बहुत से लोग जिंदगी को विविध उपकरणों से सजाए-सँवारे रहने को ही कला समझते हैं, किंतु बाह्य प्रसाधनों द्वारा जीवन का साज-शृंगार किए रहना कला नहीं है। यह मनुष्य की लिप्सा है, जिसे पूरा करने में उसे एक झूठे संतोष का आभास होता है। फलत: यह मान बैठता है कि वह जिंदगी को ठीक से जी रहा है। कला तो वास्तव में वह मानसिक वृत्ति है, जिसके आधार पर साधनों की कमी में भी जिंदगी को खूबसूरती के साथ जिया जा सकता है।
जिंदगी को हर समय हँसी-खुशी के साथ अग्रसर करते रहना ही कला है और उसे रो झीककर काटना ही कलाहीनता है। जहाँ तक जिंदगी को कलापूर्ण बनाने में साधनों की सहायता का प्रश्न है- उसके विषय में बहुत बार देखा जा सकता है कि एक ओर जहाँ प्रचुर साधन-संपन्न अनेक लोग रो-रोकर जिंदगी काट रहे हैं, उनसे बात करने पर ऐसा लगता है मानो उनका जीवनतत्त्व समाप्त हो गया है और वे ऊबे हुए शेष श्वासों की लकीर पीट रहे हैं, जीवन से उन्हें अभिरुचि नहीं रह गई है। इस प्रकार की जिंदगी को आकुल अथवा अकलापूर्ण कहा जाएगा।
दूसरी ओर अनेक लोग अपने सीमित साधनों में भी उत्साह एवं उल्लासपूर्वक जीते दिखाई देते हैं। जिंदगी उनके लिए कटु अनुभव नहीं, मधुर आस्वादन जैसी होती है। उन्हें न तो उससे अरुचि होती है और न शिकायत । उनके जीवन में आँसुओं की अपेक्षा मुस्कानें अधिक होती हैं। इस प्रकार की जिंदगी कला कुशल मानी जाएगी।
ऐसा नहीं कि कलापूर्ण जिंदगी जीने के लिए जीवन से आँसुओं का सर्वथा बहिष्कार कर दिया जाए और उनके स्थान पर जैसे भी हो मुस्कानों का संचय किया जाए। जिंदगी में हँसने तथा रोने दोनों का अपना-अपना स्थान है। हास-रुदन की क्रमिक कड़ियों से ही जीवन – श्रृंखला का निर्माण होता है। यह सहज संभाव्य नहीं कि किसी के जीवन में हास के फूल ही खिलते रहें और रुदन के ओस की एक बूंद भी न गिरे अथवा किसी के आँसू कभी मुस्कान में ही न बदलें। हर्ष और विषाद जीवन-नाटिका के दो अनिवार्य दृश्य हैं, जिन्हें सबको ही यथा-अवसर देखना पड़ता है। किंतु जो इन दोनों प्रति-परिवर्तनों को समभाव से उपयोग कर लेता है, वह ही कुशल और कलाजीवी कहा जाएगा।
संसार में ऐसे बहुत से लोग हो सकते हैं जो करुणा अथवा शोक के संयोग पर भी यों ही टुकुर-टुकुर देखा करते हैं। उनकी आँखें अनावृष्टि को मारी धरती की तरह ही शुष्क बनी रहती हैं। यह सही है कि शोक-प्रसंगों के अवसर पर धाड़ें मार-मारकर नदी-नाले बहाना जीवन में आवश्यक आँसुओं की पूर्ति करना नहीं है। फिर भी करुणा के अवसरों पर लूंठ की तरह दूँठ रह जाना कोई आकर्षक अभिव्यक्ति नहीं है। यह जड़ता है, कठोरता है और दारुणता है। करुणा अथवा शोक के अवसर पर द्रवित हो उठना मनुष्यता का मोहक लक्षण है, किंतु पराभूत होकर अतिरेकता की अभिव्यक्ति करना मूर्खता है। शोक-संपर्क के समय ‘लोचन जल रहु लोचन कौना’-के प्रकार से रोने वाले जीवन में अपेक्षित आँसुओं को अभिव्यक्ति करते हैं। बहुत से गहन गंभीर व्यक्ति शोक से समाकुल होकर भी उसे वाणी अथवा आँखों द्वारा व्यक्त नहीं होने देते। आँसुओं अथवा उच्छवासों के आवागमन पर ऐसे धीर-गंभीर व्यक्ति पर जड़ता अथवा प्रस्तरता का आरोप नहीं किया जा सकता। ऐसी ही स्थिति की परिभाषा करते हुए किसी उर्दू शायर ने कहा है-
शक न कर तू मेरी खुश्क आँखों पर,
यों भी आँसू बहाए जाते हैं।
इस प्रकार जैसे जीवन में आँसुओं को स्थान न देना अकलात्मकता है उसी प्रकार प्रकार धैर्य का बाँध तोड़कर अनर्गल रूप से बह उठना भी कुरूपता है। शोक से अभिभूत होने पर भी पराभूत हुए बिना जो कतिपय मानस-मोतियों के देय भाग को सचाई के साथ समर्पित कर देना ही पर्याप्त समझते हैं, उनके रोने पर भी जीवन की कलात्मकता पर कोई आँच नहीं आती।
