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गुरु नानक की देशभक्ति और राजनीतिज्ञता

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वैसे सामान्य दृष्टि से नानक देव एक ईश्वरप्रेमी और भक्ति- मार्ग के पथिक थे। उनके रचे हुए अधिकांश भजन और वाणियाँ भगवान् की महानता को प्रकट करने वाली स्तुति और प्रार्थना के रूप में है। पर जब हम उन पर सूक्ष्म भाव से विचार करते हैं तो उनमें तथा मध्यकाल के अन्य भक्त कवियों में एक बड़ा अंतर पाते हैं। जहाँ उन सब कवियों की रचनाओं में हद दर्जे की हीनता, आत्म तिरस्कार और अपने इष्ट देव की कृपादृष्टि प्राप्त करने का ही भाव प्रकट होता है, वहाँ नानक जी ने अवसर मिलने पर ऐसी रचनायें भी की हैं, जिनसे देश तथा समाज को तत्कालीन समस्याओं के प्रति उनकी जागररुकता प्रकट होती है। “नानक जयंती” पर डॉ० महीपसिंह ने उनकी रचनाओं की जो जाँच पड़ताल की- उससे विदित होता है कि वे केवल अध्यात्म- जगत् अथवा बैकुंठ में बैठकर आत्म सुख की अभिलाषा रखने वाले संत नहीं थे, वरन् अपने समाज की त्रुटियों और दोषों के एक निर्भीक और प्रबल समीक्षक थे। उस समय इस देश के हिंदू राजाओं में हद दर्जे की भोग- लिप्सा तथा मातृभूमि के प्रति अकर्मण्यता का भाव आ गया था। विदेशियों और विधर्मियों का प्रतिरोध करने के बजाय वे अपनी स्वार्थ पूर्ति और रंगरेलियों में लगे रहते थे। यह देखकर गुरू नानक ने उनको बड़े रोषपूर्वक फटकारा।

जिन सिरि सोहनि पाटियाँ माँगी पाई संधूर | से सिर काती मुनी अन्हि गल बिच आवे धूड़ि। ॥ महला अंदरि होदीआ हुणि वहणिन मिलन्ह हटूरि ॥

जदहु सीआ बिआहीआ लाड़े सोहनि पासि। हीडोली चढ़ि आईआ दंद खंड दीदे रासि। उपपहु पाणी बीरिऐ झले झपकनि पासि।। इक लखु लहन्हि बहिठीआ लखु लहन्हि खड़ी आ । गरी छुहारे खाँदीआ माणन्हि से जडीआ ।। तिन्ह गलि सिलका पाईया तुरीन्ह मोत सरी आ॥ धनु जोवन दुइ वैरी होए जिन्ही रखे रंगु लाइ । दुता नो फुरमाइया लै चले पति गवाई। ।।

अर्थात्- “जिन स्त्रियों के सिर में सुंदर पट्टियाँ शोभित होती थीं, जिनकी माँग में सिंदूर भरा हुआ था, अत्याचारियों ने उनके केश काट डाले और उन्हें भूमि पर इस तरह घसीटा कि गले तक धूल भर गई। जो महलों में निवास करती थीं, उनको अब बाहर बैठने को , भी जगह नहीं मिलती। विवाहित स्त्रियाँ जो अपने पतियों के पास सुशोभित थीं, जो पालकियों में बैठकर आई थीं, जिन पर जल न्यौछावर करते थे, जड़ाबदारपंखों से हवा करते थे, जिन पर लाखों रूपये लुटाये जाते थे, जो मेवा मिठाई खाती थीं, सेजों पर सुख भोगती थीं, अब अत्याचारी उनको गले में रस्सी डालकर खींच रहे हैं और उनके गले की मोतियों की मालाएँ टूट गई हैं अभी तक धन और यौवन ने उन्हें अपने रंग में रंग रखा था, अब वह दोनों उनके बैरी हो गये। सिपाहियों को आज्ञा मिली और वे उनकी इज्जत को लूटकर चले गए।” अपने देश के संपन्न वर्ग की उस कठिन समय में कैसी दुर्गति हुई, उसकी एक झलक इस कविता में मिलती है। जब मनुष्य इस प्रकार विवश हो जाता और अत्याचार का कुछ प्रतिकार नहीं कर सकता तो वह भगवान् को उलाहना देने लगता है कि तुम कैसे न्यायकारी और करुणासिंधु हो जो संसार में ऐसा अंधेरखाता मचवा रहे हो। इस भाव से प्रेरित होकर नानक जी ने लिखा-

