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पारिवारिक कलह के निवारण

by Akhand Jyoti Magazine

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बहुसंख्यक परिवारों में सास बहू के झगड़े चल रहे हैं। इसके अनेक कारण हैं। सास बहू को अपने नियन्त्रण में रखकर शासन करना चाहती है। अपनी आज्ञानुसार उससे कार्य कराना चाहती है। कभी-कभी वह अपने पुत्र को बहका कर बहू की मरम्मत कराती है। प्रायः देखा गया है कि जहां कोई पुरुष स्त्री को कष्ट देता है, तो उसके मध्य में अवश्य कोई स्त्री—सास, ननद या जिठानी रहती है। स्त्रियों में ईर्ष्या भाव अत्यधिक होता है। बहू का व्यक्तित्व प्रायः लुप्त हो जाता है तथा उसे रौरव नर्क की यन्त्रणाएं सहन करनी पड़ती हैं।
कहीं पर पति बहू के इंगित पर नृत्य करता है और उसके भड़काये से वृद्धा सास पर अत्याचार करता है। वृद्धा से कठिन कार्य करवाया जाता है वह धुंए में परिवार के निमित्त भोजन व्यवस्था करती है जबकि बहू सिनेमा देखने या टहलने के लिए जाती है।
ये दोनों ही सीमाएं निंद्य हैं। सास बहू के सम्बन्ध पवित्र हैं। सास स्वयं बहू को देखने के लिये लालायित रहती है। उसके लिये वह दिन बड़े गौरव का होता है जब घर बहू रानी के पदार्पण से पवित्र होता है। उसे उदार, स्नेही, बड़प्पन से परिपूर्ण होना चाहिए। बहू की सहायता तथा पथ प्रदर्शन के लिए कार्य करना चाहिए। छोटी-मोटी भूलों को सहृदयता से माफ कर देना चाहिए इसी प्रकार बहू को सास में अपनी माता के दर्शन करने चाहिए और उनकी वही प्रतिष्ठा करनी चाहिये जो वह अपनी माता की करती रही है। यदि पुरुष माता को माता के स्थान पर पूज्य माने, और पत्नी को पत्नी के स्थान पर जीवन सहचरी मिष्ठभाषणी प्रियतमा माने तो ऐसे संकुचित झगड़े बहुत कम उत्पन्न होंगे।
ऐसे झगड़ों में पुत्र का कर्त्तव्य बड़ा कठिन है। उसे माता की मान-प्रतिष्ठा का ध्यान और पत्नी के गर्व तथा प्रेम की रक्षा करनी है। अतः उसे पूर्ण शान्ति और सुहृदयता से कर्त्तव्य भावना को सामने रखकर ऐसे झगड़ों को शान्त करना उचित है। किसी को भी अनुचित रीति से दबा कर मानहानि न करनी चाहिये। यदि पति कठोर, उग्र, लड़ने वाले स्वभाव का है, तो पारिवारिक शान्ति और समृद्धि भंग हो जायगी। प्रेम और सहानुभूति से दूसरों के दृष्टिकोण को समझ कर बुद्धिमत्ता से अग्रसर होना चाहिए।
ननद भौजाई के झगड़े—
प्रायः देखा जाता है कि जहां ननदें अधिक होती हैं, या विधवा होने के कारण मायके में रहती हैं, वहां बहू पर बहुत अत्याचार होते हैं। ननद भाभी के विरुद्ध अपनी माता के कान भरती है और भाई को भड़काती है। इसका कारण यह है कि बहिन भाई पर अपना पूर्ण अधिकार समझती है और अपने गर्व, अहं और व्यक्तित्व को अन्यों से ऊपर रखना चाहती है। भाई यदि अदूरदर्शी होता है, तो बहिन की बातों में आ जाता है, और बहू अत्याचार का शिकार बनती है।
