जिस तरह नदियों की उलझती लहरों में कभी भी यह नहीं देखा जा सकता कि उनकी तलहटी में क्या-क्या छिपा है, उसी तरह वाचाल व्यक्ति भी अपने मन के अंदर छिपी पड़ी शक्तियों व क्षमताओं से अनभिज्ञ रहता है। जिस तरह शांत नदी के अंदर का जल इतना स्वच्छ व पारदर्शी होता है कि उसके जल में रहने वाली मछलियों, सीप, शंख, कंकड़-पत्थर आदि को आसानी से देखा जा सकता है, उसी प्रकार शांत मन भी व्यक्ति के सामने अपने विशाल छिपे हुए जखीरे को प्रकट करने लगता है।
मौन की महिमा अपरंपार है। मौन इंद्रियसंयम का सर्वोपरि साधन है। महाभारत का लेखन समाप्त होने पर कृष्ण द्वैपायन व्यास ने श्रीगणेश जी से कहा था- “मेरा बोलना अकथ था, किंतु आप मौन में अवस्थित होकर धैर्यपूर्वक लेखन कार्य में निमग्न रहते थे। आपको धन्यवाद; क्योंकि ऐसा वाणी का संयम अप्रतिम है।” इस पर श्रीगणेश ने उत्तर दिया-“मूल ऊर्जा तो प्राण है प्राण ही समस्त इंद्रियों को चैतन्य करने वाला चिन्मय पीयूष है। उसका अनावश्यक क्षरण महापातक है। वाणी का संयम साथ लेने से अन्य इंद्रियों का संयम भी स्वतः सघ जाता है।” श्रीगणेश ने फिर आगे कहा-” अधिक बोलने वाले व्यक्ति के मुख से कभी-कभी अवांछित शब्द भी निकल जाते हैं। इसका कुफल इंद्रियों को भोगना पड़ता है। आप मेरे इस गुण पर मुग्ध हैं तो यहमेरे उपास्य देवता बचोगुप्ति (मौन) का ही कृपाप्रसाद है।” इसलिए इंद्रियसंयम में वाणी का संयम प्रमुख है।
अनावश्यक बोलने में जितनी गलतफहमियों और समस्याएँ पैदा होती हैं, उतनी मौन से नहीं होतीं। निरर्थक बोलना बहुत थकाने वाली प्रक्रिया है। इससे शरीर में गरमी पैदा होती है जब लोग इतने पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी नहीं थे, तब कम बोलते थे और ज्यादा प्रामाणिक थे जो सच्चा भाव होता था, उसे ही कहा करते थे। आज शरीर उष्णता बढ़ने का एक कारण यह भी है कि निरर्थक बोलना और जरूरत से ज्यादा बोलना।
आध्यात्मिक जीवन में रुझान रखने वाले लोग अपनी दिनचर्या में मौन को शामिल करते हैं। मौन के समय वे पूरी तरह से शांतचित्त और प्रतिक्रियाओं से रहित रहते हैं। सामान्य जीवन में ऐसे मौन का पालन करना संभव नहीं हो पाता, इसलिए यदि जीवन में मौन का अभ्यास करना है तो इस बात का ध्यान रखें कि जितना आवश्यक है, उतना ही बोलें, और बाकी समय मन को यथासंभव शांत रखें। यदि व्यक्ति अपने बोले जाने वाले शब्दों पर ध्यान दे तो उसे इस बात का एहसास होगा कि उसके वार्तालाप में ऐसे बहुत सारे शब्द हैं, जो निरर्थक हैं। इसलिए बोलने से पहले सोचें कि क्या यह कहना जरूरी है या इससे कम शब्दों में काम चल जाएगा? इससे धीरे-धीरे शरीर व मन में ऊर्जा का संचय होगा।
