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उन्नति के मार्ग में कठिनाइयां

by Akhand Jyoti Magazine

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सफलता का मार्ग सुगम नहीं होता। उसमें पग पग पर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है। ऐसा कोई भी महत्व पूर्ण कार्य नहीं जिसमें कष्ट और कठिनाइयां न उठानी पड़ें। ऐसी एक भी सफलता नहीं है जो कठिनाइयों से संघर्ष किये बिना ही प्राप्त हो जाती हो। जीवन के महत्वपूर्ण मार्ग विघ्न बाधाओं से सदा ही भरे रहते हैं। यदि परमात्मा ने सफलता का कठिनाई के साथ गठबन्धन न किया होता, उसे सर्व सुलभ बना दिया होता तो मनुष्य जाति का वह सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता। तब सरलता से मिली हुई सफलता बिलकुल नीरस एवं उपेक्षणीय हो जाती। जो वस्तु जितनी कठिनता से, जितना खर्च करके मिलती है वह उतनी ही आनन्ददायक होती है। कोई शाक या फल जिन दिनों सस्ता और काफी संख्या में मिलता है उन दिनों उसकी कोई पूछ नहीं होती, पर जिन दिनों वह दुर्लभ होता है उन दिनों अमीर लोग उसकी खोज कराके महंगे दाम पर खरीदते हैं। स्वर्ण की महत्ता इस लिए है कि यह कम मिलता है पर यदि कोयले कोयले की तरह सोने की खानें निकल पड़ें तो उसे भी लोग वैसी ही लापरवाही से देखेंगे जैसे आज लोहे आदि सस्ती वस्तुओं को देखा जाता है।

दुर्लभता और दुष्प्राप्यता से आनन्द का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब प्रेमी और प्रेमिका दूर दूर रहते हैं तो एक दूसरे को चन्द्र चकोर की भांति याद किया करते हैं परन्तु जब सदा ही एक जगह पर रहना होता है तो दाल में नमक कम पड़ने या सिन्दूर की बिन्दी लाने में भूल हो जाने जैसी छोटी बातों पर कलह होने लगते हैं। जो वस्तुएं दुर्लभ हैं, सर्व साधारण को आसानी से नहीं मिलती उन्हें ही सफलता कहते हैं। जिन कार्यों की सफलता सर्व सुलभ है वैसे कार्य तो सब लोग सदा करते ही रहते हैं उनके लिए न कोई पुस्तक पढ़ने की आवश्यकता पड़ती है और न लेखक को लिखने की। यदि महत्वपूर्ण सफलताओं को प्राप्त करने में कुछ बाधा न होती तो वे महत्वपूर्ण न रहतीं और न उनमें कुछ रस आता। कोई रस और कोई विशेषता, न रहने पर यह संसार बड़ा ही नीरस एवं कुरूप हो जाता, लोगों को जीवन काटना एक भार की भांति अप्रिय कार्य प्रतीत होने लगता है।

