संसार में अच्छा और बुरा दोनों प्रकार का मसाला लगा हुआ है। ईंट और चूना अलग-अलग तरह की चीजें हैं, पर दोनों को मिलाकर ही इमारत बनती है। लगता है ईश्वर को इस दुनिया की इमारत बनाते समय अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के पदार्थों की जरूरत अनुभव हुई होगी। जो भी हो यह सत्य है कि यहाँ परस्पर विरोधी दो सत्ताएँ मौजूद हैं। प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख, पुण्य-पाप, मित्र-शत्रु, शुभ-अशुभ, विजय-पराजय, सत्-तम, देव-असुर-ये दोनों ही परस्पर विरोधी कहिए या एकदूसरे के पूरक कहिए, यहाँ मौजूद हैं। यह भिन्नता परमात्मा ने क्यों बनाई, इसका वास्तविक कारण तो वही जानता है, पर इतना हम सब जानते हैं कि विकास और विनोद की दृष्टि से संघर्ष आवश्यक है, उसके बिना गतिहीनता का सन्नाटा छा जाएगा।
जो हो, हम अपनी मन मरजी की दुनिया नहीं बना सकते। यह जैसी भी कुछ है उसी में काम चलाना पड़ता है। सुधार के लिए समय-समय पर नेता, गुरु, मार्गदर्शक, विचारक और अवतार यहाँ आते रहते हैं और कुछ समय के लिए संतुलित कर जाते हैं। बिगाड़ फिर शुरू हो जाता है और कुछ दिन बाद कोई नया अवतार फिर आता है। इस प्रकार बिगाड़ने वाली असुरो और दैवी शक्तियाँ अपना-अपना काम बराबर करती रहती हैं। यहाँ यह रस्साकशी अनादिकाल से चलती चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी।
सोचना यह है कि यहाँ हम किस प्रकार सोचें और करें जिससे हमारे आनंद उद्देश्य में विक्षेप उत्पन्न न हो। उपाय एक ही है कि हम शुभ में अनुरक्त रहें और अशुभ की उपेक्षा करें। उपेक्षा से मतलब यह नहीं कि उसे सुधारा न जाए, गंदगी को जहाँ का तहाँ पड़ा रहने दिया जाए, वरन यह कि मस्तिष्क को उससे अधिक प्रभावित न होने दिया जाए, उसी का चिंतन सदा न करते रहा जाए। अनुरक्ति से मतलब यह है कि यहाँ जो कुछ श्रेष्ठ है, शुभ है, उससे अधिक संपर्क बढ़ाया जाए, उसकी समीपता प्राप्त की जाए और उसी के संबंध में मस्तिष्क को अधिक सोच-विचार करने दिया जाए।
हमारे मन और मस्तिष्क की बनावट दर्पण की तरह है। इसमें जिस प्रकार की छाया पड़ती है, उसका रूप वैसा ही दीखने लगता है। जो वस्तु सामने रखी होगी, दर्पण में भी वैसी ही आकृति प्रतिबिंबित होगी। जैसे लोगों के संपर्क में रहा जाएगा, जैसा साहित्य पढ़ा जाएगा, जैसे वातावरण में बसा जाएगा, जैसा सोचते रहा जाएगा, मन उसी ढांचे में ढलने लगेगा और फिर धीरे-धीरे अपना स्वभाव एवं दृष्टिकोण भी वैसा ही बन जाएगा।
अपने मस्तिष्क में जिस प्रकार की विचारधाराएँ उठती, बनती और जमती हैं, इसे देखना और समझना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी के आधार पर तो जीवन की दिशा बनती है। हम जैसा सोचते हैं वैसा करने लगते हैं और जो करते हैं, वही हमारा व्यक्तित्व एवं चरित्र माना जाता है। हम क्या बन रहे हैं, क्या बनने जा रहे हैं और अंतत: क्या बन जाएँगे, इसका निष्कर्ष निकालना कुछ अधिक कठिन नहीं है। किस स्तर की विचारधारा। मस्तिष्क में घूमती रहती है, किन भावनाओं से प्रेम है, यह मालूम हो जाने पर यह अनुमान सहज ही लग जाता है कि हमारा भविष्य क्या बनने जा रहा है?
