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गायत्री मंत्र के तू अक्षर की व्याख्या – आपत्तियों में धैर्यभाग १

by Akhand Jyoti Magazine

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गायत्री का पाँचवाँ अक्षर ‘तु’ आपत्तियों और कठिनाइयों में धैर्य रखने की शिक्षा देता है-

तु-तुषाराणां प्रपातेऽपि यत्नो धर्मस्तु चात्मनः

महिमा प्रतिष्ठा प्रोक्ता परिश्रमस्यहि

अर्थात-“आपत्तिग्रस्त होने पर भी प्रयत्न करना आत्मा का धर्म है। प्रयत्न की महिमा और प्रतिष्ठा अपार कही गई है ।”

मनुष्य के जीवन में विपत्तियाँ, कठिनाईयाँ, विपरीत परिस्थितियाँ, हानियाँ और कष्ट की घड़ियाँ आती ही रहती हैं । जैसे काल-चक्र के दो पहलू-काल और दिन हैं, वैसे ही संपदा और विपदा, सुख और दुःख भी जीवन रथ के दो पहिये हैं । दोनों के लिए ही मनुष्य को निस्पृह वृत्ति से तैयार रहना चाहिए । आपत्ति में छाती पीटना और संपत्ति में इतराकर तिरछा चलना, दोनों ही अनुचित हैं।

आशाओं पर तुषारपात होने की, निराशा, चिंता, भय और घबराहट उत्पन्न करने वाली स्थिति पर भी मनुष्य को अपना मस्तिष्क असुंलित नहीं होने देना चाहिए। धैर्य को स्थिर रखते हुए सजगता, बुद्धिमत्ता, शांति और दूरदर्शिता के साथ कठिनाइयों को मिटाने का प्रयत्न करना चाहिए। जो कठिन समय में भी हँसता रहता है, जो नाटक के पात्रों की तरह जीवन के खेल को खेलता है उसी की बुद्धि स्थिर मानी जा सकती है ।

समयानुसार बुरे दिन तो निकल जाते हैं, पर वे अनेक अनुभवों, गुण और सहनशक्ति का उपहार दे जाते हैं। कठिनाइयाँ मनुष्य को जितना सिखाती हैं, उतना दस गुरु मिलकर भी नहीं सिखा सकते । संचित प्रारब्ध भोगों का बोझ भी उन आपत्तियों के साथ उतर जाता है । आपत्तियाँ हमारे विवेक और पुरुषार्थ को चुनौती देने आती हैं, और जो उस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है उसी के गले में कीर्ति और प्रतिष्ठा की जयमाला पहनाई जाती है।

इसलिए मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह भूतकाल से अभिज्ञ, वर्तमान के प्रति सजग और भविष्य के प्रति निर्भय रहे । मनुष्य को अच्छी से अच्छी आशा करनी चाहिए, किंतु बुरी से बुरी परिस्थितियों के लिए तैयार भी रहना चाहिए । मानसिक संतुलन संपत्ति या विपत्ति किसी भी दशा नहीं बिगड़ने देना चाहिए। वर्तमान की अपेक्षा उत्तम दशा में पहुँचने का पूर्ण प्रयत्न करना तो आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, परंतु कठिनाइयों से घबरा जाना उसके गौरव की दृष्टि से अनुपयुक्त है ।

आपत्तियों से डरना व्यर्थ है?

मनुष्य जीवन में दु:ख और कठिनाइयों का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान कठिनाइयों के आघातों में ही प्रगति का विधान छिपा हुआ है। यदि सदा केवल सरलता और अनुकूलता ही रहे तो चैतन्यता घटती जाएगी और मनुष्य शनैः शनै आलसी और अकर्मण्य बनने लगेगा, उसके मन: क्षेत्र में एक प्रकार का अवसाद उत्पन्न हो जाएगा, जिसके कारण उन्नति, अन्वेषण, आविष्कार और महत्त्वाकांक्षाओं का मार्ग अवरुद्ध हुए बिना न रहेगा। जब दुःख की अनुभूति न हो, तब सुख में कोई आनंद नहीं मिल सकता। रात न हो सदैव दिन ही रहे तो उस दिन से किसे क्या आनंद मिलेगा? यदि नमक, मिर्च, कडुआ, कसैला स्वाद न हो और केवल मीठा ही मीठा सदा खाने को मिले तो वह मधुरता एक भार बन जाएगी। इसी प्रकार सुख में आनंद का आस्वादन होना तभी संभव है जब दुःख का पुट साथ-साथ में हो। दुःख हम बुरा कहते हैं पर वस्तुत: वही प्रगति का वास्तविक केंद्र है ।

