मनुष्य को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- एक तो वे जो कुछ न होने पर भी प्रसन्न रहते हैं, दूसरे वे जो सब कुछ होने पर भी उदास और खिन्न रहते हैं। वह मनुष्य बड़ा भाग्यवान है, जिसने सदा अच्छी और विषम सांसारिक स्थिति में भी प्रसन्न रहने की आदत बनाई है। प्रसन्नता, सन्तोष, उल्लास, हर्ष, उत्साह वे मनःस्थितियाँ हैं, जो मनुष्य के मानसिक आरोग्य का द्योतक है। प्रसन्न रहना या उदास रहना, संसार की वस्तुस्थिति, घोर और विषम परिस्थिति पर इतना निर्भर नहीं है, जितना मनुष्य की स्वनिर्मित आदत के ऊपर।प्रसन्नता, विषाद, ईर्ष्या, द्वेष क्रोध आदि मानसिक अवस्थाएँ हैं, जो हम स्वयं ही बनाया करते हैं। हमारी भावना एक आदत है, जिसे खुद हमने अभ्यास द्वारा बनाया है। प्रसन्नता का स्वभाव निरन्तर खुशी मनःस्थिति में रहकर उत्पन्न किया जा सकता है। जो चेहरे की चिन्ता से मुक्ति पा लेगा, वह मन से क्षोभ वृत्ति को दूर कर सकेगा। यदि किसी ने उदासी का काला चश्मा नेत्रों पर लगा लिया है, तो उसे समस्त समाज, मित्र, नागरिक उदासी की काली छाया से ढके हुए प्रतीत होंगे।
उदासी एक मानसिक रोग है। स्वयं मनुष्य अपने दुर्भाव को मन में स्थायी रख चुपचाप चिन्ता मूलक विचारों के अभ्यास के द्वारा उदासी का मानसिक रोग बढ़ा लेता है। उदासी की आदत दूर कीजिए और प्रसन्नता का स्वभाव बनाइये। बातचीत में अधिक से अधिक हँसिये। प्रसन्न व्यक्तियों के साथ संग कीजिये। संग से ही मनुष्य अच्छा या बुरा बनता है। यदि आप उदासी की मानसिक स्थिति से निकलना चाहते हैं, तो उस प्रकार के विचारों का प्रवाह रोक दीजिए। विचार भावनाओं का भोजन है। दुःख, रोग और असफलता, भय, विषाद, दोष-दर्शन और स्वार्थपरता सम्बन्धी विचारों के भोजन पर पलते हैं। जब आप उन्हें उनका भरपूर भोजन देते हैं, अर्थात् गलत अनर्थकारी चिन्तन करते हैं, तो वे आपके जीवन में प्रवेश करते हैं। प्राणी की तरह वे भी वहीं रहते हैं, जहाँ उन्हें अनुकूल भोजन मिलता है। आनन्द ईश्वर का एक महत्वपूर्ण गुण है। यह आप में प्रचुर मात्रा में भरा हुआ है। आपकी आत्मा ईश्वरीय गुणों से परिपूर्ण होने के कारण स्वतः आनन्द उन्मुख होती है।
(संकलित व सम्पादित)
– अखण्ड ज्योति मई 1959 पृष्ठ 23