प्रसन्नता मनुष्य के सौभाग्य का चिह्न है। जो व्यक्ति हर समय प्रसन्नचित्त रहता है, उसके पास लक्ष्मी का निवास रहता है। जिनकी मुस्कान चली जाती है, प्रसन्नता तिरोहित हो जाती है, उससे लक्ष्मी रूठ जाती है। ‘श्री’ लक्ष्मी का बहुत लोकप्रिय नाम है। हँसने से, प्रसन्न रहने से, मनुष्य के मुख पर एक श्री, एक कांति, एक तेज विराजमान रहता है, जो संसार के समस्त श्रेयों को खींचकर ले आता है।
प्रसन्नचेता व्यक्ति को देखकर लोग प्रसन्न होते हैं, उसकी ओर आकर्षित होते हैं, उसकी मैत्री प्राप्त करना चाहते हैं। प्रसन्नता एक आध्यात्मिक वृत्ति है, एक दैवी चेतना है। इसका आश्रय ग्रहण करने वाले के सारे शोक-संताप भाग जाते हैं। प्रमुदित मन और प्रसन्नचित्त व्यक्ति के पास बैठकर लोग अपना दुःख-दरद भूल जाते हैं। सुख और संतोष का अनुभव करते हैं। मुदितात्मा व्यक्ति देवदूत होता है। संसार का कलुष दूर करने वाला होता है।
मनुष्य को जब भी हँसने का अवसर मिले खूब हँसना चाहिए। जो हँसना नहीं जानता, वह जीना नहीं जानता। हँसी, मुस्कान और प्रसन्नता यौवन को आधारशिला है। जो हँस सकता है, मुस्करा सकता है, प्रसन्न हो सकता है, वह अस्सी वर्ष की अवस्था में भी नौजवान है। इसके विपरीत जो मन मलिन और उदास रहता है, वह बीस वर्ष की आयु में भी बूढ़ा है। यौवन का गुण है-आकर्षण। हँसने वाले को ओर सारा संसार आकर्षित हो उठता है और रोने- झींकने वाले से सबको विकर्षण रहता है। जो हर समय रोता-झींकता और विषाद करता रहता है, वह जीवन के संजीवनी तत्त्व को नष्ट कर देता है और जो हर समय प्रसन्न और प्रमुदित रहता है, वह अमृत को ग्रहण करता है। आप हँसेंगे तो संसार आपका साथ देगा। आप रोएँगे तो आप अकेले रह जाएँगे। कोई आपके पास बैठना न चाहेगा। हास में जीवन और रुदन में मृत्यु की छाया रहती है। मनुष्य जितनी देर हँसता है अपने जीवन में उतनी ही अवधि की वृद्धि कर लेता है । हास्य मनुष्य का सच्चा मित्र, सेवक, साथी और सहचर सब कुछ है। जो इसको अपने साथ लेकर चलता है, वह जीवन में अवश्य सफल होता है। हास शत्रुता का शमन करता है। प्रतिकूलताओं को मित्र और क्रोध को शांत बनाता है। प्रसन्नचेता व्यक्ति की जिंदगी एक महोत्सव के समान बन जाती है, जिससे उसे क्षण-क्षण उत्साह, उल्लास और आनंद की प्राप्ति होती है। हास- परिहास से मनुष्य जीवन की सारी कठिनाइयाँ सरल हो जाती हैं। बड़ी से बड़ी प्रतिकूलता आने पर भी प्रसन्नता व्यक्ति न कभी क्लांत होता है और न परेशान। उसकी बुद्धि हर समय ठीक-ठीक काम करती रहती है, जिससे वह पहाड़ जैसी कठिनाइयों को सुगमता से पार कर जाता है।
