सोमवती अमावस्या के अवसर पर गंगा किनारे बड़ा भारी मेला लगा था। गंगास्नान एवं मेला घूमने को वहाँ दूर दूर से लोग आए हुए थे। लाखों की भीड़ में लोग इधर उधर आ-जा रहे थे। मेले में खिलौने व मिठाइयों की आकर्षक दुकानें लगी थीं। अपने माता-पिता के साथ मेले में आए बच्चे खिलौनों व मिठाइयों को देखकर अपने आप को रोक नहीं पा रहे थे। वे अपने माता-पिता से उनको खरीदने की जिद करते रहे। माता-पिता भी अपने बच्चों की जिद पूरी करने में लगे थे, पर कुछ खिलौने व मिठाइयाँ मिल जाने के बाद भी बच्चे अभी भी खिलौनों व मिठाइयों की दुकानों की तरफ ही टकटकी लगाए देख रहे थे। मानो वे मेले के सारे खिलौने और मिठाइयाँ अपने साथ ही ले जाना चाहते हों।
इसी चाहत में कुछ बच्चे माता-पिता से नजरें चुराकर मेले में और दूसरे खिलौने देखने को चल पड़े। हाँ! कुछ ऐसे बच्चे भी थे, जो मेले में अभी भी माता-पिता की उँगली थामे चल रहे थे। वे मेला देखकर अपने माता-पिता के साथ गंगास्नान को चल पड़े। उसी बीच मेले में अचानक भगदड़ मची और लोग इधर-उधर भागने लगे। उस भगदड़ में सभी एकदूसरे से बिछड़ गए।
जो बच्चे माता-पिता की उँगली थामे चल रहे थे, वे तो सही-सलामत रहे, पर जो बच्चे माता-पिता को छोड़कर और भी खिलौने देखने व पाने की चाह में इधर-उधर अकेले घूम रहे थे, वे उस भगदड़ में अपने माता-पिता से बिछड़ गए। लाखों की भीड़ में बच्चे अब अपने माता-पिता को कहाँ खोजें ? कहाँ पाएँ ? अंततः वे बिछड़े हुए बच्चे रोने लगे। बच्चों के रुदन से अचानक मेले का माहौल गमगीन हो उठा। बच्चों के करुण क्रंदन से द्रवित होकर कुछ उदारमना लोग उन बिछड़े हुए बच्चों को उनके माता-पिता से मिलाने को तैयार हुए। वे उन बच्चों की उँगली थामे उन्हें मेले में घुमाते रहे, जिससे वे बच्चे अपने माता-पिता को पहचान सकें और उनसे मिल सकें।
मेले में घूमते-घूमते बच्चे अब थक चुके थे तब हो उठे, आह्लादित हो उठे। उनके आनंद की कोई सीमा न उदारमना लोगों ने उन बच्चों को अपनी गोद में उठा लिया और मेले में घूमते रहे। वे उन्हें बीच-बीच में खाने-पीने की चीजें देते रहे। साथ ही यह सांत्वना भी देते रहे कि उनके माता-पिता उन्हें अवश्य मिलेंगे। गोद में बैठकर मेले में – घूमते हुए बच्चे मेले में लगी खिलौनों व मिठाइयों की दुकानें – भी देखते, पर अब वे उन्हें लेने की जिद नहीं करते। न ही वे अब उन्हें देखकर आकर्षित होते। उनकी नजरें तो बस, अपने माता-पिता को ढूँढ़ने में लगी थीं। इसलिए मेले में जगह-जगह सजी खिलौनों व मिठाइयों की दुकानों को देखकर भी वे अब अनदेखा कर रहे थे। उनका हृदय तो अपनी माँ को, अपने पिता को पाने को, देख लेने को क्रंदन कर रहा था। जो मन माँ और पिता को पाने को व्याकुल था, वह मन फिर मिठाई व खिलौनों में कैसे लगता ?
