आज की प्रमुख समस्या है कि बच्चे बड़ों की बात नहीं मानते, उनका सम्मान नहीं करते। थोड़ा सा गहराई से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि इसके लिए माता-पिता एवं अभिभावक भी कहीं जिम्मेदार हैं; क्योंकि उनके पास समय ही नहीं है कि वे बच्चों की बातों को सुनें, समझें व उनकी समस्याओं का सार्थक समाधान प्रस्तुत करें। साथ ही यदि व्यक्ति स्वयं ही अपने जीवन के प्रति सजग-सचेष्ट न हो, तो फिर बाल निर्माण की बात और कठिन हो जाती है।
इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि सबसे पहले बड़े लोग स्वयं अपने लिए समय निकालें। अपने जीवन को समग्र रूप में समझने व सँवारने का प्रयास करें, इसके परिष्कार एवं निर्माण पर ध्यान दें। फिर समझ आएगा कि जीवन का निर्माण कितनी सूक्ष्म एवं जटिल प्रक्रिया है, जिसे महज सैद्धांतिक नियमों एवं उपदेश आदेश के आधार पर नहीं गढ़ा जा सकता। अपना व्यवहार, आचरण एवं जीवन ऐसा गढ़ना पड़ता है, जिससे बच्चे कुछ सीख सकें, प्रेरणा ले सकें।
बच्चों पर महज उपदेश काम नहीं करते। वे बड़ों का आचरण, व्यवहार भी देखते हैं और इसका जाने-अनजाने में अनुसरण करते हैं। यदि बड़े स्वयं ही नियम का पालन नहीं कर रहे हैं, परंतु बच्चों को ज्ञान-उपदेश दे रहे हैं, तो इसका प्रभाव संदिग्ध ही रहता है। भय या दबाववश बच्चे तात्कालिक रूप से इनका पालन कर भी लें, लेकिन इसका स्वस्थ एवं स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता।
बच्चों के निर्माण में उनके प्रति संवेदनशील रवैया रखना सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसी के आधार पर न्यूनतम विश्वास की वह पृष्ठभूमि तैयार होती है, जिससे बच्चे बड़ों की बातों के लिए ग्रहणशील हो सकें। जब व्यक्ति स्वयं के निर्माण के प्रति जागरूक एवं निष्ठावान होता है, तभी ऐसा व्यक्तित्व तैयार होता है, जिसके उपदेश सहज रूप से ग्रहण हो सकें, हृदयंगम हो सकें। इसके साथ मानव स्वभाव की वह समझ विकसित होती है कि बच्चों के कोमल मन को एक कुशल शिल्पी की भाँति समझा, सँभाला एवं गढ़ा जा सके।
बाल निर्माण के संदर्भ में कुछ अन्य व्यावहारिक समाधान सूत्रों का अनुसरण किया जा सकता है, जिसमें, सर्वप्रथम है कि बच्चों को समय दें-उनसे बातचीत करें। आज के समय में इसी सूत्र की सबसे अधिक अवहेलना हो रही है; क्योंकि माता-पिता एवं अभिभावक, इस कदर जीवन के गोरखधंधे में उलझे हुए हैं कि उनके पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है। यदि समय निकालकर बच्चों के साथ बैठा जाए, उनकी बातों को सुना जाए व उनके जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण किया जाए, तो उनके विकास के लिए अनुकूल वातावरण एवं समाधान सूत्रों की व्यवस्था भी बनाई जा सकती है।
यदि माता-पिता एवं अभिभावक पढ़े-लिखे हैं तो एक बार बच्चों की पुस्तकों को टटोलकर अवश्य देखें कि उनके पाठ्यक्रम में क्या है? यदि कुछ विषय अपनी रुचि के हों, तो उनको पढाया-समझाया जा सकता है। इसके साथ बच्चों की किन विषयों में रुचि है, उनमें कौन-सी संभावनाएँ व्यक्त होने के लिए कुलबुला रही हैं, इसकी जानकारी पाई जा सकती है, जिससे कि आगे चलकर उनके लिए उचित कैरियर का चयन किया जा सके। इस जानकारी के अभाव में उचित मार्गदर्शन के अभाव में अधिकांश बच्चों को ढरें के पाठ्यक्रमों में भरती होते देखा जा सकता है, जिसका उनकी रुचि, योग्यता एवं स्वभाव से अधिक लेना-देना नहीं रहता। यह लापरवाही भावी जीवन की विफलता एवं असंतोष के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार रहती है।