संसार के किसी भी महापुरुष का जीवन देख लिया जाए, उनके अन्य गुणों के साथ प्रसन्नता का गुण प्रधान रूप से जुड़ा हुआ मिलेगा। से हर स्थिति एवं परिस्थिति एकरस, प्रसन्न रहना, महापुरुषों की सफलता का सबसे बड़ा रहस्य रहा है। प्रसन्नता मनुष्यता की कार्य- क्षमता को कई गुना बढ़ा देती है। प्रसन्न मन व्यक्ति एक घंटे में जितना काम कर लेता है, खिन्न मन और व्यग्र मस्तिष्क वाला व्यक्ति उतना काम एक दिन में भी नहीं कर पाता।
अप्रसन्न, उदास एवं खिन्न रहने वाले व्यक्ति की सारी शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं। विषादोत्पादक स्थिति में एक ऐसी तपन होती है जो मानव जीवन के सारे उपयोगी तत्त्वों को जला डालती है। खिन्नता मानव जीवन का भीषण अभिशाप है। यह जीती-जागती नरक की भयानक ज्वाला की भाँति मनुष्य को दीन-हीन, दुखी और दरिद्र बनाकर रख देती है।
अप्रसन्न प्रकृति के व्यक्ति क्या सार्वजनिक और क्या पारिवारिक किसी भी स्थिति में मुख और आनंद नहीं पा सकते। ऐसे व्यक्तियों के परिवार में एक सूनापन छाया रहता है। न कोई खुलकर हंस पाता है और न बोल पाता है। यहाँ तक कि हँसी-खुशी का जन्मसिद्ध अधिकार रखने वाले बच्चे तक सहमे-सहमे एक कोने में दुबके रहते हैं। अप्रसन्न प्रकृति का व्यक्ति भयानक रूप से ईर्ष्यालु होता है। वह स्वयं तो हँसी-खुशीपूर्वक नहीं ही रह पाता, दूसरों को भी हँसते नहीं देख सकता। मुक्त मन से खुलकर हँसने वाले को वह मन में कोसता और बुरा-भला कहता रहता है। ऐसे व्यक्ति को हर आदमी का हास अपना उपहास अनुभव होता है। उसे ऐसा लगता है कि हँसने वाला उस पर व्यंग्य कर रहा है, हँसी के बहाने उसका अपमान एवं तिरस्कार कर रहा है। जहाँ पर वह हँसी का विरोध नहीं कर सकता, वहाँ तो मन ही मन जलता-भुनता रहता है और जहाँ पर वह हँसी का विरोध कर सकने की स्थिति में होता है, वहाँ के प्रसन्न वातावरण की हत्या किए बिना नहीं मानता। जीवन में जिसने प्रसन्नता का महत्त्व नहीं समझा उसने मानो सौभाग्यपूर्ण अभ्युदय के द्वार ही बंद कर दिए। रुदन, विषाद और मनहूसियत को प्रश्रय देने वाले व्यक्ति का जीवन अपने में एक ऐसा अभिशाप बन जाता है, जिसका फल अनिष्ट और अमंगल के अतिरिक्त कुछ नहीं होता।
मनुष्य का जीवन रोते-बिलखते काटने के लिए नहीं, बल्कि हँसते-खेलते और गाते-मुस्कराते हुए महोत्सव की भाँति आनंद लेने के लिए ही है। जीवन में ऐसी घटनाएँ तथा परिस्थितियाँ भी आती हैं, जब हँसी-खुशी एक अपराध मानी जा सकती है, किंतु इनका यह मतलब कदापि नहीं है कि उस दुःखद परिस्थिति को इतनी गहराई तक अपना लिया जाए कि सारा जीवन ही विषादपूर्ण बनकर रह जाए। संसार के क्रम के अनुसार अनेक परिस्थितियों को मनुष्य के दो आँसुओं की भी आवश्यकता हो सकती है, किंतु उनको उतने ही आँसू देने चाहिए जितने का अधिकार उनको है। संपूर्ण जीवन को आँसुओं के रूप में उड़ेल देना बुद्धिमानी नहीं। आँसू मनुष्य के अपवाद और हास उसके जीवन का सत्य है, यथार्थ है।
जिंदगी हँसते-खेलते जिएँ
~पं. श्रीराम शर्मा आचार्य