संसार में जितने महापुरुष हुए हैं, उनकी महानता, यश एवं प्रतिष्ठा का कारण उनकी कष्ट सहिष्णुता हुई है । राजा हरिश्चंद्र यदि चांडाल (डोम) के हाथों न बिके होते कोई उनका नाम भी न जानता होता। दधीचि, शिवि, प्रह्लाद, मोरध्वज, सीता, दमयंती, द्रोपदी, कुंती आदि के जीवन में यदि कठिनाई न आती, वे लोग ऐश्वर्य से जीवन बिताते रहते तो उनकी महानता का कोई कारण शेष न रहता । दुर्गम पर्वतों पर उगने वाले वृक्ष ही विशाल आकार के और दीर्घजीवी होते हैं, जो फुलवारी नित्य सींची जाती है, वह कुछ ही दिन में मुरझाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती है। जो व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र परिश्रमी और कष्ट सहिष्णु होता है वही विजय और उन्नति का वरण करता है। इतिहास बताता है कि जो जातियाँ सुखोपभोग में डूबीं, वे थोड़े ही समय में हतप्रभ होकर दीनता और दासता के गर्त में गिर पड़ीं।

हमारे पूर्वज कष्ट सहिष्णुता के महान लाभों से भली प्रकार परिचित थे इसलिए उन्होंने उसके अभ्यास को जीवन व्यवस्था में प्रमुख स्थान दिया था। तितिक्षा और तपश्चर्या के कार्यक्रम के अनुसार वे दु:खों से लड़ने का वैसा ही पूर्वाभ्यास करते थे जैसे युद्ध स्थल में लड़ने से पूर्व फौजी जवान को बहुत दिन तक युद्ध कौशल की शिक्षा प्राप्त करनी होती है। राजा-रईसों के बालक भी प्राचीन काल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऋषियों के गुरुकुलों में जाया करते थे और कठोर श्रमजीवी दिनचर्या को अपनाकर विद्याध्ययन करते थे। जैसे जलाशय को पार करने का अवसर मिलने पर तैराक को बड़ा उत्साह और आनंद होता है वैसे ही कष्ट सहिष्णु जीवन के अभ्यासी को नाना प्रकार की उलझनों और आपत्तियों को पार करने में अपने पौरुष और गौरव के विकास का उत्साहवर्द्धक अवसर दिखाई पड़ता है। इसके विपरीत जो लोग केवल सुख को चाहते हैं वे अति सामान्य – रोजमर्रा के जीवन में आती रहने वाली घटनाओं से भी ऐसी घबराहट, चिंता, बेचैनी और पीड़ा अनुभव करते हैं मानो उनके सिर पर कोई भारी वज्र टूट पड़ा हो।

कठिनाइयाँ हर मनुष्य के जीवन में आती हैं, उनका आना अनिवार्य और आवश्यक है। प्रारब्ध कर्मों के भोग के बोझ को उतारने के ही लिए नहीं वरन मनुष्य की मनोभूमि और अंतरात्मा को सुदृढ़, तीक्ष्ण, पवित्र, प्रगतिशील, अनुभवी और विकसित करने के लिए भी कष्टों एवं आपत्तियों की भारी आवश्यकता है। जैसे भगवान मनुष्य को दया करके नाना प्रकार के उपहार दिया करते हैं, वैसे ही वे दुःख और आपत्तियों का भी आयोजन करते हैं, जिससे मनुष्य का अज्ञान, अहंकार, आलस्य, अपवित्रता और व्यामोह नष्ट हो।

कठिनाइयाँ आने पर हतप्रभ, किंकर्त्तव्यविमूढ़ या कायर हो जाना और हाथ-पैर फुलाकर रोना-झींकना शुरू कर देना, अपने को या दूसरों को कोसना सर्वथा अनुचित है। यह तो भगवान की उस महान कृपा का तिरस्कार करना हुआ। में प्रमुख स्थान ही सुख कार तो कठिनाई कुछ लाभ न दे सकेगी वरन उलटे निराशा, कायरता, अवसाद, दीनता आदि का कारण बन जाएगी। कठिनाई देखकर डर जाना, प्रयत्न छोड़ बैठना, चिंता और शोक करना किसी सच्चे मनुष्य को शोभा नहीं देता। आपत्ति एक प्रकार से हमारे पुरुषार्थ की ईश्वरीय चुनौती है। जिसे स्वीकार करके ही हम प्रभु के प्रिय बन सकते हैं। अखाड़े के उस्ताद पहलवान नौसिखिए पहलवानों को कुश्ती लड़ना सिखाते हैं तो उन्हें पटक मार-मार कर दाव-पेच सिखाते हैं। नौसिखिए लोग पटक खाकर शोक संतप्त नहीं हो जाते वरन अपनी भूल को समझकर फिर उस्ताद से लड़ते हैं और धीरे-धीरे पूरे एवं पक्के पहलवान बन जाते हैं । ईश्वर ऐसा ही उस्ताद है जो आपत्तियों की पटक मार-मार कर हमारी अनेक अपूर्णताएँ दूर करके पूर्णता तक पहुँचाने की महान कृपा करता है।