जब हम मौन धारण करते हैं तो सहज ही प्रकृति का अंश बन जाते हैं क्योंकि प्रकृति में तो सर्वत्र मौन पसरा हुआ है और मौन रहकर प्रकृति निरंतर प्रतिपल गतिशील है, उसमें जरा सा भी ठहराव नहीं है। आचार्य विनोबा कहते थे-“मौन और एकांत आत्मा के सर्वोपरि मित्र हैं।” मौन के बाहर की दुनिया, मन की दुनिया है जबकि मौन की दुनिया, आत्मा की और प्रकृति के रहस्यों को दुनिया है। संसार में जितने भी तत्त्वज्ञानी हुए हैं, सभी मौन के साधक रहे हैं। महावीर, तथागत बुद्ध, ईसा, मूसा, जरथुस्त्र आदि लोगों ने आध्यात्मिक ऊर्जा मौन से ही प्राप्त की थी।
महात्मा गांधी भी अपनी दिनचर्या में मौन रहने का नियमित अभ्यास करते थे और इसके प्रभाव से बहुत प्रभावित थे। इसलिए सोमवार उनके आश्रम में ‘मौनवार के नाम से जाना जाता था। इस दिन सारे आश्रमवासी मौन रहते। महात्मा गांधी जी के लिए मौन एक प्रार्थना के समान था, जो उनके लिए आध्यात्मिक सुख लेकर आता था। उनका कहना था-“बोलना सुंदर कला है, लेकिन मौन इससे भी ऊँची कला है। मौन सर्वोत्तम भाषण है। अगर एक शब्द से काम चले, तो दो मत बोलो।” संत एमर्सन का कहना था-“आओ हम मौन रहें, ताकि • फरिश्तों की कानाफूसियाँ सुन सकें।” भगवान बुद्ध जब सत्य की खोज के लिए निकल पड़े तो वर्षों तक उन्होंने तरह-तरह की साधनाएँ व उपाय किए, किंतु सत्य नहीं मिला। अंततः वह मौन के सरोवर में डूबे और उन्होंने सत्य का मोती पा लिया। बाद में बुद्ध के अनुयायियों ने जब उनसे परमात्मा के संबंध में प्रश्न किया तो यह ‘मौन’ ही उनका उत्तर था।।
मौन आत्मा का सर्वोत्तम मित्र है, इसलिए मौन रहने पर ही हम अपने सबसे करीब होते हैं, अंतर्मुखी होते हैं और बोलने पर बहिर्मुखी हो जाते हैं। मौन के पलों में हम स्वयं से संवाद कर पाते हैं; जबकि बोलने में हम दूसरों से संवाद करते हैं। हम जिस दौड़-भाग का जीवन जी रहे हैं, वहाँ भी इसकी महत्ता निर्विवाद है। इसलिए महान चिंतक बेकन ने इसे व्यस्तता के बीच की निद्रा माना है, जो ज्ञान में नई स्फूर्ति पैदा करती है। एक महान विचारक ने कहा है-
“वार्तालाप भले ही बुद्धि को मूल्यवान बनाता हो, किंतु मौन प्रतिभा की पाठशाला है।”
कुछ लोगों का कहना है कि हम मौन रह ही नहीं सकते, हमें मौन रहने से घुटन होती है, घबराहट होती है। उनसे भी यही कहना है कि वे अपने जीवन में थोड़ा बहुत मौन का अभ्यास करना सीखें; क्योंकि यहीं एकमात्र वह रास्ता है कि जिससे हम स्वयं को जान सकते हैं। इसलिए सभी को अपने जीवन में मौन का अभ्यास करना चाहिए। इससे बहुत सारे फायदे प्रत्यक्ष होंगे। सबसे पहले वाद-विवाद थमेंगे। अनावश्यक बातें नहीं बिगड़ेंगी और कलह-क्लेश नहीं होगा। मौन रहने से शांति का साम्राज्य फैलेगा। मौन के माध्यम से हम साधना जगत में प्रवेश कर पाएँगे और अध्यात्म जगत के रहस्यों का अनावरण भी कर पाएँगे। मौन हमारे जीवन के बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर है और इन उत्तरों को जानने का एक ही तरीका है कि मौन रहने का अभ्यास करके इन्हें हासिल करें।
मार्च 2015 अखण्ड ज्योति
Adhyatmik Labh Hi Sarvo Pari Labh Hai अध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है – Vicharkranti Hindi
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