संसार से अलग कहीं कोई स्वर्ग अथवा नरक है-इसकी खोज- खबर करने से कहीं अच्छा है कि मनुष्य अपनी इस धरती पर विद्यमान स्वर्ग-नरक की खोज करे, पहचाने और उसे पाने अथवा उससे बचने का प्रयत्न करे।
अभौतिक स्वर्ग एवं नरक अप्रत्यक्ष हैं। उन्हें किसने, कब देखा अथवा कब पाया, इसका दृष्टिगोचर प्रत्यक्ष प्रमाण इस समय हम साधारण मानवों के पास नहीं। हाँ, धरती के स्वर्ग-नरक हमारे सामने हैं। उनको इन चर्मचक्षुओं से देखा जा सकता है और उनको पाया अथवा उससे बचा जा सकता है।
स्वर्ग एवं नरक का स्थूल अर्थ है-सुख तथा दुःख। जो व्यक्ति अंदर तथा बाहर से सुखी एवं प्रसन्न है-वह स्वर्ग में स्थित है और जो अंदर-बाहर से दुखी अथवा अप्रसन्न है-वह नरक में स्थित है। मनुष्य इस भौतिक स्वर्ग-नरक को अपने भौतिक शरीर से ही पा सकता है, उसे देख सकता है और अपनी इंद्रियों द्वारा उसके रस अथवा विष को अनुभूत कर सकता है।
स्वर्ग एवं नरक की उभय स्थितियों में से कोई भी व्यक्ति स्वर्गीय स्थिति की ही कामना करेगा। ऐसा कौन मूर्ख अभागा होगा जो नरक की यातना चाहेगा। मनुष्य से लेकर कीट-पतंग तक जितने भी जीवधारी हैं, वे सब स्वर्ग अर्थात सुख की स्थिति ही पाने की कोशिश किया करते हैं। उनमें से बहुत से पाते भी हैं और अनेक असफल भी रहते हैं। स्वर्ग- नरक के प्रति प्राणियों की अनुभूति इतनी तीव्र है कि एक अबोध शिशु तक अपने हास-रुदन से यह सूचित कर देता है कि वह उस समय स्वर्ग की स्थिति में है अथवा नरक को यातना में। अनुभूति की यह तीव्रता और हास-रुदन के रूप में उसकी अभिव्यक्ति इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य ही क्यों, प्राणिमात्र स्वर्ग की ही स्थिति चाहता है, नरक की नहीं। यही उसका चरम लक्ष्य भी है और यही उसका चरम विकास।
स्वर्ग क्या है ? सुख-शांति, आनंद-मंगल , कुशल-क्षेम तथा पुण्य-प्रकाश की परिस्थिति ही स्वर्ग है। इस स्थिति में मनुष्य का मन प्रसन्न, शरीर स्वस्थ तथा आत्मा सस्मित रहा करती है। वह दिन-दिन उन्नति करता हुआ, सफलताओं की वरमाला पहनता हुआ, संसार में पुण्य-प्रताप के बल पर कीर्तिमान होकर अमर हो जाता है। भौतिक शरीर में प्रसन्न परिस्थितियों के बीच निवास करना ही स्वर्गीय भोग है और अंत में यहाँ-शरीर से निर्लिप्त होकर अमरत्व पा लेना स्वर्ग का अंतिम एवं लक्ष्य फल है।
इस समुन्नत स्वर्गीय स्थिति तक पहुँचने के लिए सोपान-परंपरा को ‘सदाशयता’ का एक नाम दिया जा सकता है। सब कुछ सद् एवं शुभ हो करना स्वर्ग की पावन परिस्थिति की ओर अग्रसर होना है। मनुष्य एक जीवन है और जीवन का ठीक-ठीक अर्थ है- सुस्वास्थ्य स्वास्थ्य स्वर्ग का प्रथम एवं मूलभून सोपान है। स्वस्थ शरीर स्वस्थ मन और स्वस्थ आत्मा का त्रिविष्टप हो सच्चा स्वर्ग है। इसे प्राप्त कर लेने पर स्वर्ग की अन्य सारी सहायक परिस्थितियाँ स्वयं प्राप्त हो जाती हैं।
शरीर हृष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ है तो मनुष्य धरती को चीरकर सुख का स्रोत निकाल लेगा। वह आवश्यकतानुसार दिन-रात परिश्रम कर सकता है। क्लाति, अशांति, अनिद्रा अथवा अजीर्ण उसके निकट नहीं आ सकते। निराशा एवं चिंता को परिस्थिति उसे विचलित नहीं कर सकती। स्वस्थ श्रम से सद्दीप्त उसकी क्षुधा साधारण अन्न को पचाकर उसे परमतृप्ति प्रदान करने में समर्थ रहती है, जिससे उसे संतोष होगा। लिप्सा एवं लोलुपता से रक्षा होगी। स्वस्थ शरीर ऋतुओ का आनंद, प्रकृति का सौंदर्य अनुभून कराके स्वर्गीय सुख ही प्रदान करता है। जलवायु का परिवर्तन उस पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल पाता। स्वस्थ मनुष्य सदैव प्रसन्न एवं प्रमुदित रहा करता है। व्यग्रता- विवशता उसके पास होकर नहीं गुजरती। मनुष्य की मूल नीरोग अवस्था को स्वर्गीय स्थिति के सिवाय और क्या कहा जा सकता है?
