इंद्रिय संयम का महत्त्व
गायत्री का ग्यारहवोँ अक्षर ‘दे’ हमको इंद्रियों पर नियंत्रण रखने की शिक्षा देता है-
देयानि स्ववशे पुंसा स्वेन्द्रियाण्यखिलानि वै।
असंयतानि खादन्तीन्द्रियाण्येतानि स्वामिनम् ॥
अर्थात- “अपनी इंद्रियों को वश में रखना चाहिए। असंयत इंद्रियाँ स्वामी का नाश कर देती हैं।”
इंद्रियाँ आत्मा के औजार हैं, सेवक हैं, परमात्मा ने इन्हें इसलिए प्रदान किया है कि इनकी सहायता से आत्मा की आवश्यकताएँ पूरी हों और सुख मिले। सभी इंद्रियाँ बड़ी उपयोगी हैं। सभी का कार्य जीव को उत्कर्ष और आनंद प्राप्त कराना है। यदि उनका सदुपयोग किया जाए तो मनुष्य निरंतर जीवन का मधुर रस चखता हुआ जन्म को सफल बना सकता है।
किसी भी इंद्रिय का उपयोग पाप नहीं है । सच तो यह है कि अंत:करण की विविध क्षुधाओं को, तृषाओं को तृप्त करने का इंद्रियाँ एक उत्तम माध्यम हैं, जैसे-पेट की भूख-प्यास को न बुझाने से शरीर का स्वास्थ्य और संतुलन बिगड़ जाता है, वैसे ही सूक्ष्मशरीर की ज्ञानंद्रियों की क्षुधा उचित रीति से तृप्त नहीं की जाती तो आंतरिक क्षेत्र का संतुलन बिगड़ जाता है और अनेक प्रकार की मानसिक गड़बड़ी पैदा होने लगती है।
इंद्रिय भोगों की बहुधा निंदा की जाती है। उसका वास्तविक तात्पर्य यह है कि अनियंत्रित इंद्रियाँ स्वाभाविक एवं आवश्यक मर्यादा का उल्लंघन करके इतनी स्वेच्छाचारी एवं चटोरी हो जाती हैं कि वे स्वास्थ्य और धर्म के लिए संकट उत्पन्न कर देती हैं। आजकल अधिकांश मनुष्य इसी प्रकार इंद्रियों के गुलाम हैं। वे अपनी वासनाओं पर काबू नहीं रखते। बेकाबू हुई वासना अपने स्वामी को खा जाती है।
इसलिए यह परम आवश्यक है कि इंद्रियाँ हमारे काबू में रहें, वे अपनी मनमानी करके चाहे जब, चाहे जिधर न घसीट सकें, बल्कि जब हम स्वयं आवश्यकता अनुभव करें, जब हमारा विवेक निर्णय करे, तब उचित आंतरिक भूख को बुझाने के लिए उनका उपयोग करें । यही इंद्रियनिग्रह है । निग्रहीत इंद्रियों से बढ़कर मनुष्य का सच्चा
मित्र तथा अनियंत्रित इंद्रियों से बढ़कर शत्रु और कोई नहीं है ।
आत्मनियंत्रण से मनुष्य अपने दैवी गुणों को प्रकाशित करके दैवी ज्ञान तथा शांति का भागी होता है । उसका अभ्यास प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। निर्बल मनुष्य भी इसी समय से इसका अभ्यास आरंभ कर सकता है | जब तक वह इस कार्य में प्रवृत्त नहीं होता, वह निर्बल बना रहेगा अथवा संभावना है कि उसकी निर्बलता बढ़ती जाए। जो आत्मा को अपने वश में नहीं करते, अपने हृदय को शुद्ध नहीं बनाते, ईश्वर के प्रति उनकी सब प्रार्थनाएँ व्यर्थ हैं। जो कलहमूलक, अज्ञानता तथा कुप्रवृत्तियों में लिपटे रहेंगे, उनका ईश्वर की सर्वज्ञता में विश्वास करना न करना बराबर है।