इन झगड़ों में पति को चाहिये कि पृथक-पृथक अपनी बहिन और पत्नी को समझा दे और दोनों के स्वत्व तथा अहंकार की पूर्ण रक्षा करे। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से दोनों का अध्ययन कर परस्पर मेल करा देना ही उचित है। मेल कराने के अवसरों की ताक में रहना चाहिये। दोनों को परस्पर मिलने बैठने साथ-साथ टहलने जाने, एक सी दिलचस्पी विकसित करने का अवसर प्रदान करना उचित है। यह नहीं होना चाहिये कि पत्नी ही दोनों समय भोजन बनाती, झूठे बर्तन साफ करती, जिठानी के बच्चों को नहलाती-धुलाती, आटा पीसती, कपड़े धोती, दूध पिलाती या झाडू-बुहारी का काम करती रहे। चतुर पति को चाहिए कि काम का बंटवारा करदे। पत्नी को कम काम मिलना चाहिये क्योंकि उसके पास बच्चे भी पालने के लिये हैं। यदि कोई बीमार पड़ेगा, तो उसे उसका कार्य भी करना होगा।
वृद्धों का चिड़चिड़ापन और परिवार के अन्य व्यक्ति—
प्रायः देखा गया है कि आयु वृद्धि के साथ-साथ वृद्ध चिड़चिड़े, नाराज होने वाले, सनकी, क्रोधी और सठिया जाते हैं। वे तनिक सी असावधानी से नाराज हो जाते हैं और कभी-कभी अपशब्दों का भी उच्चारण कर बैठते हैं। ऐसे वृद्ध क्रोध के नहीं, हमारी दया और सहानुभूति के पात्र हैं। वे अज्ञान में हैं और हमें उनके साथ वही आचरण करना उचित है, जैसा बच्चों के साथ। उनकी विवेकशील योजनाओं तथा अनुभव से लाभ उठाना चाहिए और उनकी मूर्खताओं को उदारता पूर्वक क्षमा करना चाहिये।
वृद्धों को परिवार के अन्य व्यक्तियों के प्रेम और सहयोग की आवश्यकता है। हमें उनसे प्रीति करना, जितना हो आज्ञा पालन, प्रतिष्ठा उनके स्वास्थ्य का संरक्षण ही उचित है। खाने के लिये, कपड़ों के लिये तथा थोड़े से आराम के लिये वह परिवार के अन्य व्यक्तियों की सहानुभूति की आकांक्षा करता है। उसने अपने यौवन काल में परिवार के लिए जो श्रम और बलिदान किये हैं, अब उसी त्याग का बदला हमें अधिक से अधिक देना उचित है।
परिवार के संचालन की कुंजी उत्तम संगठन है। प्रत्येक व्यक्ति यदि सामूहिक उन्नति में सहयोग प्रदान करे, अपने श्रम से अर्थ संग्रह करे, दूसरों की उन्नति में सहयोग प्रदान करे, सबके लिये अपने व्यक्तिगत स्वार्थों का बलिदान करता रहे, तो बहुत कार्य हो सकता है।
स्वस्थ दृष्टिकोण—
दूसरों के लिये कार्य करना, अपने स्वार्थों को तिलांजलि देकर दूसरों को आराम पहुंचाना सृष्टि का यही नियम है। कृषक हमारे निमित्त अनाज उत्पन्न करता है, जुलाहा वस्त्र बुनता है, दर्जी कपड़े सीता है, राजा हमारी रक्षा करता है। हम सब अकेले काम नहीं कर सकते। मानव जाति में पुरातन काल से पारस्परिक लेन देन चला आ रहा है। परिवार में प्रत्येक सदस्य को इस त्याग, प्रेम, सहानुभूति की नितान्त आवश्यकता है। जितने सदस्य हैं सबको आप प्रेम-सूत्र में आबद्ध कर लीजिये। प्रत्येक का सहयोग प्राप्त कीजिये प्यार से उनका संगठन कीजिए।