जो पुष्ट एवं बलिष्ठ है, वह निर्द्वद्व ही रहा करता है। उसको न तो किसी शत्रु से भय और न किसी संघर्ष के प्रति चिंता ही रहा करती है। स्वस्थ मनुष्य का स्वभाव सहज रूप से मधुर एवं सौजन्यपूर्ण रहा करता है। अक्रोध के कारण वह बहुधा अजातशत्रु ही रहता है तथापि यदि कोई अकारण द्वेषी दुष्ट उससे बैर बाँधता भी है तो वह उससे हर प्रकार से निपट लेने की क्षमता रखता है। उसे शंका अथवा भय नहीं रहता। अपने स्वस्थ एवं सशक्त शरीर के भरोसे वह सदा निर्भय रहा करता है। अभयता स्वर्ग की एक उत्कृष्ट अनुभूति है, स्वस्थ व्यक्ति जिसका सहज अधिकारी होता है।
मन को ईर्ष्या, द्वेष, कलह – क्लेश तथा कामनाओं के कलुष ले बचाइए। प्रसन्न वातावरण के बीच प्रसन्नचेता व्यक्तियों के साथ रहिए। क्रोध से इसकी रक्षा कीजिए और संकीर्णता की सीमाएँ तोड़कर स्वर्गीय क्षितिज में विस्तृत होने दीजिए। शुभ कल्पनाओं, सद्भावनाओं एवं शिव-संकल्पों से इसे संपन्न बनाइए। आपका मानस आपके लिए प्रत्यक्ष स्वर्ग ही बन जाएगा। पुण्य-प्रयत्नों से प्रसन्न किया हुआ कुंठारहित मन स्वर्ग ही क्या बैकुंठ धाम को परिस्थिति उत्पन्न कर देता है।
सत्संग, स्वाध्याय, चिंतन तथा चार चरित्र से आत्मा को प्रबुद्ध कीजिए। उस पर पड़े कुसस्कारो के आवरण को पुण्य कर्मों से जला डालिए। परोपकार एवं परमार्थ में आस्था रखए । आस्तिकता के बल पर आत्मा की उपस्थिति पहचानिए उसे प्रत्यक्ष होने का अवसर दीजिए। आपको बुद्ध एवं प्रबुद्ध आत्मा अपने भीतर छिपे शत-शत स्वर्गों को आपके लिए प्रत्यक्ष एवं उपलक्ष्य बना देगी। स्वास्थ्य के बाद स्वर्ग का दूसरा सोपान है-परिवार। परिवार में प्रेम एवं प्यार का संचार कीजिए। श्रम एवं सहनशीलता के बल पर कलह-क्लेश को पास मत आने दीजिए। अपने त्याग के उदाहरण से
सदस्यों में त्याग-भावना की प्रवृत्ति जगाइए, शिक्षा का प्रसार करिए, संतोष एवं मितव्ययता का गुण सीखिए और सिखाइए। हर छोटे-बड़े के बीच सहमति एवं सम्पति रखिए। पत्नीव्रत धर्म के साथ गृहस्थ का हर उचित कर्तव्य निभाइए, हर मूल आवश्यकता की पूर्ति करिए और प्रत्येक कृत्रिम आवश्यकता को दूर भगाइए, परिवार की सुख-सुविधा के लिए अबाध श्रम करिए, परिवार का पालन पवित्र कमाई से करिए। झूठ, प्रपंच तथा छल, कपट की दूषित कमाई के अन्न से बच्चों के संस्कार न बिगाडिए। इस प्रकार उत्पन्न किया हुआ पारिवारिक सुख पृथ्वी का जीता-जागता स्वर्ग है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी भी है। समाज में रहता हुआ मनुष्य यदि उसकी उपेक्षा करके अपना स्वर्ग अलग से बसा लेना चाहे तो यह उसके लिए कठिन भी होगा और अनुचित भी। समाज के साथ सुख- सुविधाओं को मिल-बाँटकर भोग करने के एक