आपसी बातचीत के अतिरिक्त बच्चों को अपने साथ दैनंदिन गतिविधियों में शामिल किया जा सकता है। उन्हें अपने साथ घर-आँगन की गतिविधियों का हिस्सा बनाया जा सकता है, खेत पर काम में ले जाया जा सकता है। अपने साथ कहीं नई जगह पर घूमने की व्यवस्था की जा सकती है। बच्चों के साथ किसी खेल में शामिल होकर उनके साथ कुछ यादगार पल बिताए जा सकते हैं।
इस तरह बच्चों के साथ बिताए पल बाल मन को भावनात्मक रूप से सशक्त करते हैं व उनको समझने में सहायक भी होते हैं। साथ ही वे सहज रूप में उन बातों को खेल-खेल में सीख रहे होते हैं, जिनके लिए अन्यथा माता पिता को डाँट-डपट करने से लेकर अवांछनीय तौर-तरीकों का सहारा लेना पड़ता है।
यहाँ बच्चों के साथ व्यवहार के संदर्भ में कुछ सावधानियाँ बरतने भी आवश्यकता है। बच्चों को डाँटें नहीं, बल्कि उन्हें प्यार से समझाएँ। यदि उनके स्वभाव में कुछ बिगड़ी आदतें शामिल हो गई हैं, तो धैर्य के साथ इनका परिमार्जन करें। बच्चों को भरपूर सम्मान एवं प्यार दें अन्यथा सुधार के लिए किए जा रहे प्रयासों के परिणाम उलट भी हो सकते हैं। बच्चे सुधरने के बजाय बिगड़ सकते हैं। निस्संदेह रूप में इसके लिए अपार धैर्य एवं गहरी समझ की आवश्यकता होती है।
कई अभिभावक बच्चों की एकदम उपेक्षा करते हैं, उन पर कोई ध्यान ही नहीं देते, जो उचित नहीं। बीच-बीच में बच्चों का हाल-चाल पूछते रहें, उनकी खोज-खबर लेते रहें, जिससे कि वे अपनी पढ़ाई-लिखाई एवं अन्य रचनात्मक गतिविधियों के प्रति सजग व सचेष्ट रह सकें, जो अन्यथा उपेक्षित रह सकते हैं।
साथ ही यह भी ध्यान रखें व इस ओर एक सजग दृष्टि रखें कि कहीं बच्चे गलत संगत में तो नहीं पड़ रहे या किसी बुरी लत का शिकार तो नहीं हो आजकल मोबाइल के साथ बच्चों की अत्यधिक आसक्ति एक चिंता का विषय है। इसके प्रति भी जागरूक रहें। बच्चों के असामान्य व्यवहार एवं आचरण के आधार पर इसका अनुमान लगाया जा सकता है और यदि वे ऐसी स्थिति में उलझ रहे हैं, तो इससे उबारने में उनकी सहायता करें।
यह एक जिम्मेदारी भरा एवं संवेदनशील कार्य है, जिस पर बच्चों का भविष्य टिका हुआ है। इसके अभाव में कितने सारे बच्चे गलत आदतों का शिकार होते देखे जा सकते हैं, गलत संगत में पड़ते हैं और जीवन की बर्बादी की पटकथा लिख रहे होते हैं। अभिभावकों की ओर से बरती गई थोड़ी-सी सावधानी उन्हें इस दुर्घटना से बचा सकती है।
इस संदर्भ में ‘एक आँख प्यार की और एक सुधार की’ एक स्वर्णिम सूत्र रहता है। अत्यधिक लाड़ प्यार से बच्चे बिगड़ जाते हैं, इसी तरह अत्यधिक कड़ाई भी अवांछनीय प्रभाव डालती है। मध्य मार्ग का अनुसरण ही यहाँ उचित रहता है। यदि इन सूत्रों को पालन करते हैं, तो कोई कारण नहीं कि बच्चों का विकास सही दिशा में न हो। उन्हें वह आवश्यक भावनात्मक पोषण भी उपलब्ध होगा, जो उनके व्यक्तित्व की जड़ों का सिंचन करते हुए उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की ठोस पृष्ठभूमि को तैयार कर सके।
–पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
दिसंबर, 2021 अखण्ड ज्योति