प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का विदेशों से आदान-प्रदान होता रहा है। इसकी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी रहे हैं वो विदेशी यात्री, जो समय-समय पर भारत आते रहे कुछ धार्मिक एवं विद्यार्जन उद्देश्य से, तो कुछ शासन प्रशासन को समझने के लिए और कुछ यहाँ व्यापार की संभावनाओं को तलाशते हुए पहुँचे। इनमें से अधिकांश अपने अनुभवों एवं संस्मरणों को लिपिबद्ध कर ऐतिहासिक दस्तावेज दे गए, जो महत्त्वपूर्ण साहित्यिक स्रोत के रूप में तत्कालीन समाज पर प्रकाश डालते हैं। प्रस्तुत हैं कुछ ऐसे ही विदेशी यात्रियों के विवरण, जो भारत आए और यहाँ के इतिहास की कड़ियों को अपने साहित्य के माध्यम से संरक्षित करते हुए हम तक दे गए।
मेगास्थनीज इस कड़ी में एक उल्लेखनीय नाम है, जो यूनान से चंद्रगुप्त मौर्य के समय भारत आए और 304 ई०पू० से 299 ई०पू० तक यहाँ रहे। वे चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी सम्राट सेल्युकस के राजदूत थे। वे यहाँ कई वर्षों तक रहे। इन्होंने भारत में जो कुछ भी देखा, उसका वर्णन ‘इंडिका’ नामक पुस्तक में किया। इसमें मौर्यकालीन भारत का वर्णन मिलता है तथा यूनान के साथ भारत के व्यापारिक संबंधों की जानकारी मिलती है। मेगास्थनीज ने पाटलिपुत्र का बहुत सुंदर वर्णन किया था। उसके अनुसार भारत का सबसे बड़ा नगर पाटलिपुत्र चारों ओर दीवारों से घिरा था, जिसमें अनेक फाटक और दुर्ग बने हुए थे। नगर में अधिकांश घर लकड़ियों के बने हुए थे।
फाह्यान 399 ई्॰ 414 ई० के बीच भारत में आने वाले पहले चीनी यात्री थे। वे एक चीनी बौद्ध भिक्षु थे, जो विक्रमादित्य अर्थात चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारत आए। वे बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी की यात्रा के लिए जाने जाते हैं। फाह्यान ने 15 वर्षों तक यहाँ रहकर बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया। उनकी यात्राओं का उल्लेख उनकी पुस्तक बौद्ध राज्यों के अभिलेख में देखा जा सकता है। इसमें गुप्तकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति का वर्णन मिलता है।
हेन त्सांग दूसरे चीनी यात्री थे, जो हर्षवर्धन के काल में भारत आए, जिनकी यात्राओं का वर्णन उनकी पुस्तक सि यु की अर्थात दि रिकॉर्ड्स ऑफ दि वेस्टर्न वर्ल्ड में पढ़ा जा सकता है। ये 629 ई० से 643 ई० तक लगभग 13 वर्ष तक भारत में निवास करते हुए नालंदा विश्वविद्यालय में रहकर अध्ययन करते रहे। कुछ समय ये हर्षवर्धन के दरबार में भी रहे व हर्षवर्धन को शिलादित्य की उपाधि से विभूषित भी किया । ह्वेन त्सांग के संस्मरणों से पता चलता है कि हर्षवर्धन एक परिश्रमी और परोपकारी शासक थे, जो कला, साहित्यसृजन और ज्ञानार्जन को सदा प्रोत्साहन देते थे।
हेन त्सांग के बाद अन्य चीनी यात्री इत्सिंग भारत आए, जो यहाँ 671 ई० से 695 ई० तक रहे। ये भी बौद्ध धर्म व इसकी ज्ञानसंपदा को जानने के उद्देश्य से भारत आए थे। इन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय में 10 वर्ष तक अध्ययन किया तथा त्रिपिटकों की लगभग 400 प्रतियाँ अपने साथ ले गए। इनकी पुस्तक भारत तथा मलय द्वीपपुंज में प्रचलित बौद्ध धर्म के विवरण को बौद्ध धर्म तथा संस्कृति साहित्य के इतिहास का स्रोत माना जाता है। इनकी पुस्तक ‘ प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षुओं की आत्मकथाएँ’ में समकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति का विस्तृत विवरण मिलता है इत्सिंग 675 ई० में सुमात्रा से होकर समुद्र मार्ग से भारत आए थे और इन्होंने नालंदा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय के साथ उस समय के भारत पर भी प्रकाश डाला।
अल बेरुनी एक फारसी विद्वान थे, जो महमूद गजनवी के सोमनाथ आक्रमण के समय भारत आए। ये 1024 ई० से 1030 ई० के बीच भारत में रहे। ये भारत का अध्ययन करने वाले प्रथम इस्लामी विद्वान थे। यहाँ रहते हुए इन्होंने खगोल विद्या, संस्कृत तथा रसायन विद्या का अध्ययन किया। इनकी पुस्तक तहकीक-ए-हिंद में 11वीं शताब्दी के भारत की स्थिति का वर्णन पढ़ा जा सकता है। अल बेरुनी द्वारा लिखी गई। कुल 14 पुस्तकों में ‘किताब उल हिंद’ सबसे लोकप्रिय पुस्तक है। इस पुस्तक को दक्षिण एशिया के इतिहास का एक प्रमुख स्रोत माना जाता है।