हर कोई यह चाहता है कि उसका भविष्य उज्ज्वल बने, सदा प्रसन्नता रहे और मंगलमय परिस्थितियों एवं व्यक्तियों से संपर्क रहा करे। इस इच्छा की पूर्ति तनिक भी असंभव नहीं है, यदि अपने विचारों पर नियंत्रण करना, कुविचारों को हटाना और सद्विचारों को अपनाना सीख लिया जाए। विचारों में एक उच्चकोटि को आकर्षण शक्ति रहती है।
बुराइयों की ओर से हमें अन्यमनस्क रहना चाहिए। उन्हें बढ़ने से रोकना तो चाहिए पर निरंतर उन्हीं का चिंतन करें और उन्हीं में तन्मय होकर अपनी मनोभूमि को भी वैसी ही गंदी बना लें, यह उचित नहीं। बुरी बातों को सोचते रहने से मन में क्रोध, क्षोभ, घृणा, द्वेष और दुःख की ही भावनाएँ बढ़ेगी और इस बढ़ोत्तरी से अपना आंतरिक विकास नहीं होगा, वरन उलटे बाहरी स्वभाव में निंदा, ईर्ष्या, द्वेष, कुढ़न, कटुता का समावेश हो जाने से अपने व्यक्तित्व का स्तर नीचा हो जाएगा। चिड़चिड़ापन, झुंझलाहट, अविश्वास, तिरस्कार, क्रोध, आवेश का स्वभाव उन लोगों का बन जाता है। जो दुनिया में बुराई ही बुराई ढूँढते, देखते, सुनते और मानते रहते हैं। यह लाभदायक नहीं हानिकारक प्रक्रिया है। चित्त को दुर्भावनाओं में डुबाए रहना कहाँ की बुद्धिमानी है ? इसमें अपना तो अहित ही अहित है।
दुनिया में जबकि बुराई ही नहीं अच्छाई भी मौजूद है तो उसे ही क्यों न ढूँढा, सोचा, चुना और अपनाया जाए, जिससे अपने मन को शांति, संतोष और प्रसन्नता अनुभव हो। लोगों ने अपने साथ अनेकों उपकार और अनेकों अपकार किए होते हैं। यदि अपकारों को याद रखा जाए और उपकारों को भुला दिया जाए तो दुनिया अत्यंत निकृष्ट कोटि के स्वार्थियों से भरी प्रतीत होगी। किंतु यदि अपकारों की उपेक्षा कर उपकारों को ही स्मरण रखा जाए तो ऐसा प्रतीत होगा कि इस संसार में अधिकतर लोग देवता जैसे स्वभाव वाले ही रहते हैं।
संसार को असुरों से भरा देखा-देखकर कुढ़ते रहने का यदि अपना मन हो तो इसका बहुत सरल उपाय है कि मनुष्यों की बुराइयों को ढूँढ़ा, देखा, सुना और सोचा जाए। इसके विपरीत यदि ऐसा विचार हो कि इसी संसार में देवताओं का निवास है तो संतोष और प्रफुल्लता की अनुभूति उपलब्ध होगी। यह मार्ग भी सरल है। करना केवल इतना पड़ेगा कि लोगों के सद्गुण, सत्कर्म, सद्भाव और सत्प्रयत्नों को खोजने में मन लगाना होगा और उनकी छोटी-मोटी भूलों की उपेक्षा एवं अपूर्णता को एक छोटी सी झाँकी मात्र समझकर उपेक्षा में डाल देना होगा। इस आंतरिक परिवर्तन से बाहरी दुनिया बिलकुल दूसरी प्रकार की दिखाई देने लगेगी।
द्वेष की फूटी आँख से दीखने पर यहाँ सर्वत्र अँधेरा ही सूझेगा, पर यदि प्रेम की ज्योति को पुतली में चमक होगी तो यह सुंदर तसवीर सी दुनिया अत्यंत मनोरम और शोभा- सौंदर्य से पूर्ण दीख पड़ेगी। दुनिया को बदलने से पहले हमें कराना होगा। संसार में बिखरे हुए सब काँट हटाकर निष्कंटक मार्ग बना सकना कठिन है। हाँ, यह हो सकता है कि पैरों में जूते पहनकर काँट-कंकड़ों को कुचलते हुए चाहे जिधर से अपना रास्ता बना लिया जाए। अपने देखने का ढंग बदल लिया जाए, अपनी विचार-शैली को यदि सुधार लिया जाए तो यहाँ प्रसन्नता और आनंददायक परिस्थितियाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकती हैं। अपने छोटे-मोटे साधन और भले-बुरे स्वजन संबंधी ही प्राणप्रिय दीखने लग सकते हैं। संतोष के लिए पर्याप्त साधन मौजूद हैं।
संसार में बुराई बहुत है पर अच्छाई से अधिक नहीं। यदि यहाँ पाप और अशुभ ही अधिक होता है तो आनंदी आत्मा इस भूलोक में अवतरित होने के लिए स्वेच्छापूर्वक कभी भी तैयार न होती। कोई मरना नहीं चाहता, मरते समय दुःख मानता है, उसका तात्पर्य ही यह है कि यहाँ उसे अप्रिय दुःख की अपेक्षा सुख अधिक दिखाई देता है।
