतु इनका नाम अभी तक ज्यों का त्यों ही जीवित है, इसका एकमात्र कारण उनका धैर्य ही है।
अपने प्रियजन के वियोग से हम अधीर हो जाते हैं । क्योंकि वह हमें छोड़कर चल दिया। इस विषय में अधीर होने से क्या काम चलेगा ? क्या वह हमारी अधीरता को देखकर लौट आवेगा? यदि नहीं, तो हमारा अधीर होना व्यर्थ है। फिर हमारे अधीर होने का कोई समुचित कारण भी तो नहीं। क्योंकि जिसने जन्म धारण किया है, उसे मरना तो एक दिन है ही। जो जन्मा है वह मरेगा भी। संपूर्ण सृष्टि के पितामह ब्रह्मा हैं, चराचर सृष्टि उन्हीं से उत्पन्न हुई है । अपनी आयु समाप्त होने पर वे भी नहीं रहते। क्योंकि वे भी भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हुए अत: महाप्रलय में वे भी विष्णु के शरीर में अंतनिर्हित हो जाते हैं । यह अटल सिद्धांत है कि जायमान वस्तु का नाश होगा ही, तो फिर तुम उस अपने प्रिय का शोक क्यों करते हो? उसे तो मरना ही था, आज नहीं तो हैं। कल और कल नहीं तो परसों । सदा कोई जीवित रहा भी है, जो वह रहता? जहाँ से आया था चला गया? एक दिन तुम्हें भी जाना है। जो दिन शेष हैं, उन्हें धैर्य के साथ उस गुणागार के गुणों के चिंतन में बिताओ। शरीर व्याधियों का घर है। जाति, आयु, भोग को साथ लेकर ही तो यह शरीर उत्पन्न हुआ है। पूर्व जन्म के जो भोग हैं , वे तो भोगने ही पड़ेंगे।
दान-पुण्य, जप-तप और औषधि उपचार करो अवश्य, किंतु उनसे आराम न होने पर अधीर मत हो जाओ| क्योंकि भोग की समाप्ति में ही, दान, पुण्य और औषधि कारण बन जाते हैं। बिना कारण के कार्य नहीं होता, तुम्हें क्या पता कि तुम्हारी व्याधि के नाश में क्या कारण बनेगा? इसलिए आर्य पुरुषों ने शास्त्र में जो उपाय बताए हैं उन्हें ही करो । साथ ही धैर्य भी धारण किए रहो । धैर्य से तुम व्याधियों के चक्कर से सुखपूर्वक छूट सकोगे।
जीवन की आवश्यक वस्तुएँ जब नहीं प्राप्त होती हैं तो हम अधीर हो जाते हैं। हाँ! घर में कल को खाने के लिए मुट्ठी भर अन्न नहीं है, स्त्री की साड़ी बिलकुल चिथड़ा बन गई है, बच्चा भयंकर बीमारी में पड़ा हुआ है । उसकी दवा-दारू का कुछ भी प्रबंध नहीं। क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? इन्हीं विचारों में विकल हुए हम रात-रात भर रोया करते हैं और हमारी आँखें सूज जाती हैं। ऐसा करने से न तो अन्न ही आ जाता है और न स्त्री की साड़ी ही नई हो जाती है। बच्चे की भी दशा नहीं बदलती । सोचना चाहिए हमारे ही ऊपर ऐसी विपत्तियाँ हैं, सो नहीं। विपत्तियों का शिकार किसे नहीं बनना पड़ा? त्रिलोकेश इंद्र, ब्रह्महत्या के भय से वर्षों घोर अंधकार में पड़े रहे। चक्रवर्ती महाराज हरिश्चंद्र डोम के घर जाकर नौकरी करते रहे । उनकी स्त्री अपने बच्चे को जलाने के लिए कफन तक नहीं प्राप्त कर सकी। जगत मृत के आदि कारण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्रजी को चौदह वर्षों तक घोर जंगलों में रहना पड़ा। वे अपने पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ को पाव भर आटे के पिंड भी न दे सके। जंगल के इंगुदी फलों के पिंडों से ही उन्होंने चक्रवर्ती राजा की तृप्ति की।
शरीरधारी कोई भी ऐसा नहीं है जिसने विपत्तियों के कड़वे फलोंका स्वाद न चखा हो। सभी उन अवश्य प्राप्त होने वाले कर्मों के स्वाद से परिचित हैं। फिर हम अधीर क्यों हों? हमारे अधीर होने से हमारे आश्रित भी दुखी होंगे, इसलिए हम धैर्य धारण करके क्यों नहीं उन्हें समझावें ? जो होना है, होगा। बस, विवेकी और अविवेकी में यही अंतर है । जरा , मृत्यु और व्याधियाँ दोनों को ही होती है किंतु विवेकी उन्हें अवश्यंभावी समझकर धैर्य के साथ सहन करता है और अज्ञानी विकल होकर विपत्तियों को और बढ़ा लेता है-महात्मा कबीर ने इस विषय पर क्या ही
उपयुक्त बात कही है।
ज्ञानी काटे ज्ञान से, अज्ञानी काटे रोय।
मौत, बुढ़ापा आपदा, सब काहू को होय।।
जो धैर्य का आश्रय नहीं लेते, वे दीन हो जाते हैं, परमुखापेक्षी बन जाते हैं। इससे वे और भी दुखी होते हैं । संसार में परममुखापेक्षी बनना, दूसरे के सामने जाकर गिड़गिड़ाना, दूसरे से किसी प्रकार की आशा करना, इससे बढ़कर दूसरा कष्ट और कोई नहीं है। इसलिए विपत्ति आने पर धैर्य धारण किए रहिए और विपत्ति के कारणों को दूर करने एवं सुविधा प्राप्त करने के प्रयत्न में लग जाइए। जितनी शक्ति अधीर होकर दुखी होने में खरच होती है उससे आधी शक्ति भी प्रयत्न में लगा दी जाए अधिकांश कठिनाइयों के निवारण का हल निकल सकता है ।
लेखक : पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य