आवेशों से बचना आवश्यक है
इंद्रियनिग्रह का मूल मंत्र अपने को आवेशों से बचाए रहना है । जिस व्यक्ति के भीतर तरह-तरह के मनोवेगों का तूफान उठता रहता है, उसका मानसिक संतुलन स्थिर नहीं रह सकता और इससे वह इंद्रियों को वशीभूत रखने में भी असमर्थ हो जाता है । इसीलिए जो लोग इंद्रियों को संयत रखना चाहें उनको अपने मनोवेगों पर भी सदैव दृष्टि रखना आवश्यक है।
भूतकाल की बीती हुई दु:खदाई घटनाओं को स्मरण करके कितने ही मनुष्य अपने आप को बेचैन बनाए रहते हैं । किसी प्रियजन की मृत्यु, पैसे की हानि, अपमान, विछोह आदि की कटु स्मृतियों को वे भुला नहीं पाते और सदा कुढ़ते एवं जलते रहते हैं । इसी प्रकार कितने ही मनुष्य भविष्य की कठिनाइयों को हल करने की चिंता में जला करते हैं । लड़की के विवाह के लिए इतना रुपया कहाँ से आवेगा? बुढ़ापे में क्या खाएँगे? लड़के कुपात्र निकले तो प्रतिष्ठा कैसे कायम रहेगी? गरीबी आ गई तो कैसे बीतेगी? इतना धन इकट्ठा न हो पाया तो अमुक कार्य कैसे पूरा होगा? अमुक ने सहारा न दिया तो कैसी दुर्दशा होगी? अमुक आपत्ति आ गई तो भविष्य अंधकारमय हो जाएगा आदि अनेकों प्रकार के भावी संकटों की चिंता में रक्त-मांस को सुखाते रहते हैं । भूत का शोक और भविष्य का भय इतना त्रासदायक होता है कि मस्तिष्क का अधिकांश भाग उसी में उलझा रहता है। वर्तमान समय की गुत्थियों को सुलझाने और सामने पड़े हुए कार्य को पूरा करने के लिए शक्तियों का बहुत थोड़ा भाग बचता है। उस बचे-खुचे आंशिक मनोबल से जो थोड़ा सा काम हो पाता है, उतने मात्र से व्यवस्थाक्रम यथावत नहीं चल सकता है। फ़लस्वरूप गति अवरोध उत्पन्न होकर जीवन की बधिया बैठ जाती है। इस उलझन भरी दशा में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कितने ही मनुष्य आत्महत्या कर लेते हैं, पागल हो जाते है, घरबार छोड़कर भाग जाते हैं या दुःखदाई कार्य कर बैठते हैं, कितने ही घोर निराशावादी या सनकी हो जाते हैं, कितने ही इस अशांति के भार से कुछ देर के लिए छूट जाने का सत्यानाशी प्रयत्न करते हैं। आवेशों से मानसिक तंतुओं को सदा उत्तेजित रखना, अपने आप को जलती मशाल से झुलसाते रहने के समान है । आवेश जीवन की अस्वाभाविक दशा है, उनसे शक्तियों के भयंकर रूप का नाश होता है । डॉक्टरों ने पता लगाया है कि यदि मनुष्य साढ़े चार घंटे लगातार क्रोध से भरा रहे तो लगभग आठ औँस खून जल जाएगा और इतना विष उत्पन्न हो जाएगा जितना कि एक तोला कुचला से उत्पन्न होता है । चिंता की अधिकता से हड्डियों के भीतर रहने वाली मज्जा सूख जाती है, फलस्वरूप निमोनिया, इन्फ्लुऐंजा सरीखे रोगों के आक्रमण का अंदेशा बढ़ जाता है । ऐसे लोगों की हड्डियाँ टेढ़ी पड़ जाती हैं और नियत स्थान से ऊपर आ जाती हैं। कनपटी की, गले की, कंधे की, कान के पीछे की हड्डियाँ यदि ऊपर उभर आई हों तो कहा जा सकता घुला जा रहा है। लोभी और कंजूस को कब्ज की शिकायत बनी रहती है और आएदिन जुकाम बना रहता है । भय और आशंका से जिनका कलेजा काँपता है, उनके शरीर में लोहू और क्षार की मात्रा कम हो जाती है। बाल झड़ने लगते हैं और सफेद होने लगते हैं । शोक के कारण नेत्रों की ज्योतिक्षीणता, गठिया, स्मरण शक्ति की कमी, स्नायविक दुर्बलता, बहुमूत्र,पथरी, सरीखे रोग हो जाते हैं ईष्ष्या द्वेष एवं प्रतिहिंसा की जलन के कारण