दुखी व्यक्ति तो आत्महत्या तक के लिए उतारू हो जाता है, पर हम सब मरने की बात सुनने तक से घबराते हैं। आत्मा यह अनुभव करती है कि यहाँ दु:ख की अपेक्षा सुख अधिक है, तुलना में अच्छाई बढ़ी-चढ़ी है इसलिए यहाँ ही रहना चाहिए। इस शरीर में ही रहना चाहिए। इसे छोड़कर नहीं जाना चाहिए। मौत का डर लगना इसी तथ्य की पुष्टि करता है।
हर कर्मों से कुढ़ते, कुड़कुड़ाते और बड़बड़ाते रहने की आदत बहुत ही बुरी, हानिकारक और विपत्तियों को जन्म देने वाली है। इससे अपने भी पराये हो जाते हैं। निंदा और कटाक्ष करते रहने वाला दूसरों की आँखों में अपना सम्मान खो बैठता है। प्रशंसा की आदत जिन्होंने अपना ली है उनके आस-पास बच्चे बूढ़े सभी घिरे रहते हैं। गुलाब के फूल पर मधुमक्खियाँ और भौरे घिरे रहते हैं। उसको सुंगध से दूर- दूर तक के लोगों का चित्त प्रसन्न रहता है। संतुष्ट और प्रसन्नचित्त रहने वाले, हर घड़ी मधुर मुस्कान जिसके चेहरे पर खेलती रहती है, वस्तुत: गुलाब के फूल के समान है जो अपना जीवन धन्य बनाता है और दूसरों पर आनंद का उपहार बरसाता हुआ उनका स्नेह आशीर्वाद संपादन करता रहता है।
प्रसन्न रह सकना इस संसार का बहुत बड़ा सुख है। हर कोई प्रसन्नता चाहता है, आनंद की खोज में है और विनोद तथा उल्लासमयी परिस्थितियों को ढूँढ़ता है। यह आकांक्षा निश्चय ही पूर्ण हो सकती है यदि हम बुराइयों की उपेक्षा करना और अच्छाइयों से लिपटे रहना पसंद करें। इस संसार में सभी कुछ है। अच्छाई भी कम नहीं है। बुरे आदमियों में से भी अच्छाई ढूँढ़ें, आपत्तियों से जो शिक्षा मिलती है, उसे कठोर अध्यापक द्वारा कान ऐंठकर दी हुई सिखावन की तरह सीखें। उपकारों को स्मरण रखें। जहाँ जो कुछ श्रेष्ठ हो रहा है उसे सुनें और समझें। अच्छा देखो और प्रसन्न रहो’ का मंत्र हमें भली प्रकार जपना और हृदयंगम करना चाहिए।
स्वभाव में प्रसन्नता को सम्मिलित कर लेने में जीवन की बहुत बड़ी सार्थकता और सफलता सन्निहित है। मुँह लटकाए रहने की, रूठने की, भवें तरेरे रहने की आदत छोड़ देनी चाहिए। हँसते और मुस्कराते रहने वाले का आधा डर तो अपने आप ही चला जाता है और आधे डर को वह अपने पुरुषार्थ तथा स्वजनों के सहयोग से दूर कर लेता है, जो प्रसन्न मुख रहने के कारण अनायास ही मित्रता करने लगते हैं। प्रसन्नता, मित्र बढ़ाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। जो हँसता है उसकी हँसी में सम्मिलित रहने के लिए दसियों व्यक्ति लालायित रहते हैं। पर जो साँप की तरह मुँह फुलाए बैठा रहता है और व्यंग्य वाणों की, कटु वचनों की फुसकार ही छोड़ता रहता है, उसके समीप जाने की हिम्मत कौन करेगा?
अप्रसन्नता का एकमात्र कारण दोषदर्शक दृष्टिकोण ही है। यदि अपना मन कलुषित न हो, दृष्टिकोण उदार रहे तो फिर प्रसन्नता का वातावरण ही सर्वत्र दिखाई देगा। आदत में प्रसन्नता और मुस्कान को शामिल कर लेने से तो भीतरी और बाहरी दोनों ही प्रसन्नताएँ गंगा- यमुना की तरह इकट्ठी होकर तीर्थराज प्रयाग की-आनंदमय जीवन की रचना करती हैं। इस संगम पर स्नान करने वाला हर व्यक्ति शांति और प्रफुल्लता अनुभव करता है। हम अपनी प्रवृत्तियों को इसी दिशा में क्यों न मोड़ें? कीचड़ में भी कमल खिल सकता है तो हमें विपन्न परिस्थितियों में रहते हुए भी प्रफुल्लित रहने में क्या कठिनाई होनी चाहिए।
जिंदगी हँसते-खेलते जिएँ
~पं. श्रीराम शर्मा आचार्य