खुरासान खसमान कीआ हिंदुस्तानु डराइआ। आपै दोसु न देई करता जमु का मुगल चढ़ाइआ। एती मार पई कर लणे तैं की दरदु न आइआ करता तू समना का सोई। जो सकता सकते कउ मारे ता मनि रोसु न होई । सकता सीहू मारे पै वर्ग खसमै सा पुरसाई। ॥

अर्थात्- “हे भगवान् ! बाबर ने खुरासान को बर्बाद किया,, पर तुमने उसकी रक्षा न की और अब हिंदुस्तान को भी उसके आक्रमण से भयभीत कर दिया है। तुम स्वयं ही ऐसी घटनाएँ कराते हो, परंतु तुमको कोई दोष न दे इसलिए तुमने मुगलों को यमदूत बनाकर यहाँ भेज दिया। सर्वत्र इतनी अधिक मार काट हो रही है कि लोग त्राहि त्राहि पुकार रहे हैं। पर तुम्हारे मन में इन निरीह लोगों के प्रति तनिक भी दर्द पैदा नहीं होता। हे भगवान् ! तुम तो सभी प्राणियों के समान रूप से पालनकर्ता कहलाते हो, फिर यदि एक शक्तिशाली दूसरे शक्तिशाली सिंह, निरपराध पशुओं के झुंड पर आक्रमण करे तो उनके स्वामी को कुछ तो पुरूषार्थ दिखाना चाहिए।”

इस तरह परमात्मा को जोरदार उलाहना देकर नानक जी ने इस देश के प्रमुख शासकों तथा बड़े लोगों को भी फटकारा है कि तुमने अपने कर्तव्य को बिसरा दिया और भोग विलास में डूब गए, उसी का नतीजा इस तरह भोग रहे हो-

रतन बिगाड़ बिगोए कुतीं मुइआ सार न काई । आगो देजे चेतीए तो काइतु मिलै सजाइ । शाहां सुरति गबाईआ रगि तमासै चाइ। बाबर वाणी फिरि गई कुइरा न रोटी खाई । इकता बखत खुआई अहि इकंहा पूजा खाई। चउके विणु हिंदवाणीआ किउ टिके कढहि नाइ । राम न कबहू चेतिओ हुणि कहणि न मिलै खदाई ।

अर्थात्- “इन नीच कुत्तों (विलासी शासकों) ने रतन के समान इस देश को बिगाड़कर रख दिया। इनके मरने के बाद कोई इनकी बात भी नहीं पूछेगा। अगर ये पहले से ही सावधान हो जाते तो हमको ऐसी सजा क्यों मिलती? पर यहाँ के शासक तो सदा रंग तमाशों में ही डूबे रहे, उन्हें अपने कर्तव्य का ध्यान ही न था। नतीजा यह हुआ कि इस समय चारों ओर बाबर की दुहाई फिर गई है, किसी को रोटी तक खाने को नहीं मिलती। मुसलमानों (पठानों) की नमाज का समय जाता रहा और हिंदुओं की पूजा छूट गई। अब चौके के बिना हिंदू स्त्रियाँ किस प्रकार अपनी पवित्रता की रक्षा करेंगी? जिन्हें कभी राम शब्द भी याद नही आया था, अब वे आक्रमणकारियों के भय से खुदा को याद करना चाहते हैं, परंतु जालिम लोग उनको खुदा भी नहीं कहने देते।”

खेद का विषय है कि इस प्रकार की जिल्लत उठाकर और अमानुषी दंड सहन करके भी हिंदुओं की आँखें नहीं खुलीं। उसके पश्चात् भी मानसिंह, जयसिंह, यशवंतसिंह आदि प्रमुख राजपूत नरेश मुगल बादशाहों के अनुचर बनकर अपने ही भाइयों को पराधीन बनाने का पाप कर्म करते रहे। उसके बाद जब अंग्रेज आए तब भी हिंदुओं ने ही उनके सहायक बनकर शासन कार्य में हर तरह से सहयोग दिया और आज के दिन भी इस जाति की पारस्परिक फूट, मत- विरोध, कर्तव्यहीनता स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। वह तो इस समय अंतर्राष्ट्रीय राजनीति बदल गई है, नहीं तो हमारे कर्म तो अब भी ऐसे ही हैं कि कोई भी बड़ी विदेशी शक्ति हम पर आक्रमण करके पठानों और मुगलों की तरह ही चोटी पकड़कर जमीन पर घसीटे और मनमाने ढंग से बेइज्जत करें; और आश्चर्य तब होता है, जब इतनी नालायकी पर भी लोग बेशरमी से अपने को महान्, श्रेष्ठ, पुण्यात्मा, धर्मात्मा कहने में संकोच नहीं करते। हिंदू- जाति की इसी हेय मनोवृत्ति को देखकर अब से लगभग आठ- नौ सौ वर्ष पहले विदेशी इतिहास – कार “अलबरूनी” ने भारत भ्रमण करके अपना अनुभव इस प्रकार लिखा