इस दृष्टिकोण को अपनाने से छोटे बड़े सभी झगड़े नष्ट होते हैं। अक्सर छोटे बच्चों की लड़ाई बढ़ते-बढ़ते बड़ों को दो हिस्सों में परिवर्तन कर देती है। पड़ौसियों में बच्चों की लड़ाइयों के कारण युद्ध ठन उठता है। स्कूल में बच्चों की लड़ाई घरों में घुसती है। कलह बढ़ कर मार-पीट और मुकदमेबाजी की नौबत आती है। उन सबके मूल में संकुचित वृत्ति, स्वार्थ की कालिमा, व्यर्थ वितंडावाद, दुरभिसन्धि इत्यादि दुर्गुण सम्मिलित हैं।
हम मन में मैल लिए फिरते हैं और इस मानसिक विष को प्रकट करने के लिए अवसरों की प्रतीक्षा में रहते हैं। झगड़ालू व्यक्ति जरा-जरा सी बातों में झगड़ों के लिये अवसर ढूंढ़ा करते हैं। परिवार में कोई न कोई ऐसा झगड़ालू व्यक्ति, जिद्दी बच्चा होना साधारण सी बात है। इन सबको भी विस्तृत और सहानुभूति दृष्टिकोण से ही निरखना चाहिये।
तुम्हें एक दूसरे के भावों, दिलचस्पी, रुचि, दृष्टिकोण, स्वभाव, आयु का ध्यान रखना अपेक्षित है। किसी को वृथा सताना या अधिक कार्य लेना बुरा है। उद्धत स्वभाव का परित्याग कर प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। कुटिल व्यवहारों के दोषों से जैसा अपना आदमी पराया हो जाता है, अविश्वासी और कठोर बन जाता है, वैसे ही मृदुल व्यवहार से कट्टर शत्रु भी मित्र हो जाता है।
विश्व में साम्यवाद की अवतारणा के लिये परिवार ही से श्रीगणेश करना उचित है। न्याय से मुखिया को समान व्यवहार करना चाहिये।
परिवार के युवक तथा उनकी समस्याएं—
प्रायः युवक स्वच्छन्द प्रकृति के होते हैं और परिवार के नियन्त्रण में नहीं रहना चाहते। वे उच्छृंखल प्रकृति, पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित, हलके रोमांस से वशीभूत पारिवारिक संगठन से दूर भागना चाहते हैं। यह बड़े परिताप का विषय है।
युवकों के झगड़ों के कारण ये हैं—(1) अशिक्षा, (2) कमाई का अभाव, (3) प्रेम सम्बन्धी अड़चनें, घर के सदस्यों का पुरानापन और युवकों की उन्मुक्त प्रकृति, (4) कुसंग, (5) पत्नी का स्वच्छन्द प्रिय होना तथा पृथक घर में रहने की आकांक्षा, (6) विचार संबंधी पृथकता—पिता का पुरानी धारा के अनुकूल चलना पुत्र को अपने अधिकारों पर जमे रहना, (7) जायदाद सम्बन्धी बटवारे के झगड़े। इन पर पृथक-पृथक विचार करना चाहिए।
यदि युवक समझदार और कर्त्तव्यशील है, तो झगड़ों का प्रसंग ही उपस्थित न होगा। अशिक्षित अपरिपक्व युवक ही आवेश में आकर बहक जाते हैं और झगड़े कर बैठते हैं। एक पूर्ण शिक्षित युवक कभी पारिवारिक विद्वेष या कलह में भाग न लेगा उसका विकसित मस्तिष्क इन सबसे ऊंचा उठ जाता है। वह जहां अपना अपमान देखता है, वहां स्वयं ही हाथ नहीं डालता।
कमाई का अभाव झगड़ों का एक बड़ा कारण है। निखट्टू पुत्र परिवार में सबकी आलोचना का शिकार होता है। परिवार के सभी सदस्य उससे यह आशा करते हैं कि परिवार की आर्थिक व्यवस्था में हाथ बंटाएगा। जो युवक किसी पेशे व्यवसाय के लिये प्रारम्भिक तैयारी नहीं करते, वे समाज में फिट नहीं हो पाते। हमें चाहिए कि प्रारम्भ से ही घर के युवकों के लिए काम तलाश कर लें जिससे बाद में जीवन-प्रवेश करते समय कोई कठिनाई उपस्थित न हो। संसार कर्मक्षेत्र है। यहां हम में से प्रत्येक को अपना कार्य समझना तथा उसे पूर्ण करना है। हममें जो प्रतिभा, बुद्धि, अज्ञात शक्तियां हैं, उन्हें विकसित कर समाज के लिए उपयोगी बनाना चाहिये।