जो मनुष्य पर-दोषरत जिह्वा को ठीक नहीं करना चाहता, क्रुद्ध स्वभाव का दास बना रहना चाहता है और अपवित्र विचारों का उत्सर्ग नहीं कर सकता, उसे न तो कोई बाह्य शक्ति सन्मार्ग पर ला सकती हैऔर न उसके किसी धार्मिक बात के समर्थन तथा विरोध से ही उसकी भलाई हो सकती है। मनुष्य अपने अंतनिर्हित अंधकार पर विजय पाकर ही सत्य के प्रकाश का दर्शन पा सकता है।
खेद है कि मनुष्य आत्मसंयम के परम गौरव का अनुभव नहीं करता। वह इसकी निस्सीम आवश्यकता को नहीं समझता और फलत: आध्यात्मिक स्वतंत्रता तथा वैभव जिनकी तरफ यह मनुष्य को प्रेरित करता है, मनुष्य की दृष्टि- पथ से छिपे रहते हैं । इसी कारण मनुष्य कुवासनाओं का दास बना रहता है। पृथ्वी- मंडल पर फैले हुए बलात्कार, अपवित्रता, रोग तथा दुःखों पर दृष्टि दौड़ाइए और देखिए कि कहाँ तक आत्मसंयम की कमी इन सबका कारण है। तब आप इसका पूर्ण अनुभव करेंगे कि आत्मनियंत्रण की कितनी अधिक आवश्यकता है ? आत्मसंयम पुण्य की प्रथम सीढ़ी है । इससे सद्गुणों की प्राप्ति होती है । सुव्यवस्थित तथा सच्चे धार्मिक जीवन की यह सर्वप्रथम आवश्यकता है।
प्रलोभनों से सदैव सावधान रहिए
इंद्रियों के कुमार्गगामी होने का सबसे प्रधान कारण भाँति -भाँति के प्रलोभन होते हैं। प्रलोभन एक ऐसा आकर्षक मोहचक्र है, जिसका कोई स्वरूप, आकार, स्थिति, अवस्था नियत नहीं है, किंतु फिर भी वह नाना रूपों में मानव मात्र को ठगने, पदच्युत कर पथभ्रष्ट कर देने के लिए आता है। जीवन में आने वाले बहुत से मायावी प्रलोभन इतने मनमोहक, लुभावने और मादक होते हैं कि क्षण भर के लिए विवेकशून्य हो अदूरदर्शी बन हम विक्षिप्त से हो उठते हैं, हमारी चिंतनशील सत्प्रवृत्तियाँ पंगु हो उठती हैं तथा हम विषय वासना, आर्थिक लोभ, स्वार्थ, संकुचिततावश प्रलोभन के शिकार बन जाते हैं । अंततः उनसे उत्पन्न होने वाली हानियों, कष्टों, त्रुटियों, अपमान तथा प्रतिष्ठा से दग्ध होते रहते हैं। प्रलोभन जीवन की मृगतृष्णा है तो बुद्धि का भ्रम मोह का मधुर रूप।
लालच के रूप अनेक हैं-कभी-कभी आप सोचते हैं, मैं धनवान बनूँ, ऊँचा रहूँ, मेरे ऊपर लक्ष्मी की कृपा रहे । इस उद्देश्य सिद्धि के हेतु आप रिश्वत, काला बाजार, झूठ, फरेब, कपट हिंसा आदि करके रूपये हड़पते हैं। ठेकेदार, ओवरसियर, इंजीनियर तक रिश्वत में हिस्सा लेते हैं। रेलवे, पुलिस, चुंगी इत्यादि विभागों में भ्रष्टाचार इसी स्वार्थ और संकुचितता के कारण फैले हुए हैं । डॉक्टर और वकील रोगी और मुवक्किलों से अधिकाधिक ऐंठना चाहते हैं । बाजार में खराब माल देकर अथवा निम्न कोटि की वस्तुओं का सम्मिश्रण कर व्यापारी खूब लाभ कमाना चाहते हैं। सिक्के ने जैसे मानवीयता का शोषण कर लिया हो, ऐसा जान पड़ रहा है, प्रलोभन के अनेक रूप हैं –
