यह प्रश्न उठाया है कि क्या क्रोध सर्वथा त्याज्य है? क्या समाज की व्यवस्था तोड़ने वाले व्यक्ति पर क्रोध नहीं करना चाहिए? अन्याय एवं अनाचार के प्रति आक्रोश करना एक बात है तथा अहंकार के कारण क्रोधित होना दूसरी बात है। समाज की व्यवस्था एवं नियम के विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति पर सामाजिक न्याय की भावना के कारण क्रोधित होने वाली मानसिकता अहंकार की भावना से उत्पन्न क्रोध की मानसिकता से भिन्न होती है। हमारे अपने सामाजिक जीवन के दायित्व-बोध के आधार पर आचरण करने तथा क्रोध एवं अहंकार के वशीभूत आचरण करने में अन्तर है। अहंकार से क्रोधित व्यक्ति जब किसी का विनाश करना चाहता है, तब वह अपना विवेक खो देता है। जब कोई व्यक्ति सामाजिक भावना से प्रेरित होकर सामाजिक विकास में बाधक बनने वाले असामाजिक एवं दुष्ट व्यक्तियों का दमन करता है, तो वह अपने विवेक को कायम रखता है।
वह दुष्ट व्यक्तियों का दमन इसलिए करता है, ताकि सामाजिक व्यवस्था कायम रह सके। गीता में श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित किया हैं। वे अन्याय का प्रतिकार करने के लिए बार-बार कहते हैं, किन्तु दूसरी तरफ युद्ध में कूद जाने की प्रेरणा देनेवाले श्रीकृष्ण क्रोध से बचने के लिए सर्वत्र सावधान भी करते है। इस पर गहराई से विचार करने पर इस अन्तर्विरोध का रहस्य इस वास्तविक तथ्य में निहित है कि लोकमंगल के लिए अन्याय का प्रतिकार करने तथा क्रोधित होकर दूसरे का नाश करने के लिए तत्पर होने में बहुत अन्तर है। क्रोध या गुस्सा करना एक भावना है। शरीर के स्तर पर क्रोध करने या क्रोध होने पर हमारे हृदय की गति बढ़ जाती है; रक्त-चाप बढ़ जाता है, यह भय से उपज सकता है। भय व्यवहार में स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है, जब व्यक्ति भय के कारण को रोकने की कोशिश करता है। क्रोध के कारण कोई व्यक्ति दूसरे का उतना अहित नहीं कर पाता, जितना अहित वह स्वयं अपनाकर अंहकार से प्रेरित होकर व्यक्ति अपने को सब कुछ समझने लगता है। इसी अहंकार के कारण वह समाज के सदस्यों से यह अपेक्षा करने लगता है, कि सब उसके ही इशारों पर चलें। जब कोई व्यक्ति स्वतन्त्र निर्णय लेकर अपनी मर्जी से चलना चाहता है अथवा उसके स्वार्थ की पूर्ति नहीं करता है तो वह आहत हो उठता है और उसका क्रोध जाग जाता है।
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी
from Lekhram Sahu (Author)