खलीफा उमर अपने गुलाम के साथ एक देहात में जा रहे थे कि एक बुढ़िया को जोर-जोर से रोते देखा। खलीफा ने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा। उसने बताया- “मेरा जवान बेटा लड़ाई में मारा गया। मैं भूखी मरती हूँ पर खलीफा को मेरा दुःख-दरद तक मालूम नहीं।”
खलीफा गुलाम को लेकर वापस लौट गए और एक बोरी गेहूँ पीठ पर लादकर बुढ़िया के यहाँ चलने लगे। रास्ते में गुलाम ने कहा – “आप बोझ मत उठाइए। बोरी मैं ले चलूँगा।” खलीफा ने कहा- “मेरे पापों का बोझ तो खुदा के घर मुझे ही ले चलना पड़ेगा। वहाँ तू थोड़े ही मेरे साथ जाएगा।” बोरी बुढ़िया के घर पहुँचाने पर बुढ़िया ने उसका नाम पूछा तो बताया- “मेरा ही नाम खलीफा उमर है।” बुढ़िया ने कहा-“अपनी प्रजा के दुःख-दरदों को अपने निजी परिवार के दुःख दरद मानकर चलने की यह भावना तुझे खलीफाओं का आदर्श बना देगी। लाखों दुआएँ तेरे लिए उठेंगी, तू अमर हो जाएगा।”
अमृत कण ( सचित्र बाल वार्ता )
युग निर्माण योजना , मथुरा