“अमुक व्यक्ति की पत्नी मेरी पत्नी की अपेक्षा अधिक सुंदर है, मुझे भी सुंदर पत्नी प्राप्त होनी चाहिए । मैं तो अमुक अभिनेत्री जैसी स्त्री से विवाह करूँगा।”
“अमुक व्यक्ति का मकान सुंदर है। अमुक के पास आलीशान कोठी, मोटर, नौकर-चाकर, सुंदर वस्त्र, फर्नीचर इत्यादि हैं । मैं भी किसी प्रकार उचित-अनुचित कैसे ही उपायों से वस्तुएँ , सुविधाएँ प्राप्त करू। अमुक मुझसे ऊँचे पद पर आसीन हो गया, मैं भी छल-बल- कौशल से रुपया दे -दिलाकर यही पद प्राप्त करूँ ।”
अमुक व्यक्ति बड़ा सुस्वाद भोजन खाता है–मिठाई, पूरी, पकवान, मेवे, दूध, रबड़ी आदि बढ़िया से बढ़िया वस्तुएँ नित्य चखता है । मैं भी किसी अच्छे-बुरे उपाय से ये चीजें प्राप्त करूँ । ऐसा सोचते – सोचते जैसे ही कोई तनिक सा प्रलोभन आपको देता है कि आप बिना सोचे-समझे उसके समक्ष घुटने टेक देते हैं। रुपया, कमीशन, डाली, फल, मुफ्त सेवा, नाना उपहार ले लेना सब प्रलोभन के ही स्वरूप हैं इनका कोई आदि – अंत नहीं। समुद्रों की तरंगों की भाँति वे आते ही रहते हैं ।
नैतिक दृष्टि से कमजोर चरित्र वाले व्यक्ति आसानी से प्रलोभन के शिकार बनते हैं। जिनकी आवश्यकताएँ, विलासी इच्छाएँ, चटोरपन, अनुचित माँगें, नशे बढ़े हुए हैं । वे प्राय: प्रलोभनों के सामने झुकते हुए देखे गए हैं। जिन्हें दान, दहेज, यात्राएँ, भौतिकता, टीपटाप का शौक है, वे लालच में फँसते हैं। कभी-कभी सहज सात्विक बुद्धि वाले भी दूषित वातावरण के प्रभाव से प्रलोभनों के चक्कर में आ जाते हैं।
विषयों में रमणीयता का भास बुद्धि के विपर्यय से होता है बुद्धि के विपर्यय में अज्ञान-संभूत अविद्या प्रधान कारण है इस क्षणिक भावावेश, अदूरदर्शिता के ही कारण हमें प्रलोभन में रमणीयता का मिथ्या बोध होता है। प्रलोभन से तृप्ति एक प्रकार की मृगतृष्णाःमात्र है।
प्रलोभन में मुख्यत: दो तत्व कार्य करते हैं-उत्सुकता एवं दूरी। ईसाइयों के मतानुसार आदिपुरुष एडम (आदम) का स्वर्ग से पतन ‘ज्ञानवृक्ष’ के फल को चखने की उत्सुकता के ही कारण हुआ था । उन्हें आदेश मिला था कि वे अन्य सब वृक्षों के फलों को चख सकते हैं, केवल उसी वृक्ष से बचते रहें । जिस बात के लिए हमें रोका जाता है,अप्रत्यक्ष रूप से उसके प्रति हम अधिकाधिक आकृष्ट होते हैं । अत: आदम को वर्जित फल के प्रति उत्सुकता उत्पन्न हो गई। औत्सुक्य से प्रभावित होने के कारण उस फल में रमणीयता का भास हुआ। उन्होंने चुपचाप प्रलोणत के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया। पर ईश्वर ने उन्हें इसकी बड़ी सजा दी थी।