“हिंदू लोग समझते हैं कि उनके देश जैसा दूसरा देश नहीं, उनके राजा जैसा दूसरा राजा नहीं, उनके धर्म जैसा दूसरा धर्म नहीं। यदि तुम खुरासान तथा ईरान के शास्त्रों तथा विद्वानों के संबंध में उनसे बातचीत करोगे तो वे तुमको मूर्ख ही नहीं, मिथ्यावादी भी समझेंगे। यदि वे विदेशों की यात्रायें करें, दूसरों से मिलें- जुलेंतो उनकी यह प्रवृत्ति नहीं रहेगी, क्योंकि उनके पूर्वज ऐसे नहीं थे|”

क्या हम आशा करें कि समझदार हिंदू अब भी अपनी इस त्रुटि को समझेंगे और जब तक दोषों को त्यागकर अपने को वास्तव में एक जीती- जागती जाति न बना लेंगे तब तक पूर्वजों की कीर्ति के आधार पर क्या व्यर्थ गाल बजाना छोड़ देंगे? गुरू नानक ने उसी समय इस तथ्य को अच्छी तरह समझ लिया था। यद्यपि सम्राट बाबर स्वयं उनमें श्रद्धा रखता था और उनसे आशीर्वाद माँगता था, पर फिर भी उन्होंने इस देश के शासकों को उनकी नामर्दी और स्वार्थपरता के लिए बहुत फटकारा-

कहा सु खेल तबेले घोड़े कहा भेरी सहनाई। कहा सु तंगबंद गाडेरड़ि कहा सु लाल कवाई। कहा सु आरसीआ मुँह बके ए थ दिसहि नाही। रहा सु घर दर मंडप महला रहा सुबंक सराई। कहा सु सेज सुखाली कामणि जिसु बेसु नींद पाई। कहा सु पान तंबोली हरया होइओ छाई याई।

अर्थात्- “तुम्हारे वे खेल तमाशे, घोड़ों से भरे तबेले, वे भेरियाँ और शहनाइयाँ कहाँ चली गईं? वे तलवारें, रथ और चमकीले वस्त्र कहाँ गए ? तुम्हारे दर्पण और उनमें दिखाई पड़ने वाले बाँके चेहरे अब क्यों नहीं दिखाई पड़ते? तुम्हारे वे सुंदर, घर, दरवाजे, मंडप, महल, सुख देने वाली सेज और वह कामिनी जिसे देखकर रात में नींद भी नहीं आती थी, वे सब किस तरफ चले गए? पान, तांबूल देने वाली हरम ( जनाना महल) में भरी तमाम औरतें अब कहाँ हैं?”

नानक देव की वह विशेषता बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने राष्ट्र तथा समाज की त्रुटियों को गहरी नजर से देखा और उनके संबंध में इतने आवेश के साथ अपने देशवासियों को ललकारा। अन्य संतो ने अगर कहीं लोगों की दुर्दशा की चर्चा भी की है तो उसे भाग्य या भगवान् का अप्रसन्नता का परिणाम कहकर लोगों को केवल भगवद् भक्ति की प्रेरणा दी है। पर नानक जी ने इस समस्या के प्रत्यक्ष कारणों पर विचार किया और इसके लिए अपने कर्त्तव्य का पालन, पीड़ितों की सेवा, जनता के लिए न्याय का व्यवहार आदि ईश्वरीय आदेशों की अवहेलना करके ही राग- रंग में ही जीवन बिताने लगे तो उसका दंड तुमको भोगना ही पड़ेगा। ईश्वर भी तुमको इसके लिए क्षमा नहीं कर सकता, क्योंकि वह न्यायकारी है। इसलिए धन, जन, महल, किला, रूप यौवन आदि का कभी अभिमान न करो, ये चाहे जब देखते- देखते नष्ट- भ्रष्ट हो सकते हैं, जैसे इस समय बाबर के सिपाही ऊँची पदवीधारी नर- नारियों की दुर्गति कर रहे हैं। इसलिए संभलों, होश में आओ और कुमार्ग से हटकर ईश्वरीय सत्मार्ग का अवलंबन करो । ईश्वर की राह पर चलने वाले को न कभी रोना पड़ता है, न पश्चात्ताप करना पड़ता है।

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

पुस्तक-गुरु नानक देव

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