कठिनाइयों के न रहने पर एक और हानि होती है कि मनुष्य की क्रियाशीलता, कुशलता और चैतन्यता नष्ट हो जाती। ठोकरें खा खाकर अनुभव एकत्र किया जाता है। घिसने और पिसने से योग्यता बढ़ती है। कष्ट की चोट सह कर मनुष्य दृढ़, बलवान और साहसी बनता है। मुसीबत की अग्नि में तपाये जाने पर बहुत सी कमजोरियां जल जाती हैं और मनुष्य खरे सोने की तरह चमकने लगता है। हथियार की धार पत्थर पर रगड़ने से तेज होती है खरीद पर चढ़ाने से हीरे में चमक आती है। घात प्रतिघातों से ठोकर खाकर रबड़ की गेंद की तरह अन्तःचेतना में उछाल आता है और वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने की गतिविधि आरंभ कर देती है। मनुष्य भी ऐसे ही तत्वों से बना हुआ है कि यदि उसे ठोकर न लगे, कठिनाई के संघर्ष में न पड़ना पड़े तो उसकी सुप्त शक्तियां जाग्रत न हो सकेंगी और वह जहां का तहां पड़ा दिन काटता रहेगा। सफलता में आनन्द कायम रखने और शक्तियों के चैतन्य होकर विकास के मार्ग पर प्रवृत्त होने के लिए जीवन में कष्ट और कठिनाइयों का रहना बड़ा ही आवश्यक है इतिहास में जिन महा पुरुषों का वर्णन है उनमें से हर एक के पीछे कष्टों का, दुर्गम कठिनाइयों में पड़ने का विस्तृत वृतान्त है। उसी के कारण वे महापुरुष बने हैं। यदि ईसामसीह के जीवन में से उनकी तपश्चर्या और क्रूस पर चढ़ना, इन दो बातों को निकाल दिया जावे तो वह एक साधारण धर्मोपदेशक मात्र रह जायेंगे। राणा प्रताप, शिवाजी, बन्दा वैरागी, हकीकत राय, शिव, दधीचि, हरिश्चन्द्र, प्रह्लाद, लेनिन, गांधी, जवाहर आदि को परम आदरणीय महापुरुष बनाने का महत्व उनकी कष्ट सहिष्णुता को है, यदि उन्होंने पग पग कष्ट सहना स्वीकार न किया होता, यदि उन्होंने कठिनाइयों और दुखों को अपनाया न होता तो वे तो साधारण श्रेणी के भले मनुष्य मात्र रह जाते, महापुरुष का पद उन्हें प्राप्त न हुआ होता।

आकांक्षा, जागरुकता और परिश्रम शीलता से बड़े बड़े कष्ट साध्य कार्य पूरे हो जाते हैं, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे शीघ्र ही स्वल्पकाल में और बिना कोई खतरा उठाये सफल हो जाते हैं। परमेश्वर बार-बार परीक्षा लेकर मनुष्य के अधिकारी होने न होने की जांच किया करता है। सफलता के लिए भी मनुष्य को अनेकों खतरों, कष्टों और निराशा जनक अवसरों की परीक्षाऐं देनी होती हैं। जो उत्तीर्ण होते हैं वे ही आगे बढ़ते हैं, मनोवांछित सफलता का रसास्वादन करते हैं। जो इन परीक्षाओं से डर जाते हैं, उन्हें पार करने का प्रयत्न नहीं करते वे उन्नति के शिखर पर नहीं पहुंच सकते, अभीष्ट सिद्धि की महत्ता को प्राप्त नहीं कर सकते।

सफलता की मंजिल क्रमशः और धीरे-धीरे पार की जाती है, कठिनाइयों से लड़ता, मरता, चोटें और ठोकरें खाता हुआ ही कोई मनुष्य सफल मनोरथ होता है। अनेक बार दूसरे के द्वारा विघ्न डाले जाते हैं, कई बार दैवी प्रकोप के कारण अनायास ही कुछ अड़चनें आ जाती हैं, कई बार मनुष्य स्वयं भूल कर बैठता है। अपनी असावधानी या भूल के कारण असफल होना पड़ता है। अपनी भूलों को सुधारने के लिए प्रयत्न किया जाता है पर पुराने अभ्यास के कारण वे दोष फिर उमड़ पड़ते हैं। और बना बनाया काम बिगाड़ देते हैं। कई बार प्रयत्न करते हुए भी जब अपने अपने स्वभाव या अभ्यास को सुधारने में सफलता नहीं मिलती तो बड़ी निराशा होती है और खिन्न होकर मनुष्य अपने प्रयास को ही बन्द कर देता है।

अपने स्वभाव को बदलने का पूरी शक्ति से प्रयत्न तो करना चाहिए पर यह आशा न करनी चाहिए कि इस दिशा में दो चार दिन में ही पूर्ण सुधार हो जायेगा। स्वभाव का अभ्यास धीरे-धीरे बहुत दिन में पड़ता है। किसी दोष से पूर्णतया छुटकारा पाने या किसी अच्छी आदत डालने में बहुत समय तक प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। यह प्रयत्न धैर्य एवं दृढ़ता के साथ, उत्साहित एवं आशान्वित होकर करना चाहिए। और जब भूलें हों तो अपने को अधिक सावधान एवं जागरूक करते हुए आगे से अधिक सावधानी बरतने का निश्चय करना चाहिए। रस्सी की रगड़ से जब पत्थर जैसा कठोर पदार्थ घिस जाता है तो कोई कारण नहीं कि हम अपने दोषों और त्रुटियों को परिवर्तित या नष्ट न कर सकें।