इंद्रियों को तृप्त करने के नाना साधन या पदार्थ हमसे दूर रहते हैं, जिन्हें हम दैनिक जीवन में नहीं पाते, जिनका स्वाद हमने नहीं उठाया है, वे ही दूरी के कारण हमें आकर्षक प्रतीत होते हैं। वास्तव में रमणीयता किसी बाह्य जगत की वस्तु में नहीं है । वह हमारी कल्पना तथा उत्सुकता की भावनाओं की प्रतिच्छाया मात्र है, वस्तु को आकर्षक बनाने वाला हमारा मन है जो क्षण-क्षण नाना वस्तुओं पर मचल-मचल जाता है, नई वस्तुओं की ओर हमें बरबस खींच ले जाता है। कभी वह जिह्वा को उत्तेजित कर हमें सुस्वादु वस्तुओं की ओर आकृष्ट करता है। कहीं कानों को मधुर संगीत सुनने के लिए खींचता है। कहीं हमारी वासना को उद्दीप्त कर मादक वृत्तियों को उत्तेजित कर देता है। मन की कोई भी गुप्त अतृप्त इच्छा प्रलोभन का रूप धारण कर लेती है। विवेक का नियंत्रण ढीला पड़ते ही मन हमें स्थान- स्थान पर बहकाता फिरता है अथवा विवेक पर आवरण (परदा तमोवृत्ति, इंद्रिय दोष, बीमारी, प्रमाद ) पड़ा रहने से बुद्धि तिरोहित हो जाती है । फलत: हम पतन की ओर जाते हैं, हमारा वातावरण गंदा हो जाता है, हम दूसरों को धोखा देते हैं, विवेक पर परदा रहने से ही दुष्ट पुरुष विद्या को विवाद में, धन को अहंकार और विलास में, बल को परपीड़ा में लगाते हैं, निर्बलों को सताते हैं। अत: मन पर सतर्कता से अंतर्दृष्टि रखनी चाहिए।
जैसे युद्ध करते समय जागरूक संतरी को यह ध्यान रखना पड़ता है कि न जाने शत्रु का कब आक्रमण हो जाए, कब-किस रूप में शत्रु प्रकट हो जाए, उसी प्रकार मनरूपी चंचल शत्रु पर तीव्र दृष्टि और विवेक को जागरूक रखने की अति आवश्यकता है। जहाँ मन आपको किसी इंद्रिय संबंधी प्रलोभन की ओर खींचे, वहीं उसके विपरीत कार्य कर उसकी दुष्टता को रोक देना चाहिए।
मन बड़ा बलवान शत्रु है। वासना और कुविचारों का जादू इस पर बड़ी शीघ्रता से होता है। बड़े-बड़े संयमी व्यक्ति वासना के चक्कर में आकर मन को न रोक सकने के कारण पथभ्रष्ट हो जाते हैं। मन को शुद्ध करना अत्यंत दुष्कर कृत्य है। इससे युद्ध करने में एक विचित्रता है । यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहे, निज इच्छाशक्ति को मन के व्यापारों में लगाए रहे तो युद्ध में संलग्न सैनिक की शक्ति अधिकारधिक बढ़ती है और एक दिन वह इस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है । यदि तनिक भी इसकी चंचलता में बहक गए तो यह मनुष्य के चरित्र, आदर्श, संयम, नैतिक दृढ़ता, धर्म को तोड़-फोड़कर सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है ।
मन को दृढ़ निश्चय पर स्थिर रखने और उसी पर एकाग्र ध्यान रखने से मुमुक्षु की इच्छाशक्ति प्रबल बनती है। मन का स्वभाव मनुष्य की इच्छा के अनुकूल बन जाने का है। इसे जिन विषयों की ओर एकाग्र कीजिए, वही कार्य करने लगेगा । वह व्यर्थ, निश्चेष्ट, निष्क्रिय नहीं बैठना चाहता। अच्छाई या बुराई-वह किसी न किसी ओर निश्चय आकृष्ट होगा। यदि आप शुभ रचनात्मक समुन्नत कार्यों में उसे न लगाएँगे तो वह बुराई की ओर चलेगा । यदि आप उसे पुष्प-पुष्प विचरण करने वाली मधुलोभी तितली बना देंगे-जो रूप, रस और गंध पर मड़राए तो वह आपको अवश्य किसी भयंकर स्थिति में डाल देगा । यदि आप उसे उद्दंड रखेंगे तो वह दिन-रात असंख्य स्थानों पर भ्रांतिमति रहेगा । यदि आप शुभ इष्ट पदार्थों के सुविचारों में उसे स्थिर रखेंगे तो वह आपका सबसे बड़ा मित्र बन जाएगा।