तपैदिक, दमा, कुष्ठ सरीखी व्याधियाँ उत्पन्न होती देखी गईं हैं। कारण स्पष्ट है, इन मानसिक आवेशों के कारण एक प्रकार का अंतर्दाह उत्पन्न होता है। अग्नि जहाँ रहती है, वहाँ जलाती है। अंतर्दाह की अग्नि में जीवन के उपयोगी तत्त्व ईंधन की भाँति जलते रहते हैं जिससे देह भीतर से खोखली हो जाती है । जहाँ अग्न जलती है, वहाँ ऑक्सीजन खरच होती है और कार्बन गैस उत्पन्न होती है । अंतर्दाह की प्रक्रिया से भी अनेकों विष उत्पन्न हो जाते हैं, जिनके कारण शरीर तरह-तरह के रोगों का घर बन जाता है और कुछ ही समय में इतना सड़-गल जाता है कि जीवात्मा को असमय में ही उसे छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ता है।
आवेशों का तूफान न शारीरिक स्वास्थ्य को कायम रहने देता है और न मानसिक स्वास्थ्य को। वैद्य को नाड़ी पकड़ने से चाहे कोई रोग भले ही न मालूम पड़े, पर वस्तुत: आवेश की अवस्था में जीवन की उतनी ही क्षति होती रहती है, जितनी कि बड़े-बड़़े भयंकर रोगों के समय होती है। यह सर्वविदित है कि रोगी मनुष्य शारीरिक दृष्टि से एक प्रकार का अपाहिज बन जाता है। वह चाहता है कि काम करूँ लेकिन होता कुछ नहीं। जरा देर काम करने पर थककर चूर हो जाता है, मन वहाँ जमता ही नहीं। काम को छोड़कर लेट जाने या कहीं चले जाने की तबीयत करती है। करता कुछ है किंतु हो कुछ जाता है, जरा देर के काम में काफी समय खरच हो जाता है, सो भी ठीक तरह होता नहीं । जब निरीक्षण किया जाता है तो भूल पर भूल निकलती है। आवेश में भरा हुआ मनुष्य आधा पागल बन जाता है, वह कभी सर्प की तरह फुसकारता है, कभी व्याघ्र कि वह व्यक्ति चिंता में की तरह मुँह फाड़कर खाने को दौड़ता है। कभी ऐसा दीन और कातर हो जाता है कि विलाप करने, रोने, विरक्त बनने, आत्महत्या करने के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही नहीं पड़ता। मेरे इस आचरण का भविष्य में क्या परिणाम होगा यह सोचने में उसकी बुद्धि बिलकुल असमर्थ हो जाती है।
जीवन को समुन्नत दिशा की ओर ले जाने के लिए यह आवश्यक है कि विवेक बुद्धि ठीक प्रकार काम करे, विवेक बुद्धि की स्थिरता के लिए निराकुलता आवश्यक है। दर्पण या पानी में प्रतिबिंब तभी दिखाई पड़ सकता है, जब वह स्थिर हो। यदि दर्पण या पानी हिल रहा हो तो उसमें प्रतिबिंब भी ठहर न सकेगा । मस्तिष्क में जब उफान आ रहे हों तो विवेक स्थिर नहीं रह सकता। ठीक पथ प्रदर्शन कराने वाली बुद्धि तभी उद्भूत होगी जब मन शांत हो, स्थिर हो, निराकुल हो। किसी काम की अच्छाई, बुराई, हानि, लाभ, सुविधा, कठिनाई आदि की ठीक- ठीक कल्पना करने और अनेक दृष्टियों से विचार करके किसी अंतिम निर्णय पर पहुँचने की क्षमता रखने वाला विवेक तभी मस्तिष्क में रह सकता है, जब आवेशों में उद्विग्नता न हो । जो कार्य भली प्रकार आगा-पीछा सोचकर आरंभ नहीं किए जाते हैं, जोश और उतावली में बिना बिचारे जिन कार्यों को आरंभ किया जाता है, प्राय: उन्हें बीच में ही छोड़ने को विवश होना पड़ता है।
अध्यात्म विद्या के प्राय: सभी ग्रंथों में मन को रोकने, चित्तवृत्तियों को एकाग्र करने, मन को वश में करने का पग-पग पर आदेश किया है। अनेक साधनाएँ मन को वश में करने की बताई गई हैं । यह मन को वश में करना और कुछ नहीं ‘निराकुलता’ ही है । दुःख-सुख, हानि-लाभ जय-अजय के कारण उत्पन्न होने वाले आवेशों से बचना ही योग की सफलता है। गीता कहती है-