कठिनाइयों से डरने या घबराने की कोई बात नहीं, वह तो इस सृष्टि का एक उपयोगी, आवश्यक एवं सार्वभौम विधान है । उनसे न तो दुखी होने की जरूरत है, न घबराने की और न किसी पर दोषारोपण करने की। हाँ, हर आपत्ति के बाद नए साहस और नए उत्साह के साथ उस परिस्थिति से लड़ने की और प्रतिकूलता को हटाकर अनुकूलता उत्पन्न करने के लिए प्रयत्नशीलता की आवश्यकता है। यह प्रयत्न आत्मा का धर्म है, इस धर्म को छोड़ने का अर्थ अपने को अधर्मी बनाना है । प्रयत्न की महिमा अपार है। आपत्ति द्वारा जो दुःख सहना पड़ता है उसकी अपेक्षा उसे विशेष समय में विशेष रूप से प्रयत्न करने का जो स्वर्ण अवसर मिला उसका महत्त्व अधिक है।  प्रयत्नशीलता ही आत्मोन्नति का प्रधान साधन है जिसे आपत्तियाँ तीव्र गति से बढ़ाती हैं। प्रयत्न, परिश्रम एवं कर्त्तव्यपालन से मनुष्य के गौरव एवं वैभव का विकास होता है। जो आनंदमय जीवन का रसास्वादन करना चाहता है। उसे कठिनाइयों से निर्भय होकर अपने कर्त्तव्य पथ पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ हो जाना चाहिए और हँसते हुए हर स्थिति का मुकाबला करना चाहिए।

कठिनाइयों द्वारा आध्यात्मिक विकास

मनुष्य का आध्यात्मिक विकास सदा कठिनाइयों से लड़ते रहने से होता है। जो व्यक्ति जितना ही कठिनाइयों से भागता है, वह उतना ही अपने आप को निकम्मा बनाता है और जो उन्हें जितना ही आमंत्रित करता है, वह अपने आप को उतना ही योग्य बनाता है। मनुष्य जीवन की सफलता उसकी इच्छाशक्ति के बल पर निर्भर करती है । जो व्यक्ति जितना ही यह बल रखता है, वह जीवन में उतना ही सफल होता है। इच्छाशक्ति का बल बढ़ाने के लिए सदा कठिनाइयों से लड़ते रहना आवश्यक है। जिस व्यक्ति को कठिनाइयों से लड़ने का अभ्यास रहता है वह नई कठिनाइयों के सामने आने से भयभीत नहीं होता, वह उनका जमकर सामना करता है। कायरता की मनोवृत्ति ही मनुष्य के लिए अधिक दुःखों का कारण होती है। शूरवीर की मनोवृत्ति ही दुःखों का अंत करती है। निर्बल मन का व्यक्ति सदा अभद्र कल्पनाएँ अपने मन में लाता है उसके मन में भली कल्पनाएँ नहीं आतीं। वह अपने आप को चारों ओर से आपत्तियों से घिरा पाता है। अतएव अपने जीवन को सुखी बनाने का सर्वोत्तम उपाय कठिनाइयों से लड़ने के लिए सदा तत्पर रहना ही है ।

मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः

मनुष्य की कठिनाइयाँ दो प्रकार की होती हैं- एक बाहरी और दूसरी आंतरिक अर्थात भीतरी। साधारण मनुष्य की दृष्टि बाहरी कठिनाइयों की ओर ही जाती है, बिरले ही मनुष्य की दृष्टि भीतरी कठिनाइयों को देखने की क्षमता रखती है। पर वास्तव में मनुष्य की सच्ची कठिनाइयाँ आंतरिक हैं, बाहरी कठिनाइयाँ आंतरिक कठिनाइयों का आरोपण मात्र हैं। किसी भी प्रकार की परिस्थिति मनुष्य को लाभ अथवा हानि पहुँचा सकती है। अनुकूल परिस्थिति बुराई का काम कर सकती है और प्रतिकूल भलाई का। जो परिस्थिति मनुष्य को भयभीत करती है, वही वास्तव में उसकी हानि करती है। यदि परिस्थिति कठिन हुईं और उससे मनुष्य भयभीत न हुआ तो वह मनुष्य की हानि न कर उसका लाभ ही करती है ।