उन्नति के मार्ग में कई बार आकस्मिक परिस्थितियां आगे आ जाती हैं और बने काम को बिगाड़ देती हैं। सफलता की मंजिल पूरी होने के नजदीक होती है कि यकायक कोई ऐसा वज्र प्रहार हो जाता है कि सारे मनसूबे धूलि में मिल जाते हैं। पूरा प्रयत्न करने, पूरी सावधानी बरतने पर भी इस प्रकार के संकट सामने आ जाते हैं, जो बिल्कुल ही आकस्मिक होते हैं। पहले से उनकी कल्पना भी नहीं रहती। मृत्यु, विछोह, चोरी, अग्निकाण्ड, रोग, युद्ध, तूफान, वर्षा, शत्रु का प्रहार, षड़यन्त्र, राजदण्ड, घाटा, वस्तुओं की टूट-फूट, विश्वासघात, अपमान, ठगा जाना, दुर्घटना, भूल आदि कारणों से ऐसी भयंकर परिस्थितियां सामने आ खड़ी होती हैं, जिनकी पहले से कोई संभावना ही न थी। ऐसी विषम स्थिति में होकर गुजरने का जिन्हें साहस, अनुभव या अभ्यास नहीं होता, वे यकायक घबरा जाते हैं किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं, उन्हें सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें क्या न करें।

यह स्थिति मनुष्य जैसे विवेकशील प्राणी के गौरव को गिराने वाली है। विपरीत परिस्थितियां मनसूबों को धूल में मिला देने की क्षमता रखती हैं, यह ठीक है, पर यह भी ठीक है कि सदा ही हर बार किन्हीं प्रयत्नों में कोई भी प्रकृति का प्रकोप नहीं रोक सकता। हरी घास को ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप जला डालती है, उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि घास को धूप ने सर्वथा परास्त कर दिया, परन्तु यह स्थिति सदा नहीं रहती क्योंकि विध्वंसक तत्वों की सत्ता बहुत ही क्षणिक एवं स्वल्पजीवी हुआ करती है। ग्रीष्म समाप्त होते ही वर्षा आती है और जली भुनी घास फिर सजीव एवं हरी-भरी हो जाती है ग्रीष्म चला गया, घास को उसने एक बार परास्त कर दिया, परन्तु इतने मात्र से ही यह नहीं समझना चाहिए कि धूप में घास को नष्ट कर डालने की, उसके सुरम्य जीवन को नष्ट कर डालने की शक्ति है। ईश्वर ने जिसे जीवन दिया है, ईश्वर ने जिसे आनन्दमय बनाया है, उसके जीवन और आनन्द को कोई भी विक्षेप छीन नहीं सकता, नष्ट नहीं कर सकता।

प्रकृति के नियमों में एक रहस्य बड़ा ही विचित्र और अद्भुत है। वह यह है कि हर एक विपत्ति के बाद उसकी विरोधी सुविधा प्राप्त होती है। जब मनुष्य बीमारी से उठता है तो बड़े जोरों की भूख लगती है, निरोगता-शक्ति बड़ी तीव्रता से जागृत होती है और जितनी थकान बीमारी के दिनों में आई थी वह थोड़े ही दिनों में बड़ी तेजी के साथ पूरी हो जाती है। ग्रीष्म की जलन को चुनौती देती हुई वर्षा की मेघ मालाऐं आती हैं और धरती को शीतल, शान्तिमय हरियाली से ढक देती हैं। हाथ पैरों को अकड़ा देने वाली ठण्ड जब उग्र रूप से अपना जौहर दिखा चुकती हैं तो इसकी प्रतिक्रिया से एक ऐसा मौसम आता है जिसके द्वारा यह शीत सर्वथा नष्ट हो जाता है। रात्रि के बाद दिन का आना सुनिश्चित है। अंधकार के बाद प्रकाश का दर्शन भी आवश्यक ही होता है। मृत्यु के बाद जन्म भी होता ही है। रोग, घाटा, शोक आदि की विपत्तियां चिरस्थायी नहीं हैं, वे आंधी की तरह आती हैं और तूफान की तरह चली जाती हैं। उनके चले जाने के पश्चात एक दैवी प्रतिक्रिया होती है जिसके द्वारा उस क्षति की पूर्ति के लिए कोई ऐसा विचित्र मार्ग निकल आता है जिससे बड़ी तेजी से उस क्षति की किसी न किसी प्रकार पूर्ति हो जाती है, जो आपत्ति के कारण हुई थी।