जब-जब अपने अंत:करण में विषय वासना का प्रबल संघर्ष उत्पन्न होता हो, तब-तब नीर-क्षीर विवेकी निश्चयात्मिका बुद्धि को जाग्रत कीजिए। मन से थोड़ी देर पृथक रहकर इसके कार्य व्यापारों पर तीव्र दृष्टि रखिए, वह कुविचार, कुत्सित चिंतन, वासना का तांडव कुकल्पना चक्र टूट जाएगा और आप मन के साथ चलायमान न होंगे मन के व्यापार के साथ निज आत्मा की समस्वरता न होने दें । इसी अभ्यास द्वारा वह आज्ञा देने वाला न रहकर सीधा- सादा आज्ञाकारी, अनुचर बन जाएगा-
मन लोभी, मन लालची, मन चंचल, मन चोर।
मन के मत चलिए नहीं, पलक पलक मन और ॥
प्रमाद में फँसी इंद्रियों के सुख में स्थिरता नहीं है। इंद्रियाँ सुख-दुःख रूप हैं। यह अस्थिर और क्षणिक हैं । इनका आनंद आवरण मात्र इंद्रिय-सुख के लिए मनुष्य को अनेक कुचक्रों, कुटिल नीतियों का अवलंबन लेना पड़ता है। एक सुख की लालसा में मनुष्य अधिकाधिक उलझता ही जाता है। एक इंद्रिय को तृप्त करते – करते मनुष्य दूसरी, तीसरी, अधिकाधिक सांसारिकता में लिप्त होता ही जाता है । अंततः पापयोनि को प्राप्त होता है । जब तक मन और इंद्रियों पर पूरा नियंत्रण नहीं होता, तब तक सुख की आशा करना व्यर्थ है । मन पर निरंतर कड़ी दृष्टि रखिए। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में हमें मन पर तीखी निगाह रखने की ओर निर्देश किया है –
असंयतात्मना योगोदुष्प्राप्य इति में मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुमायतः ।॥ (६/३६)
‘मन को संयमित न करने वाले पुरुष के द्वारा योग दुष्प्राप्य है। स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष के द्वारा ही योग प्राप्त होता है । इष्टसिद्धि प्राप्त होती है ।’
अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करने में बहुत सहायता मिलती । गीता में मन को भगवान में एकाग्र करने का अमूल्य उपदेश है।
यतो-यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
तताततो नियम्यैदतदत्ममन्येव वशं नयेत् ॥ (६/२६)
यह स्थिर और चंचल मन जिस-जिस कारण से संसार में जाए, उससे हटाकर इसे आत्मा में लगाएँ ।
सुखरूप भासने वाले विषय वासना के प्रलोभन में कदापि न फँसिए, मन के विपरीत चलिए। परमात्मा का जो रूप आपको विशेष आकर्षक प्रतीत होता हो, उसी में मन बुद्धि को एकाग्र करने का सतत अभ्यास करते रहिए। वैराग्य और शुभ चिंतन के अभ्यास से ही प्रलोभन से मुक्ति मिल सकती है।