मनुष्य का मन आंतरिक चिंतन से बली होता है । जिस व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का पूरा निश्चय है, जो उसको पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व खोने के लिए तैयार रहता है उसे कोई भी परिस्थिति भयभीत नहीं करती। मनुष्य के मन में अपार शक्ति है। वह जितनी शक्ति की आवश्यकता अनुभव करता है उतनी शक्ति उसे अपने ही भीतर से ही मिल जाती है । जो व्यक्ति अपने आप को कर्त्तव्य दृष्टि से भारी संकटों में डालता रहता है, वह अपने भीतर अपार शक्ति की अनुभूति भी करने लगता है। उसे अपने संकटों को पार करने के लिए असाधारण शक्ति भी मिल जाती है । जैसे-जैसे उसकी इस प्रकार की आतरिक शक्ति की अनुभूति बढ़ती है उसकी कार्यक्षमता भी बढ़ती है।

जब कभी कोई मनुष्य अपने आप को कठिनाइयों में पड़े हुए पाता है तो उसे अपने कर्त्तव्य का ध्यान नहीं रहता । कर्त्तव्य का ध्यान न रखने पर वह बाहरी कठिनाइयों से घिर जाता है। कठिनाई में पड़े हुए व्यक्ति के कर्त्तव्य संबंधी विचार उलझे हुए रहते हैं। यदि किसी व्यक्ति की आंतरिक कठिनाइयाँ सुलझ जाएँ तो उसकी बाहरी कठिनाइयाँ भी सरलता से सुलझ जाएँगी। बाहरी और भीतरी कठिनाइयाँ एकदूसरे की सापेक्ष हैं। मनुष्य को अपने आप का ज्ञान बाहरी कठिनाइयाँ से लड़ने से होता है और जैसे-जैसे उसे अधिकाधिक ज्ञान होता है, वह बाहरी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने में भी समर्थ होता है।

प्रत्येक कठिनाई से भय की अनुभूति करने वाले व्यक्ति के मन में मानसिक अंतर्द्वंद की स्थिति बनी रहती है । इस अंतर्द्वंद के कारण मनुष्य की मानसिक शक्ति का एकीकरण नहीं होता आपस में बँटवारा होने के कारण-व्यर्थ की लड़ाई हो जाने के कारण मनुष्य का मन निर्बल हो जाता है। ऐसी अवस्था में जब कोई बाहरी भारी कठिनाई उसके सामने आ जाती है तो वह अपनी मानसिक शक्ति को बटोर नहीं पाता और उससे भयाक्रांत हो जाता है। जिस प्रकार आतरिक संघर्ष में उलझा रहने वाला राष्ट्र उसी प्रकार म्नसिक अंतर्द्वद वाले व्यक्ति जमकर बाह्य कठिनाइयों का सामना करें तो उनके आंतरिक मन में शांति प्राप्त हो जाए । निकम्मा मन ही शैतान की क्रियाशाला होता है। बाहरी कठिनाइयों के हल करने के प्रयत्न में अनेक कठिनाइयाँ अपने आप ही हल हो जाती हैं ।

साधारणत: जो काम मनुष्य के हाथ में आ जाए और जिससे न केवल अपना ही लाभ हो वरन दूसरे का भी लाभ हो उसे छोड़े न। वह काम पूरा करने के लिए जो त्याग और कष्ट सहने की आवश्यकता हो उसे सहे। यदि वह अपना अभ्यास इस तरह बना ले तो वह देखेगा कि उसे धीरे-धीरे ठोस आध्यात्मिक ज्ञान होता जाता है। जो ज्ञान मनुष्य को दार्शनिक चिंतन से नहीं आता वही ज्ञान उसे अपनी परिस्थितियों से लड़ने निर्बल होता है और बाहरी आपत्तियों का आवाहन करता है से आ जाता है। जो मानसिक एकता और शांति राग – भोग से नहीं आती वही कठिनाइयों से लड़ने से अपने आप आ जाती है । कठिनाइयों से लड़ते रहना न केवल अपने जीवन को सफल बनाने के लिए आवश्यक है वरन दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक है । जिस प्रकार मनुष्य के दुर्गुण संक्रामक होते हैं उसी प्रकार सद्गुण भी संक्रामक होते हैं। एक कायर को रण से भागते देखकर दूसरे सैनिक भी रण से भाग पड़ते हैं और एक को रण में जमकर लड़ते देखकर दूसरे व्यक्ति भी हिम्मत नहीं छोड़ते। उनके भीतर भी वीरता का भाव जाग्रत हो जाता है । सभी मनुष्यों में सभी प्रकार के दुर्गुणों और सद्गुणों की भावना रहती है । मनुष्य जिस प्रकार के वातावरण में रहता है उसमें उसी प्रकार के मानसिक गुणों का आविर्भाव होता है। वीर पुरुष का चरित्र ही दूसरे लोगों के लिए शिक्षा है। यही उसकी समाज को सबसे बड़ी देन होती है ।

लेखक : पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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