प्रतिभा की वृद्धि कीजिए। आपको नौकरी, रुपया, पैसा, प्रतिष्ठा और आत्म सम्मान प्राप्त होगा। उसके अभाव में आप निखट्टू बने रहेंगे। प्रतिभा आपके दीर्घकालीन अभ्यास, सतत परिश्रम, अध्यवसाय, उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर है। प्रतिभा हम अभ्यास और साधन से प्राप्त करते हैं। मनुष्य की प्रतिभा स्वयं उसी के संचित कर्मों का फल है। अवसर को हाथ से न जाने दें, प्रत्येक अवसर का सुन्दर उपयोग करें और दृढ़ता, आशा और धीरता के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होते जायं। स्व संस्कार का कार्य इसी तरह सम्पन्न होगा।
कुसंग का भयानक प्रभाव—
कुसंग में रहकर युवक परिवार से छूट जाता है। ये कुसंग बड़े आकर्षण रूप में उसके सम्मुख आते हैं—मित्रों, सिनेमा, थियेटर, वैश्या, गन्दा साहित्य, गर्हित चित्र, मद्यपान, सिगरेट तथा अन्य उत्तेजित पदार्थ। ये सभी प्रत्यक्ष विष के समान हैं, जिनके स्पर्श मात्र से मनुष्य पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। इनकी कल्पना मन में करना सर्वथा विनाशकारी है। बड़े सावधान रहें।
जिनकी आत्मा अपनी इन्द्रियों के विषयों खान-पान चटकीले वस्त्र, दिखावा, विलासप्रियता, श्रृंगार, झूठी शान, बचपन की रंगरेलियां, सिनेमा की अभिनेत्रियों के जीवन या सामाजिक विकारों में ही लिप्त हैं, जिनका हृदय नीच आशाओं में लगा रहता है और स्वार्थ, क्रोध, ईर्ष्या, मोह, दगाबाजी, बेईमानी के कलुषित विचारों में रमा हुआ है, ऐसी नशोन्मुख आत्माओं के अवलोक कर कौन पश्चाताप न करेगा?
ऐसी विनाशकारी वृत्ति का एक उदाहरण पं. रामचन्द्र शुक्ल ने दिया है। आपने मकदूनिया के बादशाह डेमेट्रियस के विषय में लिखते हुए निर्देश किया है कि वह कभी-कभी राज्य का सब काम काज त्याग कर अपने ही मेल के दस-पांच साथियों को लेकर विषय वासना में लिप्त रहा करता था। एक बार बीमारी का बहाना करके, वह इसी प्रकार अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिये गया। उसने एक हंसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते हुए देखा। जब पिता कोठरी के बाहर निकला, तब डेमेट्रियस ने कहा—‘‘ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।’’ पिता ने उत्तर दिया, ‘‘हां! ठीक है, वह दरवाजे पर मुझे मिला था।’’
कुसंग का ज्वर ऐसा ही भयानक होता है। एक बार युवक इसके पंजे में फंस कर मुक्त नहीं हो पाता। अतः प्रत्येक युवक को अपने मित्रों, स्थानों, दिलचस्पियों, पुस्तकों इत्यादि का चुनाव बड़ी सतर्कता से करना चाहिए।

-पंडित श्रीराम शर्मा
पारिवारिक जीवन की समस्यायें

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