यहि न ब्यथयन्त्येत्ते पुरुषं पुरुषर्ष भ
सम दुःखं सुखं धीरं सोऽमत्वीय कल्पते ॥२-१५॥
सुखे दुःखे समे कृत्वा लाभा लाभौ जयाजयौ ॥३- ३८ ॥
दुःखे ज्वनुद्विग्न मनः सुखेबु बिगतस्पृहः ।
बीत राग भय क्रोधस्थित धी मुनिरुच्यते ॥२-५६॥
न प्रहष्येत्पियं प्राष्य नोद्विजेत्प्राव्यचप्रियम् ।
स्थिर बुद्धिरसं मूढो ब्रह्ममविद ब्रह्मणि स्थितः ॥५ २०॥
आदि अनेक स्थलों पर निराकुलता को योग की सफलता बताया गया है। आवेश सुखप्रधान और दुःखप्रधान दोनों प्रकार के हैं। शोक, हानि, बिछोह, रोग, दंड, भय, विपत्ति, मृत्यु, क्रोध, अपमान, कायरता आदि हानिप्रधान आवेश हैं। कुछ आवेश लाभप्रधान भी होते हैं- लाभ,संपत्ति, मिलन, कुटुंब, बल, सत्ता, पद, धन, मैत्री, विद्या, बुद्धि कला, विशेषता आदि के कारण एक प्रकार का नशा चढ़ आता है। इस प्रकार की कोई संपत्ति जब बड़ी मात्रा में यकायक मिल जाती है तब तो मनुष्य हर्षोन्मत हो जाता है । उसकी दशा अर्द्धविक्षिप्त जैसी हो जाती है । मारे लोग फूले नहीं समाते, वे कस्तूरी हिरन की तरह इधर – उधर दौड़े फिरते हैं, चित्त बल्लियों उछलने लगता है । जब कोई संपत्ति स्थायी रूप से मिल जाती है तो उसका अहंकार चढ़ जाता है। उसे ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो मैं साधारण मनुष्यों की अपेक्षा सैकड़ों गुना भारी हूँ। वैभव के मद में वह इतराता है, दूसरों का अपमान करके अपनी महत्ता का प्रदर्शन करता है ।
ऐसे अहंकार के नशे में मदहोश पड़े हुए लोगों को अपनी प्रेस्टिज -पोजीशन-मान-बड़ाई-बड़प्पन-खातिर की बड़ी चिंता रहती है । इसके लिए हर काम में बहुत अधिक फजूलखरची की सामग्री को जुटाने के लिए अनुचित साधन जुटाने पड़ते हैं, अनेकों प्रकार की बुराइयाँ ओढ़नी पड़ती हैं। इस प्रकार एक तो अहंकार के नशे की जलन, दूसरे उस नशे को बनाए रहने के साधनों की चिंता, दोनों प्रकार की आकुलताएँ मन में कुहराम मचाए रहतीं हैं। दुःखप्रधान आवेशों से अंत:करण में जैसी अशांति रहती है वैसी ही सुखप्रधान आवेशों में भी उत्पन्न हो जाती है । इन दोनों से ही बचना आवश्यक है। दोनों से ही स्वास्थ्य एवं विवेक की क्षति होती है । गीता आदि शास्त्रों में इसीलिए दोनों प्रकार के आवेशों-द्वद्वो से दूर रहने का जोरों से प्रतिपादन किया गया है ।
जीवन को समुन्नत देखने की इच्छा करने वालों के लिए आवश्यक है कि अपने स्वभाव को गंभीर बनाएँ। उथलेपन, लड़कपन, छिछोरेपन की जिन्हें आदत पड़ जाती है, वे गहराई के साथ किसी विषय में विचार नहीं कर सकते। किसी समय मन को गुदगुदाने के लिए बालक्रीड़ा की जा सकती है, पर वैसा स्वभाव न बना लेना चाहिए । आवेशों से बचे रहने की आदत बनानी चाहिए, जैसे समुद्र तट पर रहने वाले पर्वत नित्य टकराते रहने वाली समुद्र की लहरों की परवाह नहीं करते। इसी प्रकार अपने को भी उद्वेगों की उपेक्षा करना चाहिए । खिलाड़ी खेलते हैं, कई बार हारते हैं, कई बार जीतते हैं, कई बार हारते-हारते जीत जाते हैं, कई बार जीतते-जीतते हार जाते हैं । कभी-कभी बहुत देर हार – जीत के झूले में यों ही झूलते रहते हैं। परंतु कोई खिलाड़ी उसका अत्यधिक असर मन पर नहीं पड़ने देता। हारने का कोई सिर धुनकर क्रंदन नहीं करता और जीतने पर न कोई अपने को बादशाह मान लेता है । हारने वालों के होठों पर झेंप भरी मुस्कराहट रहती है और जीतने वाले के होठों पर जो मुस्कराहट रहती है, उसमें सफलता की प्रसन्नता मिली होती है। इस थोड़े से स्वाभाविक भेद के अतिरिक्त और कोई विशेष अंतर जीते हुए तथा हारे हुए खिलाड़ी में नहीं दीख पड़ता, विश्व के रंगमंच पर हम सब खिलाड़ी हैं। खेलने में रस है, वह रस दोनों दलों को समान रूप से मिलता है। हार-जीत तो उस रस की तुलना में नगण्य चीज है।