बच्चे अभी भी अपने माता-पिता के लिए रोए जा रहे थे। उनके साथ चल रहे उदारमना लोगों ने उन बच्चों को खिलौने व मिठाइयाँ देकर चुप करने का बहुत प्रयास किया, पर उनके सारे प्रयास निरर्थक रहे। बच्चों की बस एक ही जिद थी, हमें मिठाई नहीं लेना, हमें खिलौने नहीं लेना, हमें तो हमारी माँ चाहिए। हमें तो हमारे पिता चाहिए। हमें अपनी माँ से मिलना है। हमें अपने पिता से मिलना है, पर लाखों की उस भीड़ में बच्चों के माता-पिता को ढूँढ़ पाना भी तो आसान न था।
अचानक उन सबकी मेहनत रंग लाई। भीड़ से गुजरते हुए अचानक एक बच्चे की नजर अपनी माँ पर पड़ी, अपने पिता पर पड़ी। वह बच्चा बड़ी तेजी से अपने माता-पिता की ओर दौड़ पड़ा। वह अपने साथ चल रहे व्यक्ति से हाथ छुड़ाकर अपनी माँ की ओर दौड़ पड़ा। अपने पिता की ओर दौड़ पड़ा। माता-पिता से बिछड़े उस बच्चे में मानो अचानक प्राण का संचार हो उठा। वह दौड़कर अपनी माँ से लिपट गया। वह अपने पिता से लिपट गया। अपने बच्चे को पाकर माता-पिता भी बहुत खुश हुए और उन्होंने अपने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया। दोनों एकदूसरे को पाकर आनंदि हो उठे, आह्लादित हो उठे। उनके आनंद की कोई सीमा न थी। मानो उन सबने संसार का सारा खजाना पा लिया हो।
वास्तव में एक बच्चे के लिए उसके माता-पिता से प्यारी चीज इस दुनिया में तो क्या त्रिलोक में भी नहीं हो सकती है ? एक माता-पिता के लिए उनके बच्चे से बढ़कर और कोई दूसरी चीज आकर्षक नहीं हो सकती।
इस प्रकार एक-एक कर सभी बच्चे अपने माता पिता से मिलते गए और उन्हें पाकर आनंदित हुए, हर्षित हुए, आह्लादित हुए. फिर वे सभी गंगा में डुबकी लगाकर हर्षित हो अपने घर लौट आए। बच्चों का मेले में बिछड़ना व उन्हें खोजने निकल पड़ना व अंततः उन्हें पाकर आनंदित होना, आह्लादित होना आदि घटनाओं के पीछे एक बहुत ही गहरा दर्शन है, जो हममें से हरेक को कुछ खोजने को, कुछ पाने को अभिप्रेरित कर रहा है।
दरअसल यह संसार भी एक बहुत बड़ा मेला है। इस संसार में करोड़ों, अरबों की संख्या में लोग रहते हैं। हम भी उसी मेले में, उसी संसार में रह रहे हैं, घूम रहे हैं। उस मेले में खिलौनों व मिठाइयों की आकर्षक दुकानें लगी हैं। उस मेले में, उस संसार में भौतिक सुख-साधनों के अंबार लगे हैं। हम दिन रात उन्हीं खिलौनों, उन्हीं मिठाइयों, उन्हीं क्षणिक भौतिक सुख देने वाले विषय-भोगों में खोए हुए हैं, भटके हुए हैं। हम बार-बार उन खिलौनों से खेल रहे हैं। हम बार-बार विषय-भोगों की मिठाइयों को भोग रहे हैं। हमारी इंद्रियाँ उन खिलौनों और मिठाइयों का बार-बार भोग कर रही हैं, बार-बार उस ओर आकर्षित हो रही हैं।
आज तक हमारी इंद्रियाँ उन खिलौनों से उन मिठाइयों नहीं हो सकीं, पर फिर भी हम तृप्त हो जाने की से तृप्त आस में उन्हीं खिलौनों, मिठाइयों, कामनाओं, वासनाओं, विषय-भोगों के पीछे अभी भी बड़ी रफ्तार से उसी ओर सरपट भागते फिर रहे हैं। इसी भाग-दौड़ में, इसी भागमभाग में, हम भी अपनी माँ से बिछड़ गए, हम भी अपनी आत्मा से दूर हो गए। हम भी अपने परमपिता से दूर हो गए। अपनी देह व इंद्रियों को ही सब कुछ मान लेने के कारण इंद्रियों के विषयों की ओर दौड़ते-दौड़ते हम अपनी आत्मा से दूर होते गए।