वासनाओं को जीतने के लिए आध्यात्मिक चिंतन
जिन लोगों के मन पर वासनाओं ने अधिकार जमा लिया है और जो इसके फलस्वरूप इंद्रियों के दास बन चुके हैं, उनका छुटकारा सहज में नहीं होता। वे विषयों की बुराइयाँ जानकर भी निर्बलता अथवा मोहवश उनके फंदे से नहीं निकल पाते। ऐसे लोगों को निरंतर सत्संगति और आध्यात्मिक चिंतन की आवश्यकता पड़ती है । इन वासनाओं में प्राय:कामवासना ही सर्वप्रधान होती है और सबसे पहले उसी के निग्रह की चेष्टा की जानी चाहिए।
स्त्री की प्रतिमूर्ति अथवा स्मरण मन को क्षुब्ध करता है। कामवासना शक्तिशाली होती है। यह एक कुसुम धनुष साथ लेकर चलती है, जिसमें मोहन, स्तंभने, उन्मादन, शोषण और पतनरूपी पाँच वाण सजे होते हैं । विवेक, विचार, भक्ति और ध्यान इस घोर राग का मूलोच्छेद करते हैं यदि काम पर विजय प्राप्त हुई तो क्रोध, लोभ आदि जो उसके शस्त्र हैं, आप ही कुंठित हो जाएँगे। राग का प्रथम अस्त्र रमणी है । यदि इसे मन से नष्ट किया गया तो इसके अनुवर्ती और परिजन बड़ी आसानी से जीते जाएँगे। यदि सेनापति मारा गया तो सैनिकों को मार डालना आसान हो जाएगा। वासना पर विजय प्राप्त करो। फिर क्रोध को जीत लेना आसान हो जाएगा, केवल क्रोध ही वासना का अनुवर्ती है ।
सैनिक जैसे ही दुर्ग से बाहर निकलें, उन्हें एक- एक करके मार डालो। अंत में तुम्हारा दुर्ग पर आधिपत्य हो जाएगा । इसी प्रकार प्रत्येक संकल्प को जो मन में उठे एक-एक करके नष्ट कर दो। अंत तुम्हारा मन पर अधिकार हो जाएगा।
विचार, शांति, ध्यान और क्षमा के द्वारा क्रोध पर विजय प्राप्त करो । जो मनुष्य तुम्हारी हानि करता हो, उसके ऊपर दया करो और उसे क्षमा कर दो। उलाहने को प्रसाद समझो, उसे आभूषण जानो तथा अमृततुल्य मानो। भत्सर्नाको सह लो। सेवा, दया और ब्रह्मभावना के द्वारा विश्वप्रेम का विकास करो। जब क्रोध पर विजय प्राप्त हो जाएगी तो धृष्टता, अहंकार और द्वेष स्वयं ही नष्ट हो जाएँगे। प्रार्थना और भजन से भी क्रोध दूर हो जाता है।
संतोष, अभेद, विराग तथा दान के द्वारा लोभ का शमन करो । अभिलाषाओं को मत बढ़ाओ। तुम्हें कभी निराश न होना पड़ेगा । संतोष के राज्य के चार संतरियों की सहायता से तुम ब्रह्मज्ञान, जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हो।
अनुराग के पीछे-पीछे शोक और दुःख भी लगे रहते हैं । अनुराग शोक से मिश्रित होता है । सुख के पीछे दुःख चलता है, जहाँ सुख है, वहाँ दुःख भी है। अनुराग के नाम पर मनुष्य दु:ख का विषमय बीज वपन करता है, जिससे शीघ्र ही स्नेह के अंकुर निकल आते हैं, जिसमें बिजली के समान भयानक दाहकता होती है और इन अंकुरों से अनेक शाखाओं से युक्त दु:ख का वृक्ष उत्पन्न होता है, जो ढके हुए घास के ढेर के समान जलते हुए, धीरे-धीरे शरीर को दग्ध कर डालता है। बराबर