मनोवृत्तियों का सदुपयोग
इस प्रकार के हानिकारक आवेशों से मुक्त रहकर यदि मनोवृत्तियों का उपयोग किया जाए तो वे हानि पहुँचाने की बजाय हितकर ही सिद्ध होंगी। सर्वथा संसार त्यागियों की तो बात छोड़ दीजिए पर अधिकांश मनुष्यों को जो संसार में रहते हैं और जिनको भली-बुरी सभी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, सभी मनोवृत्तियों से काम लेना आवश्यक होता है। इसलिए हमारा कर्त्तव्य यही है कि अपनी मनोवृत्तियों और इंद्रियों को ऐसी ही सधी हुई अवस्था में रखें ।
मनुष्य की जो मनोवृत्तियाँ जन्म से ही दी गई हैं, वे सब उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण हैं । यदि उनको ठीक प्रकार से प्रयोग में लाया जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अत्यंत सुख-शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है । हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश लोग उनका सदुपयोग करना नहीं जानते और उन्हें बुरे मार्ग से खरच करके अपने लिए तथा दूसरों के लिए दुःखों की सृष्टि करते हैं।
हम देखते हैं कि कई मनोवृत्तियों की संसार में बड़ी निंदा होती है । कहा जाता है कि यह बातें पाप और दु:ख की जड़ हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को जी भर कोसा जाता है और कहा जाता है कि इन्हीं के कारण संसार में अनर्थ हो रहे हैं। इस प्रकार के कथन किस हद तक सही हैं, इसका विचारवान पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं।
यदि काम बुरी वस्तु है, त्याज्य है, पापमूलक है तो उसका उपयोग न तो सत्पुरुषों को ग्राह्य हो सकता था और न बुरी बात का अच्छा परिणाम निकल सकता था। परंतु इतिहास दूसरी ही बात सिद्ध करता है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश विवाहित जीवन व्यतीत करते हैं । व्यास, अत्रि, गौतम, वसिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य, भरद्वाज, च्यवन आदि प्राय: सभी प्रधान ऋषि सपत्नीक रहते थे और संतानोत्पादन करते थे। दुनियाँ में असंख्य पैगंबर, ऋषि, अवतार, महात्मा, तपस्वी, विद्वान, महापुरुष हुए हैं, यह सब किसी न किसी माता-पिता के संयोग से ही उत्पन्न हुए थे। यदि कामसेवन बुरी बात है तो उसके द्वारा उत्पन्न हुए बालक भी बुरे ही होने चाहिए। बुरे से अच्छे की सृष्टि कैसे हो सकती है ? कालोंच से सफेदी कैसे निकल सकती है ? इन बातों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि ‘काम’ स्वयं कोई बुरी वस्तु नहीं है । परमात्मा ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘मनुष्य’ में कोई बुरी बात नहीं रखी । काम भी बुरी बात नहीं, बुरा केवल काम का दुरुपयोग है। दुरुपयोग करने से तो अमृत भी विष बन सकता है। पेट की सामर्थ्य से अधिक अमृत पीने वाले को भी दुःख ही भोगना पड़ेगा ।