व्यापक स्वर्ग का आनंद है। हमारे पास सुख सुविधाएँ हों और हम उनको केवल अपने परिवार के सदस्यों के साथ उपभोग करते रहते हैं और अपने पड़ोस में बसे परिवार को आवश्यकताग्रस्त देखते रहते हैं तो हमारा यह स्वर्ग दूषित हो जाएगा। यथासाध्य समाज के साथ हो मिल- बाँटकर उपभोग करने पर साधन एवं सुविधाएं स्वर्गीय आनंद देती हैं। हम स्वयं तो हंसते विहँसते रहें और पास की आह-कराह पर ध्यान न दें अथवा ध्यान देकर उपेक्षा कर दे तो हमारा वैधानिक स्वर्ग बहुत दिन सुरक्षित नहीं रह सकता।
हम सब एक राष्ट्र भी है। हमारा एक राष्ट्रीय अस्तित्व भी है। हमारी एक मातृभूमि तथा देश भी है जिसके प्रति हमारे अनेक कर्तव्य निश्चित हैं। उन कर्तव्यों का पालन न करने का अर्थ है-अपने शारीरिक, पारिवारिक तथा सामाजिक स्वर्ग-सुख को कलंकित करना, राष्ट्रीय कर्तव्यों में मातृभूमि की रक्षा में बलिदान, उसकी उन्नति के लिए त्याग तथा उसके गौरव के लिए सदाचार का पालन करना, स्वर्गीय सुख उपलब्ध करने का एक सात्त्विक उपाय है। राष्ट्र की सेवाओं, व्यवसायों तथा निर्माण कार्यक्रमों में ईमानदारी के साथ अपना अंशदान करना एक पवित्र साधन है, जिसका फल एक स्वर्गीय संतोष ही होगा।
राष्ट्र के बाद सार्वभौमिकता की भावना भी स्वर्गीय सुख का एक अग्रिम सोपान है। मानवता को भूलकर केवल राष्ट्र तक सीमित हो जाना भी एक स्वार्थपूर्ण संकीर्णता ही है। मानवता का दुःख दूर करने को अंशदान करना, यथासंभव उसकी सेवा करना, उसके लिए कष्ट उठाने की प्रवृत्ति का विकास करना, अपने वांछित एवं अक्षय स्वर्ग की ओर बढ़ना ही है। संपूर्ण मानवता में आत्मीयता की भावना रखना ही ईश्वर प्रधान अंश मनुष्य के लिए शोभनीय है। व्यष्टि से समष्टि एवं समष्टि से बढ़कर सार्वभौमिक बनने वाले महापुरुष जीवन भर स्वर्गीय अनुभूति का आनंद लेकर युग-युग के लिए यशरूपी शरीर से अमर हो जाते हैं।
शारीरिक स्वास्थ्य से मानसिक एवं आत्मिक स्वास्थ्य का विकास करते हुए समाज, राष्ट्र तथा अंतर्राष्ट्रीय कर्तव्यपालन के सात सोपानों पर अधिकार कर लेने वाला मनुष्य निश्चय ही इस धरा धाम पर ही सच्चे तथा प्रत्यक्ष स्वर्ग का अधिकारी बनता है। धरती का स्वर्ग पाना किसी भी व्यक्ति के लिए कठिन नहीं है। यदि वह वास्तव में दैवी जीवन के साथ स्वर्ग-सुख का आकांक्षी है। संयम, सदाचार तथा सद्भावना रखने वाला सदाशयी व्यक्ति निश्चय ही इस प्रत्यक्ष एवं अक्षय स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक को ही इस संपूर्ण स्वर्ग को पाने का प्रयत्न करना चाहिए, नहीं तो कम से कम उसके एक दो सोपानों पर तो चढ़ ही जाना चाहिए।
कलात्मक जीवन जिएँ ( व्यक्तित्व मनोविज्ञान )
~पं. श्रीराम शर्मा आचार्य