इस संसार की असारता पर विचार करो। राग से मोह उत्पन्न होता है । यह सभी जानते हैं कि जब किसी मनुष्य की पालतू चिड़िया को बिल्ली खा जाती है तो उसे दुःख होता है, परंतु यदि बिल्ली किसी दूसरी गौरेया या चूहे को खाती है, जिससे उसका कुछ संबंध नहीं होता, तो वह कुछ भी दु:ख प्रकट नहीं करता। अत: तुमको उस अनुराग का मूलोच्छेद करना चाहिए जो व्यर्थ की आसक्ति का कारण होता है। शरीर असंख्य कीटाणुओं को उत्पन्न करता है, जिन्हें दूर करने के लिए लोग आतुर होते है, परंतु एक को वह बच्चे के नाम से पुकारते हैं जिसके लिए उनका जीवन क्षीण होता है । सांसारिक मोह इसी प्रकार का होता है। अनुराग की गाँठ उस महा मोह से दृढ़ होती है जो मनुष्य के ‘हृदय को चारों ओर से सूत्र के समान ग्रंथित किए हुए है। अनुराग से छुटकारा पाने का प्रधान उपाय है-यह चिंतन करना कि यह संसार एक असार वस्तु है। इस महान जगत से असंख्य पिता, माता, पति, स्त्री, बच्चे तथा पितामह चले गए हैं। तुम्हें अपनी मित्र मंडली को विद्युत की क्षणिक छटा के समान समझना चाहिए और इसका अपने मन में करते हुए शांति करनी चाहिए।
मन को शून्य कर दो। शोक के महान आघातों से बचने का एकमात्र यही उपाय है। संकल्प को दबा देना कठिन है। और जब एक बार दबा दिया जाता है तो संकल्पों की एक नवीन श्रृंखला उत्पन्न होती है जो मन को आक्रांत कर देती है। किसी स्थिर वस्तु के ऊपर चित्त जमाओ तुम मन को रोकने में सफल होगे। आत्मा में संकल्पों को एकत्र करो, जिस प्रकार ग्रीष्म में मनुष्य पोखर के शीतल जल में जाकर अपने शरीर को ठंढा करता है। हरि का सतत ध्यान करो, जो श्याम रंग के हैं तथा जो गले में बहुमूल्य हार धारण करते हैं एवं भुजाओं, कानों और सिर को आभूषणों से अलंकृत किए हुए हैं।
जब विषय तुम्हें व्यथित कर, सम्मोहित करे तब विचार, विवेक और सात्विक बुद्धि का सदा प्रयोग करो । इंद्रियों को भ्रांत करने वाला अहंकार जो मन को आच्छादित करता है, जब विवेक द्वारा नष्ट हो जाता तो मृगमरीचिका के जल के समान वह अन्य भ्रांतिजनक पदार्थों में आ जाता है। बार-बार विवेक का आश्रय लो जब तक ज्ञान में तुम्हारी स्थिति न हो जाए। वस्तुत: विवेक की शक्ति महान है।
जब तुम्हारे संकल्प जो बिखरे हुए हैं, एकत्रित किए जाएँगे और तुम शांत अवस्था में आओगे तो शाश्वत आत्मा चमक उठेगी, जैसे-सूर्य स्वछ जल के ऊपर चमकता दीख पड़ता है। शांति धन, दारा या भोग में नहीं रहती। जब मन संकल्पहीन हो जाता है तो आत्मा चमक उठती है और शाश्वत आनंद तथा शांति की वर्षा करती है । फिर तुम बाहरी विषयों में व्यर्थ ही सुख के लिए क्यों भटकते हो? अंदर खोजो अपने आनंद के लिए अपने भीतर सत्चित, आनंद का अमृत आत्मा में ढूँढ़ो।
लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य