हास निस्संदेह जीवन का सौंदर्यपूर्ण कला पक्ष है। जिस अनुपात से जिसके जीवन में हँसी-खुशी को अवतारणा होगी, वह उसी अनुपात से कलापूर्ण समझा जाएगा। किंतु यह हँसी-खुशी मनुष्य की अपनी ही होनी चाहिए। दूसरों की छीनी हुई अथवा हरे हुए सुख-संतोष से प्राप्त प्रसन्नता कलापक्ष में नहीं मानी जा सकती। मनुष्य की वह ही हँसी-खुशी कलापक्ष में मानी जावेगी, जो उसके अपने संतोष, आशा,उत्साह, धैर्य अथवा स्थैर्य से उत्पन्न हुई हो।
हँसी का अर्थ केवल हँसते रहना ही नहीं है। जीवन में संतोष, सहिष्णुता, आशा, उत्साह, रुचि तथा रोचकता आदि गुण भी हास और उल्लास के समान ही हैं। इनके अभाव में मनुष्य का अशात एवं रुचिर रहना स्वाभाविक है। अशांति, असंतुष्टि अथवा उपालंभपूर्ण जीवन असुन्दर अथवा अकलापूर्ण है। उपकरणों तथा अलंकारों से सजा रहने पर भी इस प्रकार का जीवन अकलात्मक ही है।
हँसी-खुशी जीवन का विशिष्ट कला-पक्ष होने पर भी जब यह अनियंत्रित अथवा अमर्यादित हो जाती है, तब कला के स्थान पर कुरूपता ही उत्पन्न करती है। हर समय, हर स्थान अथवा परिस्थिति में हँसते रहना, निश्चितता दिखाना, अलमस्त बने रहना वास्तविक हंसी-खुशी नहीं है। अपने छोटे-बड़े हर कर्त्तव्य का उत्तरदायित्व से निर्वाह करते हुए जीवन के संघर्ष में सफलता-असफलता से अप्रभावित हुए देश-काल के साथ परिस्थिति तथा परभावनाओं का ध्यान रखते हुए प्रसन्न रहना ही वास्तविक हँसी-खुशी है। जिसको अपने जीवन से स्वयं कोई शिकायत नहीं है और दूसरों को शिकायत का अवसर नहीं देता, उसके जीवन को ही ठीक-ठीक कलात्मक कहा जा सकता है।
इस प्रकार का निरुपालंभ जीवन प्राप्त करने के लिए संतोष, संघर्ष तथा साहस की वृत्तियों को परिश्रय देना होगा। आलस्य अथवा अकर्मण्यताजन्य साधनहीनता अथवा अभाव की स्थिति में जबरदस्ती जीवन में हँसी-खुशी का आरोप किए रहना कला नहीं है। यह स्थिति उसी दशा में कलापूर्ण कही जा सकती है, जब मनुष्य असाधनता अथवा अभाव को दूर करने के लिए पूरा प्रयत्न एवं पुरुषार्थ करता रहे और परिस्थिति, संयोग अथवा किन्हीं कारणों से सफलता न पाने पर भी असंतुष्ट, हताश अथवा निरुत्साह न हो। अकारण अभावों अथवा आवश्यकताओं की मार खाते हुए निर्लिप्त अथवा निश्चित बने रहना कला नहीं कुरूपता है। अपनी क्षमताओं के अंतिम छोर तक उद्योग करने पर भी यदि कृतकृत्यता नहीं मिलती, तब भी दुखी होकर आशा एवं उत्साह का परित्याग न करके उपायपूर्वक परिस्थितियों से टक्कर लेने और विपन्नता को बदल देने का हौसला बनाए रखना ही कला है।
सरलता तथा सादगी, सद्व्ययता एवं संकलन जीवन में कलापक्ष का संपादन करते जरूर हैं किंतु जब यह गुण ग्राम्यता अथवा कृपणता के स्तर पर पहुँच जाते हैं, तब दुर्गुण बनकर कुरूपता के कारण बन जाते हैं। कलापूर्ण जीवन के लिए उचित एवं उपयुक्त उदारता, परिश्रम एवं पुरुषार्थ ठीक तरह ही अपेक्षित हैं। संतोष एवं शांति की तरह ही आवश्यक हैं।
साधन अथवा असाधन, संपन्नता अथवा विपन्नता किन्हीं भी स्थितियों में अनुरूप अथवा आवश्यक पुरुषार्थ के साथ सहजता, सरलता, संतोष, आशा, उत्साह तथा अव्यग्रतापूर्ण हर्ष-विषाद का यथायोग्य निर्वाह करते हुए जीना ही कलापूर्ण जीवंत है, जिसे प्राप्त करना न केवल श्रेयस्कर ही है बल्कि सार्थक एवं सुखकर भी है।
कलात्मक जीवन जिएँ ( व्यक्तित्व मनोविज्ञान )
~पं. श्रीराम शर्मा आचार्य