आकस्मिक विपत्ति का शिर पर आ पड़ना मनुष्य के लिए सचमुच बड़ा दुखदायी है। इससे उसकी बड़ी हानि होती है किन्तु उस विपत्ति ही हानि से अनेकों गुनी हानि करने वाला एक और कारण है वह है ‘विपत्ति की घबराहट।’ विपत्ति कही जाने वाली मूल घटना- चाहे वह कैसी ही बड़ी क्यों न हो किसी का अत्यधिक अनिष्ट नहीं कर सकती, वह अधिक समय ठहरती भी नहीं, अपना एक प्रहार करके चली जाती है। परन्तु ‘विपत्ति की घबराहट’ ऐसी दुष्टा, पिशाचिनी है कि वह जिसके पीछे पड़ती है उसके गले से खून की प्यासी जोंक की तरह चिपक जाती है और जब तक उस मनुष्य को पूर्णतया निःसत्व नहीं कर देती तब तक उसका पीछा नहीं छोड़ती। विपत्ति के पश्चात् आने वाले अनेकानेक जंजाल इस घबराहट के कारण ही आते हैं। शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सुस्थिति का सत्यानाश करके वह मनुष्य की जीवनी शक्ति को चूस जाती है। आकस्मिक विपत्तियों से मनुष्य नहीं बच सकता। राम, कृष्ण, हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह जैसी आत्माओं को विपत्ति ने नहीं छोड़ा तो अन्य कोई उसकी चपेटों से बच जायगा ऐसी आशा न करनी चाहिए। इस सृष्टि का विधि विधान कुछ ऐसा ही है कि सम्पत्ति और विपत्ति का, लाभ और हानि का, चक्र हर एक के ऊपर चलता रहता है। प्रारब्ध कर्मों का भोग भुगतने के लिए, ठोकर देकर चेताने के लिए, क्रियाशक्ति, मजबूती, दृढ़ता और अनुभवशीलता की वृद्धि के लिए, या किसी अन्य प्रयोजन के लिए विपत्तियां आती हैं। इसका ठीक ठीक कारण तो परमात्मा ही जानता है पर इतना सुनिश्चित है कि विपत्तियों का प्रकोप विभिन्न मार्गों से समय समय पर हर एक के ऊपर होता रहता है। अप्रिय, अरुचिकर एवं असंतुष्ट करने वाली परिस्थितियां न्यूनाधिक मात्रा में हर किसी के सामने आती हैं। इनसे कोई भी पूर्णतया सुरक्षित नहीं रह सकता, पूरी तरह नहीं बच सकता।

