श्रीमद्भगवद्गीता के चौदहवें अध्याय में श्रीभगवान के मुख मे एक बड़ा महत्त्वपूर्ण सूत्र निकला है, उसके विषय में चिंतन आज की परिस्थितियों में आवश्यक हो जाता है। वो अध्याय प्रारंभ होता है तो भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मैं तुझे वो ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद या जिसे जान लेने के बाद सभी मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। क्या है वो ज्ञान ? इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि-
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ 4 ॥ अर्थात यहाँ श्रीभगवान कहते हैं कि नाना प्रकार को योनियों में क्योंकि योनि अकेले मनुष्य को तो है नहीं, असंख्यों है मनुष्येतर प्राणी भी है, देव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर इत्यादि भी हैं तो भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जितने भी प्राणी हैं, वे अलग-अलग दिखते जरूर है, पर उन सबको गर्भ में धारण करने वाली माँ एक ही है और वो हैं जगन्माता जगजननी और उन सबके भीतर चेतनता का बीज डालने वाले पिता भी एक ही है अर्थात परमेश्वर ! जगन्माता, जगजननी है और परमेश्वर परमपिता है और जड़ व चेतन का यह जो संयोग है, यह प्रकृति के तीन गुणों से चलता है-सत् रज और तम ।
गीता के अनुसार बल्कि सांख्य दर्शन के अनुसार यह सारी की सारी सृष्टि जितनी दिखाई पड़ती है और जितनी परिणाम है। नहीं दिखती यह सत् रज और तम के परस्पर मेल के कारण है। गीता कहती है कि यह संसार प्रकृति के इन तीन गुणों के मध्य के खेल के कारण है। यह भी एक अद्भुत बात है क्योंकि जिसने भी सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में शोध किया है उसकी गिनती तीन पर आकर के हो रुक जाती है वैदिक चिंतन के अनुसार सृष्टि की व्यवस्था त्रिमूर्ति देखते हैं अर्थात भगवान ब्रह्मा का कार्य निर्माण का रचयिता का भगवान विष्णु का कार्य पालन पोषण, अभिवर्द्धन का और भगवान शिव का कार्य संहार-विनाश का है।
ईसाई धर्म भी कुछ ऐसा ही चिंतन लेते हुए हॉली ट्रिनिटी की बात करता है। आयुर्वेद में त्रिदोष का चिंतन आता है तो तप तंत्र योग की भाषा में इड़ा; पिंगला ;सुषुम्ना नाड़ियाँ कुछ ऐसे ही समीकरणों को जन्म देती दिखाई पड़ती है।
रोचक बात तो यह है कि विज्ञान की गिनती भी अंततः तीन पर ही आकर रुक जाती है और वैज्ञानिक चिंतन भी इस जगत् के सारे व्यापार का आधार प्रोटान;इलेक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन मानता है। वो यही कहता है कि सारे पदार्थों का निर्माण इन्हीं तीन मूलभूत तत्वों से हुआ है।
गीता इसी को सत रज और तम के मध्य का संवाद कहती है। वह कहती है कि प्रकृति अपने इन तीन गुणों के माध्यम से पुरुष को; जीवात्मा को संदेश भेजती है और पुरुष अपनी प्रवृत्ति के अनुसार इनका उत्तर देता है। वो उत्तर जो दिया गया यी दर्शन की भाषा में कर्म कहलाता है और किया गया कर्म संस्कार का; चित का; चित-जीवन का निर्माण करता है और यह जगत् रूपी क्रियाकलाप
चलता रहता है!
जो यह खेल समझ गया, वो तीनों गुणों से पार जाकर त्रिगुणातीत हो जाता है और इसे न समझ पाने वाला व्यक्ति बंधा रहता है और तब तक जन्म लेता रहता है, जब तक वो गुणों के पार न चला जाए। इस तरह से भारतीय दर्शन के अनुसार यह संसार इन्हीं तीन गुणों के मध्य समीकरण का परिणाम है!
इनमें से तम- आलस्य की;जड़ता की; निष्क्रियता की, अवरोध की ठहराव की दशा है। जैसे एक पत्थर पड़ा है वो ठहरा हुआ है, पर यदि उसे पहाड़ी की चोटी से लुढ़का दें तो उसमें गति आ जाती है। यह जो गति को त्वरा को प्रवाह की अवस्था है- यह रज के कारण है। इसीलिए छोटे बच्चों में रज का आधिपत्य उनको निरंतर गतिशील रखता है, परंतु वृद्धावस्था में आया तम का आधिपत्य उसी व्यक्ति को ठहरा देता है, थका देता है। एक तरफ जन्म है. तो दूसरी ओर मृत्यु
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