क्रोध के ऊपर विचार कीजिए । क्रोध एक प्रकार की उत्तेजना है जो आक्रमण करने से पूर्व, छलांग मारने से पूर्व आनी अत्यंत आवश्यक है । लंबी छलांग कूदने वाले को पहले कुछ दूर से दौड़कर आना होता है, तब वह लंबा कूद सकता है। यदि यों ही शांत खड़ा हुआ व्यक्ति अचानक छलांग मारना चाहे तो उसे बहुत कम सफलता मिलेगी। अपने भीतर घुसी हुई तथा फैली हुई बुराइयों से लड़ने के लिए विशेष उत्साह की आवश्यकता होती है और वह उत्साह क्रोध द्वारा आता है । यदि क्रोधतत्त्व मानव वृत्ति में से हटा दिया जाए तो बुराइयों का प्रतिकार नहीं हो सकता है। रावण, कंस, दुर्योधन, हिरण्यकशिपु, महिषासुर जैसों के प्रति यदि क्रोध की भावनाएँ न उत्पन्न होतीं तो उनका वध कैसे होता? भारत में यदि अंगरेजों के विरूद्ध व्यापक क्रोध न उभरता तो भारत माता आज स्वाधीन कैसे हुई होती? अत्याचारियों के विरुद्ध क्रोध न आता तो परशुराम कैसे अपना फरसा सँभालते? महारानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी जैसे आदर्श नरत्नों की सृष्टि कैसे होती? अधर्म की बढ़ोत्तरी से कुपित होकर ही भगवान पापों का संहार करते हैं । इससे प्रकट है कि क्रोध बुरा नहीं है।
लोभ को लीजिए! उन्नति की इच्छा का नाम ही लोभ है। स्वास्थ्य, विद्या, धन, प्रतिष्ठा, पुण्य, स्वर्ग, मुक्ति आदि का लोभ ही मनुष्य को क्रियाशील बनाता है। यदि लोभ न हो तो न किसी प्रकार की इच्छा ही उत्पन्न होगी और इच्छा के अभाव में उन्नति के लिए प्रयास करना भी न हो सकेगा। फलस्वरूप मनुष्य भी कीट-पतंगों की तरह भूख और निद्रा को पूर्ण करते हुए जीवन समाप्त कर ले। लोभ उन्नति का मूल है। पहलवान,विद्यार्थी, व्यापारी, किसान, मजदूर, लोकसेवी, पुण्यात्मा, ब्रह्मचारी, तपस्वी,दानी, सत्संगी, योगी आदि सभी अपने दृष्टिकोण के अनुसार लोभी हैं जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता है, जो जिस वस्तु का संचय करने में लगा हुआ है, उसे उस विषय का लोभी कहा जा सकता है । अन्य लोभों की भाँति धन का लोभ भी बुरा नहीं है। यदि बुरा है तो भामाशाह का, जमनालाल बजाज का धन संचय भी बुरा कहा जाना चाहिए। परंतु हम देखते हैं कि इनके धन संचय के द्वारा संसार का बड़ा उपकार हुआ। और भी अनेकों ऐसे उदार पुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने धन को सत्कार्य में लगाकर अपनी कमाई को सार्थक बनाया। ऐसे लोभ में और निर्लोभता में कोई अंतर नहीं है। निंदा तो उस लोभ की की जाती है जिसके कारण अनीतिपूर्वक अनुचित धन संचय करके उसको कुवासनाओं की पूर्ति में व्यय किया जाता है, जोड़ -जोड़कर अनुपयुक्त अधिकारी के लिए छोड़ा जाता है । लोभ का दुरुपयोग ही बुरा है, वस्तुत: लोभवृत्ति की मूलभूत रूप में निंदा नहीं की जा सकती।
मोह का प्रकरण ऐसा ही है । यदि प्राणी निर्मोही हो जाए तो माताएँ अपने बच्चे को कुड़े-करकट के ढेर में फेंक आया करें, क्योंकि इन बालकों से उनको लाभ तो कुछ नहीं, उलटी हैरानी ही होती है । फिर मनुष्य तो यह भी सोच ले कि बड़ी होने पर हमारी संतान हमें कुछ लाभ देगी, पर बेचारे पशु-पक्षी तो यह भी नहीं सोचते, उनकी संतान तो बड़ी होने पर उन्हें पहिचानती तक नहीं, फिर सेवा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। रक्षा की सभी क्रियाएँ मोह के कारण होती हैं। शरीर का मोह, यश का मोह, प्रतिष्ठा का मोह, कर्तव्य का मोह, स्वर्ग का