इब्नबतूता मोरक्को मूल के अफ्रीकी यात्री थे, जो मुहम्मद बिन तुगलक के सल्तनत काल में भारत आए और 1333 ई० से 1347 ई० तक यहाँ रहे। भारत में उत्तर पश्चिम से प्रवेश करते हुए ये सीधे दिल्ली पहुँचे, जहाँ सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने इनका बहुत आदर-सत्कार किया और इन्हें दिल्ली का प्रधान काजी नियुक्त किया ।1342 ई० में इन्हें सुल्तान का राजदूत बनाकर चीन भेजा गया ।1345 ई० में ये मदुराई के सुल्तान के दरबार में गए। इनकी यात्राओं के संस्मरण ‘ किताब उल रेहला’ नामक पुस्तक में पढ़े जा सकते हैं।
मार्को पोलो वेनिस के निवासी इटली के एक प्रसिद्ध यात्री थे, जिन्हें मध्यकालीन यात्रियों का राजकुमार कहा जाता है। ये एक व्यापारी, अनुसंधानकर्त्ता और राजदूत थे।जिन्होंने भारत के साथ कई अन्य पूर्वी देशों का भ्रमण किया। ये रेशम मार्ग की यात्रा करने वाले प्रथम यूरोपियनों में से एक थे। वेनिस से प्रारंभ इनकी यात्रा में वह कुस्तुनतुनिया से वोल्गा तट, सीरिया, फारस, कराकोरम, बुखारा, स्टेपी के मैदानों से होते हुए पीकिंग पहुँचे। साढ़े तीन वर्षों में इनकी यह यात्रा पूरी हुई थी।
1292 ई० से 1293 ई० के बीच ये भारत में रहे। भारत में इन्होंने पांड्य नरेश मालवर्मन कुलशेखर के शासनकाल में दक्षिण भारत की यात्रा की। इनकी पुस्तक ‘दि ट्रेवल ऑफ मार्को पोलो’ में पांड्य शासन की समृद्धि, विदेश व्यापार एवं न्याय व्यवस्था पर व्यापक प्रकाश डाला गया है। पता चलता है कि पांड्य राज्य मावर मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ काकतीय वंश की रुद्रम्मा देवी के शासन का भी वर्णन मिलता है।
निकोलो कोंटी इटली का यात्री था, जो विजयनगर आने वाला पहला विदेशी यात्री था। राजा देवराय के शासनकाल में 1420 ई० से 1421 ई० में यह भारत आया था। मुस्लिम व्यापारी के वेश में ये इटली से भारत पहुँचा और दक्षिण पूर्व एशिया और चीन तक की यात्रा इसने की। लेटिन भाषा में अपने यात्रा वृत्तांतों को इसने लिपिबद्ध किया, जिसमें यहाँ के शहर, राजदरबार और त्योहारों का वर्णन मिलता है। इसी तरह फारसी विद्वान अब्दुल रजाक विजयनगर के देवराय द्वितीय के शासनकाल में 1442-1445 ई० के दौरान भारत आया था। ये कालीकट के शासक के यहाँ फारस के शासक के राजदूत थे।
कैप्टन विलियम हॉकिंस ने 1609 ई० में ईस्ट इंडिया कंपनी की पहली समुद्री यात्रा का नेतृत्व किया था। ये जहाँगीर के दरबार में विलियम जेम्स प्रथम के राजदूत थे। ये अँगेरजों के व्यापारिक अधिकारों की रक्षा के लिए भारत आए थे। सर टॉम्स रो जहाँगीर के दरबार में आने वाले दूसरे अँगरेज शिष्टमंडल के नायक थे, जो 1615 ई० से 1619 ई० के बीच यहाँ रहे। ये माण्डू और अहमदाबाद की यात्रा के दौरान जहाँगीर के साथ थे।
इनकी पूर्वी द्वीपों की यात्रा नामक विवरण में मुगल दरबार के षड्यंत्रों एवं धोखाधड़ी का विवरण मिलता है। फ्रेंकोइस वर्नियर एक फ्रांसीसी यात्री एवं चिकित्सक थे, जिन्होंने 1658 ई० से 1671 ई० के दौरान भारत का भ्रमण किया। ये लगभग 12 वर्षों तक मुगल सम्राट औरंगजेब के निजी चिकित्सक रहे। इनकी पुस्तक ‘ट्रैवल इन दि मुगल एम्पायर’ में दारा शिकोह एवं औरंगजेब के काल का विशेष रूप से वर्णन मिलता है। इसी तरह थॉमस रो की पुस्तक ‘जर्नल ऑफ दि मिशन टू दि मुगल एम्पायर’ तत्कालीन भारतीय इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है।
इस तरह ये विदेशी यात्री विभिन्न उद्देश्यों से भारत आए, यहाँ के समाज को इन्होंने नजदीक से देखा और अपने अनुभवों को कलमबद्ध करते हुए तत्कालीन इतिहास के महत्त्वपूर्ण साहित्यिक स्रोत इन्होंने हमें प्रदान किए, जिनके आधार पर हमें उस समय के समाज, शासन, रहन-सहन, लोकजीवन व संस्कृति आदि की जानकारी उपलब्ध होती है।
-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
दिसंबर 2021 ,अखण्ड ज्योति