वर्तमान समय जीवन संबंधी अधिकांश कठिनाइयों, कष्टदायक समस्याओं का एक प्रमुख कारण-कृत्रिमता की भावना का बढ़ जाना है। अधिकांश मनुष्य अपने को वास्तविक स्थिति से बढ़ा-चढ़ाकर दिखलाने का प्रयत्न करते हैं। एक समय था कि बहुत बड़े विद्वान, धनवान अधिकारी भी अपने को साधारण दरजे का व्यक्ति जानते और मानते थे और अपना रहन-सहन अन्य औसत दरजे के व्यक्तियों के समान हो रखते थे। उनमें और दूसरे लोगों में जो अंतर होता था वह विचारों को, मनोभावनाओं की, ऊँचाई-निचाई का होता था। जैसा एक अँगरेजी भाषा की कहावत में बतलाया गया है, वे ‘सिंपल लिविंग एंड हाई थिंकिंग’ की नीति के अनुयायी होते थे। इसके परिणामस्वरूप उनका जीवन सदैव संतुष्ट और सुखी ही व्यतीत होता था। सांसारिक परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव, संपद और विपद का आना-जाना उन्हें बहुत कम प्रभावित कर पाता था। देखने वालों की निगाह में भी वे सदा एक से जान पड़ते थे, जिससे उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा की भावना अक्षुण्ण बनी रहती थी।
पर इस नए जमाने में अधिकांश व्यक्तियों की प्रवृत्ति इसके विपरीत दिखलाई पड़ने लगी है। वे अपनी वास्तविक योग्यता, सद्गुणों को न बढ़ाकर केवल बाहरी दिखावट, सजावट, फैशन, तड़क-भड़क के बल पर अपने को दसरे से बड़ा विशिष्ट बतलाना चाहते हैं। इसके लिए वे अपने साधनों, शक्तियों को उचित से अधिक व्यय कर डालते हैं। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को उपेक्षा करके ऊपरी टीम टाम को कायम रखने में ज्यादा ध्यान देते हैं, अधिक प्रयत्न करते हैं। उनका कार्य एक प्रकार की मूर्खता या प्रवंचना जैसा होता है। वे समझते हैं कि इस तरह शान से रहने के कारण हमको अन्य लोगों से अधिक इज्जत मिलेगी, सब कोई हमको बड़ा आदमी समझेंगे और हम अधिक सुविधाएँ अथवा अधिकार पाकर लाभान्वित भी हो सकेंगे। पर परिणाम प्राय: उलटा होता है। ज्यादातर मनुष्य उनके इस नकलीपन को भाँप जाते हैं और प्रत्यक्ष में नहीं तो परोक्ष में उनकी हँसी उड़ाते हैं और अनेक लोग तो मुँह पर झूठी प्रशंसा करके उनको मूर्ख बनाने की चेष्टा भी करते हैं। कुछ ही समय में ऐसे व्यक्तियों की कलई खुल जाती है और इस अपव्यय के कारण उनके साधनों में कमी पड़ जाती है और वे निम्न कोटि का तथा अभावग्रस्त जीवन बिताने को बाध्य होते हैं। ऐसे लोगों से किसी को सहानुभूति भी नहीं होती, क्योंकि वे अपने मिथ्या घमंड और धूर्तता के कारण दुर्दशा में पतित होते हैं।
पर खेद है कि वर्तमान समय में बहुसंख्य व्यक्तियों ने इसी प्रकार के रहन-सहन को एक ‘कला’ मान लिया है और वे दूसरों को आँखों में धूल झोंकने की चेष्टा करते हुए स्वयं ही उपहास और कष्टों के शिकार बन जाते हैं।
कलात्मक जीवन जिएँ ( व्यक्तित्व मनोविज्ञान )
~पं. श्रीराम शर्मा आचार्य