मोह, साधन-सामग्री का मोह, यदि न हो तो निर्माण उत्पादन न हो और रक्षा की व्यवस्था भी न की जा सके। ममता का भाव न रहे तो ‘मेरा कर्त्तव्य’ भी न सोचा जा सकेगा । ‘मेरी मुक्ति-मेरा कल्याण’ भी कौन सोच सकेगा ? अपनी संस्कृति, अपनी देशभक्ति को भी लोग भुला देगें। एकदूसरे के प्रति प्रेम का बंधन कायम न रह सकेगा और सब लोग आपस में उदासीन की तरह रहा करेंगे। ऐसा नीरस जीवन जीना कोई मनुष्य पसंद कर सकता है ? कदापि नहीं । मोह एक पवित्र शृंखला है जो व्यष्टि को समष्टि के साथ, व्यक्ति को समाज के साथ, मजबूती से बाँधे हुए है। यदि यह कड़ी टूट जाए तो विश्वमानव की सुरम्य माला के सभी मोती इधर-उधर बिखरकर नष्ट हो जाएँगे। मोह का अज्ञानजनित रूप ही त्याज्य है, उसके दुरुपयोग की ही भर्त्सना की जाती है।
इसी प्रकार मद, मत्सर, अहंकार आदि निंदित वृत्तियों के बारे में समझना चाहिए। परमात्मा के प्रेम में झूम जाना सात्विक मद है। क्षमा करना, भूल जाना, अनावश्यक बातों की ओर से उपेक्षा करना एक प्रकार का मत्सर है। आत्मज्ञान को, आत्मानुभूति को, आत्मगौरव को अहंकार कहा जा सकता है। इस रूप में यह वृत्तियाँ निंदित नहीं हैं। इनकी निंदा तब की जाती है, जब यह संकीर्णतापूर्वक तुच्छ स्वार्थों के लिए स्थूल रूप में प्रयुक्त होती हैं।
मानव प्राणी प्रभु की अद्भुत कृति है, इसमें विशेषता ही विशेषता भरी है, निंदनीय एक भी वस्तु नहीं है । इंद्रियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग हैं, उनकी सहायता से हमारे आनंद में वृद्धि होती है तथा उन्नति में सहायता मिलती है, पुण्य परमार्थ का लाभ होता है । पर यदि इन इंद्रियों को उचित रीति से प्रयुक्त न करके उनकी सारी शक्ति अत्यधिक, अमर्यादित भोग भोगने में खरच कर डाली जाए तो उससे नाश ही होगा, विपत्तियों की उत्पत्ति ही होगी। इस प्रकार काम, क्रोध, मोह, आदि की मनोवृत्तियाँ परमात्मा ने आत्मोन्नति तथा जीवन की सुव्यवस्था के लिए बनाई हैं, इनके सदुपयोग से हम विकास पथ पर अग्रसर होते हैं। इनका त्याग पूर्ण रूप से नहीं हो सकता, जो इनको नष्ट करने या पूर्णतया त्याग करने की सोचते हैं, वे ऐसा ही सोचते हैं जैसे कि आँख, कान, हाथ, पांव आदि काट देने से पाप न होंगे या सिर काट देने से बुरी बातें न सोची जाएँगी। ऐसे प्रयत्नों को बालबुद्धि का उपहासास्पद कृत्य ही कहा जा सकेगा। प्रभु ने जो हमें शारीरिक और मानसिक साधन दिए हैं, वे उसके श्रेष्ठ वरदान हैं, उनके द्वारा हमारा कल्याण ही होता है। विपत्ति का कारण तो हमारा दुरुपयोग है। हमें चाहिए कि अपने प्रत्येक शारीरिक और मानसिक औजार के ऊपर अपना पूर्ण नियंत्रण रखें, उनसे उचित काम लें, उनका सदुपयोग करें। ऐसा करने से जिन्हें आज निंदित कहा जाता है, शत्रु समझा जाता है, कल वे ही हमारे मित्र बन जाते हैं। स्मरण रखिए कि प्रभु हमें श्रेष्ठ तत्त्वों से बनाया है। यदि उनका दुरुपयोग न किया जाए तो जो कुछ हमें मिला हुआ है हमारे लिए सब प्रकार श्रेयस्कर ही है । रसायनशास्त्री जब विष का शोधन मारण करके उससे अमृतोपम औषधि बना लेते हैं , तो कोई कारण नहीं कि विवेक द्वारा वह अमूल्य वृत्तियाँ जो आमतौर से निंदित समझी जाती हैं, सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली न बन जाएँ ।
लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य