देहपरायण, इंद्रियपरायण जीवन जीने के कारण हमने स्वयं को देह, इंद्रियों, मन व बुद्धि से इतना संबद्ध कर लिया कि स्वयं को देह ही मानने लग गए, मन ही मानने लग गए, बुद्धि ही मानने लग गए, इंद्रियाँ ही मानने लग गए। फलतः हम परमात्मा के दिव्य अंश आत्मा होते हुए भी परमात्मा से बिछड़ गए, परमात्मा से दूर हो गए, पर इसका हमें एहसास तक नहीं हुआ। तभी तो हम अपने भीतर परमात्मा के दिव्य अंश आत्मा की ओर न देखकर अभी भी अपनी देह व इंद्रियों की ओर ही देख रहे हैं। हम अभी भी खिलौनों व मिठाइयों से सुख, लगे हैं। शांति व आनंद पाने की जुगत – जुगाड़ में
हम अभी भी भौतिक सुख-साधनों से पूर्ण तृप्ति पाने की लालसा पाले बैठे हैं, पर इन क्षणिक सुखों, विषय-भोगों के लिए रोना भी क्या रोना है? असली रोना तो वही है, जो हमें हमारी माँ से मिला दे, हमारे पिता से मिला दे, हमें हमारी आत्मा की ओर उन्मुख कर दे, हमें परमपिता से मिलवा दे। ऐसा रोना भी तो विरले ही रो पाते हैं।
इसलिए तो श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ने कहा है “कामिनी और कंचन, पति-पत्नी, बच्चों व धन के लिए तो सभी घड़ों आँसू बहाते हैं, पर परमात्मा के लिए भला कौन रोता है ? भगवान के लिए भला कौन रोता है ? और जो वास्तव में परमात्मा के लिए व्याकुल होकर रोता है, वह परमात्मा को पाकर रहता है।” यह सच भी है कि अब तक परमात्मा के लिए जो सच्चे मन से रो पाए, वे निहाल हो गए, वे बुद्ध हो गए, वे महावीर हो गए, वे ज्ञानी हो गए, वे ब्रह्मज्ञानी हो गए, वे आचार्य शंकर हो गए, वे संत हो गए, वे ऋषि हो गए, वे योगी और महायोगी हो गए। वे भगवान के और भगवान उनके हो गए।
निरंतर साधना व तप के प्रभाव से उनकी आत्मा पर चढ़े माया व अज्ञान के आवरण उतर गए। उनकी आत्मा में परमात्मा उतर आए और वे धन्य हो गए। वे मन, बुद्धि, इंद्रियों व देह से आबद्ध नहीं, बल्कि उनसे ऊपर हो गए और उसी अचल व स्थिर अवस्था में अपनी आत्मा में परमात्मा को देख पाए। वे स्वयं ही नहीं, औरों को भी धन्य कर गए, निहाल कर गए।
संसाररूपी मेले के क्षणिक भौतिक आकर्षणों में सुख ढूँढ़ रहे व अपने परमपिता से बिछड़े हुए हम भी अपने परमपिता को पा सकते हैं। इस संसार में ही उन्हें खोज सकते हैं। अपनी आत्मा की आँखों से उस सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, निराकार परमात्मा को हम सर्वज्ञ देख सकते हैं। हम उन्हें अपनी आत्मा में अनुभव कर सकते हैं, पर इस हेतु हमें भी चाहिए वे उदारमना ज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी बुद्धपुरुष, जिनकी उँगली पकड़कर, जिनकी प्रेरणा व मार्गदर्शन पाकर हम इस संसार में अनासक्त भाव से रहते हुए, आध्यात्मिक जीवन जीते हुए अपने परमात्मा को पा सकें। अपने सद्गुरु के मार्गदर्शन में निरंतर साधना करते हुए हम एक दिन निश्चित ही अपने भगवान को अपने अंदर ही पा सकेंगे। हम अपने पिता को पा सकेंगे और अपने परमपिता को पाकर हम भी सदा-सर्वदा के लिए आनंदित हो सकेंगे। बुद्धपुरुषों की उँगली पकड़कर चलते हुए, बुद्धपुरुषों के बताए मार्ग पर चलते हुए हम संसार के भोगों के बीच रहकर भी अभोगी रह सकेंगे, अकामी रह सकेंगे और आनंदित व परम आनंदित भी रह सकेंगे। परमात्मा पाने की हमारी व्याकुलता जितनी गहरी होती जाएगी, परमात्मा खोजने व पाने को हमारा रुदन क्रंदन जितना बढ़ता जाएगा, सांसारिक आकर्षणों व विषय-भोगों के आकर्षणों से हम उतने ही अप्रभावित होते जाएँगे। उतने दूर होते जाएँगे और अंततः देह, मन, बुद्धि व इंद्रियों से परे होकर हम अपने भीतर बैठे परमात्मा को देख सकेंगे, ब्रह्मांड के कण-कण में व्याप्त, परमात्मा को हम अनुभव कर सकेंगे। बस, इसके लिए श्रद्धा, भक्ति व धैर्य के साथ निरंतर सच्ची साधना की आवश्यकता है।