परन्तु यह बात अवश्य है कि यदि हम चाहें तो उन विपत्तियों के पीछे आने वाले बड़े भयंकर और सत्यानाशी आपत्ति जंजालों से आसानी के साथ बचे रह सकते हैं और आसानी से उस आकस्मिक विपत्ति की थोड़े ही समय में क्षति पूर्ति कर सकते हैं। कठिनाई से लड़ने और उसे परास्त करके अपने पुरुषार्थ का परिचय देना, यह मनोवृत्ति ही सच्चे वीर पुरुषों को शोभा देती है। योद्धा पुरुष उसे तलवार को चुनौती देते रहते हैं जिसके एक ही झटके में सिर धड़ से जुदा हो सकता है। बहादुरों को किसी प्रकार का डर नहीं होता उन्हें अपना भविष्य सदा ही सुनहरा दिखाई पड़ता है। ‘हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं जित्वा वा मोझसे महीम’ की भावना उनके मन में सदा ही उत्साह एवं आशा की ज्योति प्रदीप्त रखती है। बुरे समय के सच्चे तीन साथी हैं धैर्य, साहस और प्रयत्न। जो इन तीनों को साथ रखता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जिसने कठिन समय में अपने मानसिक संतुलन को कायम रखने का महत्व समझ लिया है, जो बुरी घड़ी में भी दृढ़ रहता है, अंधकार में रहकर भी जो प्रकाश पूर्ण प्रभात की आशा लगाये रहता है वह वीर पुरुष सहज में ही दुर्गमता को पार कर जाता है। मानसिक सन्तुलन के कायम रहने से न तो शारीरिक स्वास्थ्य नष्ट होता है और न मानसिक गड़बड़ी पड़ती है न तो उससे मित्र उदासीन होते हैं और न शत्रु उबलते हैं इस प्रकार स्वनिर्मित दुर्घटनाओं से वह बच जाता है। अब केवल आकस्मिक विपत्ति की क्षति पूर्ति का प्रश्न रह जाता है। अत्यधिक उग्र आकांक्षा और पूर्व अनुभव के आधार पर वह अपनी विवेक बुद्धि से ऐसे साधन जुटा लेता है, ऐसे मार्ग तलाश कर लेता है कि पहली जैसी या उसके समतुल्य अन्य किसी प्रकार की सुखदायक परिस्थिति प्राप्त कर ले। जो बुरे समय में अपने साहस और धैर्य को कायम रखता है वह भाग्यशाली वीर योद्धा जीवन भर कभी दुर्भाग्य की शिकायत नहीं कर सकता। कष्ट की घड़ी उसे ईश्वरीय कोप नहीं वरन् धैर्य साहस और पुरुषार्थ की परीक्षा करने वाली चुनौती दिखाई पड़ती है। वह इस चुनौती को स्वीकार करने का गौरव लेने को सदा तैयार रहता है।

दार्शनिक चुर्निग-तो हांग कहा करते थे कि—‘कठिनाई एक विशालकाय, भयंकर आकृति के, किन्तु कागज के बने हुए सिंह के समान है, जिसे दूर से देखने पर बड़ा डर लगता है, पर एक बार जो साहस करके उसके पास पहुंच जाता है उसे प्रतीत होता है कि वह केवल एक कागज का खिलौना मात्र था। बहुत से लोग चूहों को लड़ते देखकर डर जाते हैं, पर ऐसे भी लाखों योद्धा हैं जो दिन रात आग उगलने वाली तोपों की छाया में सोते हैं। एक व्यक्ति को एक घटना वज्रपात के समान असह्य अनुभव होती है परन्तु दूसरे आदमी पर जब वही घटना घटित होती है जो वह लापरवाही से कहता है ‘उन्हें, क्या चिंता है, जो होगा सो देखा जायेगा,’ ऐसे लोगों को वह दुर्घटना ‘स्वाद परिवर्तन’ की एक सामान्य बात होती है। विपत्ति अपना काम करती रहती है वे अपना काम करते रहते हैं। बादलों की छाया की भांति बुरी घड़ी आती हैं और समयानुसार टल जाती है। बहादुर आदमी हर नई परिस्थिति के लिए तैयार रहता है। पिछले दिनों ऐश आराम के साधनों के उपभोग भी वही करता था और अब मुश्किल से भरे, अभाव ग्रस्त दिन बिताने पड़ेंगे तो इसके लिए भी वह तैयार है। इस प्रकार का साहस रखने वाले वीर पुरुष ही इस संसार में सुखी जीवन का उपयोग करने के अधिकारी हैं। जो भविष्य के अंधकार की दुखद कल्पनाऐं कर-कर के अभी से शिर फोड़ रहे हैं वे एक प्रकार के नास्तिक हैं, ऐसे लोगों के लिए यह संसार दुखमय, नरक रूप रहा है और आगे भी वैसा ही बना रहेगा। किसी निश्चित कार्यक्रम पर चलते हुए उस योजना को विफल कर देने वाले कारण कभी कभी उपस्थित हो जाते हैं। किसी प्रमुख सम्बन्धी की मृत्यु, रोग, लड़ाई झगड़ा आर्थिक हानि, विश्वासघात, दुर्घटना, बनाये हुए कार्य का बिगड़ जाना आदि जैसे किसी कारण से निश्चित कार्यक्रम बदलना पड़ सकता है, भविष्य में अधिक परिश्रम करने और अभावग्रस्त दशा में रहने के लिये विवश होना पड़ सकता है, विछोह और वियोग की पीड़ा में जलना पड़ सकता है। ऐसी गिरी हुई स्थिति आने पर घबराना न चाहिये बल्कि अपने आप को बदल लेना चाहिये। पहले जैसी स्थिति थी तब वैसी स्थिति के अनुकूल अपने कार्य होते थे, अब दूसरी स्थिति है तो उसी अनुपात से दूसरे ढंग से काम होना चाहिए।

पहले सम्पन्न अवस्था में रहकर पीछे जो विपन्न अवस्था में पहुंचते हैं वे सोचते हैं कि लोग हमारा उपहास करेंगे। इस उपहास की शर्म से लोग बड़े दुखी रहते हैं। वास्तव में यह अपने मन की कमजोरी मात्र है। दुनिया में सब लोग अपने अपने काम से लगे हुए हैं, किसी को इतनी फुरसत नहीं है कि बहुत गंभीरता से दूसरों का उपहास या प्रशंसा करें। लोगों को इतनी मात्र आलोचना या उपहास के भय से अपने आपको ऐसी लज्जा में डुबोये रहना, मानो कोई अपराध किया हो, मनुष्य की भारीभूल है।

चोरी करने में, बुराई, दुष्टता, नीच कर्म, पाप या अधर्श करने में लज्जा होनी चाहिये। यह कोई लज्जा की बात नहीं कि कल दस पैसे थे आज दो रह गये, कल सम्पन्न अवस्था थी आज विपन्न हो गई। पाण्डव एक दिन राजगद्दी पर शोभित थे, एक दिन उन्हें मेहनत मजूरी करके अज्ञात वास में पेट भरने और दिन काटने के लिए विवश होना पड़ा। राणाप्रताप और महाराज नल का चरित्र जिन्होंने पढ़ा है, वे जानते हैं कि ये प्रतापी महापुरुष समय के कुचक्र से एक बार बड़ी दीन हीन दशा में भी रह चुके हैं। पर इसके लिए कोई विज्ञ पुरुष उनका उपहास नहीं करता। मूर्ख और बुद्धि हीनों के उपहास का कोई मूल्य नहीं, उनका मुंह तो कोई बन्द नहीं कर सकता वे तो हर हालात में उपहास करते हैं। इसलिए हंसी होने के झूठे भय को कल्पना में से निकाल देना चाहिए और जब विपन्न अवस्था में रहने की स्थिति आ जाय तो हंसते हुए, बिना किसी भय, संकोच झिझक एवं ग्लानि के उसे स्वीकार लेना चाहिये।

कोई योजना निर्धारित करने के साथ साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि निश्चित कार्यक्रम में विघ्न भी पड़ सकते हैं, बाधा भी आ सकती है, कठिनाई का सामना भी करना पड़ सकता है। उन्नति का मार्ग खतरों का मार्ग है। जिसमें खतरों से लड़ने का साहस और संघर्ष में पड़ने का चाव हो उसे ही सिद्धि के पथ पर कदम बढ़ाना चाहिए। जो खतरों से डरते हैं, जिन्हें कष्ट सहने से भय लगता है, कठोर परिश्रम करना जिन्हें नहीं आता उन्हें अपने जीवन को उन्नतिशील बनाने की कल्पना न करनी चाहिए। अदम्य उत्साह, अटूट साहस, अविचल धैर्य, निरन्तर परिश्रम और खतरों से लड़ने वाला पुरुषार्थ ही किसी को सफल जीवन बन सकता है। इन्हीं तत्वों की सहायता से लोग उन्नति के उच्च शिखर पर चढ़ते हैं और महापुरुष कहलाते हैं।

-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
सर्वतोमुखी उन्नति

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