Home Akhand Jyoti Magazine दबाव में जी रहे हमारे लाड़ले

दबाव में जी रहे हमारे लाड़ले

by Tanuja Sharma

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मानव जीवन चार अवस्थाओं में विभाजित है- बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था बचपन जीवन की सबसे पहली अवस्था है। इसमें मन-मस्तिष्क का पूरी तरह से विकास नहीं होता, समय व परिस्थितियों धीरे-धीरे विकास होता है। जीवन के कई अनुरूप धीरे-धीरे ऐसे पहलू हैं, जिनकी समय से पूर्व जानकारी होने पर मानव जीवन पर उसके असर एवं परिणाम अच्छे नहीं होते हैं। आज मीडिया एवं कई साधन-सुविधाओं के कारण बच्चे उन बातों को समय से पूर्व जान रहे हैं, जो उन्हें शायद अपनी उम्र से ६-७ साल बाद जाननी चाहिए; क्योंकि छोटी उम्र में उनके मन मस्तिष्क की कोशिकाएँ इतनी अपरिपक्व होती हैं कि इन जानकारियों को आत्मसात् कर पाने में असमर्थ होती हैं। ऐसे में वे भावनात्मक तनाव एवं दबाव का शिकार होते हैं, जिससे कई तरह के डर, शंकाएँ उनके मनों में बैठ जाती हैं और वे मनोग्रंथियों का शिकार होते हैं।

हाल ही में किए गए एक शोध में यह बात सामने आई है कि जो बच्चे भावनात्मक दबाव या मानसिक रूप से अधिक तनाव महसूस करते हैं, वे अन्य बच्चों की अपेक्षा जल्दी वयस्क हो जाते हैं। ऐसे बच्चों के बाल असमय सफेद होने लगते हैं। चेहरे पर परेशानी की लकीरें स्पष्ट झलकने लगती हैं। उनकी स्मृतिशक्ति कमजोर होने लगती है और कार्यों में त्रुटियाँ अधिक होती हैं। बचपन की बालसुलभ मुस्कान गायब होते ही जीवन बोझ के समान प्रतीत होता है। जीवन में इस तनाव के बढ़ने से बच्चे दुखी रहने लगते हैं और इसके कारण उनके मस्तिष्क पर गहरा दबाव पड़ता है, जिससे वहाँ की कोशिकाएँ असमय ही विकसित होने लगती हैं। बच्चों का कोमल मस्तिष्क जिंदगी के गंभीरतम तनाव को झेल नहीं पाता और संबंधित मस्तिष्कीय कोशिका उस तनाव को समायोजित करने में जल्दी बढ़नी शुरू हो जाती है, जिससे उपर्युक्त लक्षण उभरते हैं और शरीर का ‘टेलीमेयर’ उम्र के साथ छोटा होने लगता है। ऐसी अवस्था में बच्चों का दिमाग समय से पहले ही कुछ बड़ी बातें सोच-सोचकर अवसादग्रस्त रहने लगता है।

इन तथ्यों को और अधिक गहराई से समझने के लिए मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक शोध में ३१ वयस्कों के डी० एन० ए० का परीक्षण किया गया, जिसमें टेलीमेयर का आकार का छोटा होना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन कम उम्र में ही इसका छोटा होना एक गंभीर समस्या को सूचित करता है। ऐसे समय में यदि माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्य बच्चों पर समुचित ध्यान नहीं देते या दोषारोपण करते हैं तो बच्चों के भटकाव की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे बच्चे कई तरह की मानसिक ग्रंथियों का शिकार होते हैं और अज्ञानवश अपने जीवन को बरबाद करने के लिए किसी भी तरह के के गलत रास्ते को अपनाते हैं। अत: उपर्युक्त लक्षण यदि आप अपने नौनिहालों में पाएँ तो बिना वजह उन्हें डाँटे या मारें डाट या नहीं; क्योंकि इसका गलत असर उनके दिमाग पर पड़ता है। यदि आपका बच्चा शारीरिक रूप से किसी समस्या से परेशान है तो उसे इस बात का एहसास न होने दें कि वह किसी बीमारी से ग्रस्त है ओर आम बच्चों की तरह ही उसके साथ व्यवहार करें, जिससे वह अवसादग्रस्त न हो।

वर्तमान दौर में बच्चों के माता-पिता इतने अधिक में व्यस्त हो गए हैं कि वे अपने बच्चों की बात को सही तरीके से नहीं समझ पाते। इसका बुरा असर बच्चों पर पड़ता है। बच्चों पर ध्यान न देने से अभिभावक और बच्चों के बीच एक दरार पैदा होती है, जिससे बच्चे खुलकर अपनी अभिव्यक्ति नहीं करते और अंदर हो अंदर घुटन का शिकार होते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें कोई नहीं समझता, कोई उन्हें प्यार नहीं करता। उनका इस दुनिया मे रहना बेकार है ।ऐसे नकारात्मक विचार पनपने के साथ परिजनों के प्रति संवादहीनता (कम्युनिकेशन गैप) भी पनपती है और इसके कारण पारिवारिक वातावरण भी घुटनभरा और बोझिल होता है। लड़कियाँ इस समस्या से अधिक ग्रस्त होती हैं क्योंकि पुरुषप्रधान समाज में जहाँ उन्हें पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता, वहीं हर कार्य में रोका-टोका जाता है। उनकी उम्र के बढ़ने के साथ ही साथ उन पर लगने वाले प्रतिबंध भी बढ़ते जाते हैं और एक प्रकार से उनके विकास की स्वतंत्रता को छीन लिया जाता है।

इस गंभीरतम समस्या का समाधान सामाजिक जागरूकता से ही संभव है। इसके लिए अभिभावको को अपने बच्चों में किसी प्रकार का भेदभाव न करके उन्हें पर्याप्त अपनापन देना होगा। उन पर अत्यधिक ध्यान का देना भी समाधान नहीं है, लेकिन इतना ध्यान अवश्य देना होगा, जिससे बच्चों को इस बात का एहसास हो कि उनके अभिभावक उन्हें बहुत प्यार करते उन्हें समझते हैं और उनका ध्यान रखते है। इसके लिए अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ समय बिताना होगा। उनकी बातों को समझना होगा,उनकी समस्याओं का उचित समाधान देना होगा और उनकी छोटी छोटी आवश्यकताओं को पूरा करना होगा, तभी बच्चों का बचपन बच सकेगा, लेकिन यह तभी संभव है जबकि घर का वातावरण सौम्य, शांत , और मधुर हो, परिवार के सदस्यों में प्रेम, सेवाभाव और सद्भावनापूर्ण संबंध हों। ऐसा होने पर बच्चों का मानसिक विकास बहुत अच्छी तरह से होता है और वे गंभीर से गंभीर तनाव में भी आसानी से उबरकर अपने विकास की नवीनतम परिस्थितियाँ विनिर्मित कर लेते हैं, लेकिन यदि परिस्थिति इसके विपरीत है तो उनकी मानसिक क्षमताएँ, बौद्धिक प्रतिभा, व्यक्तित्व, सब कुंठित हो जाते हैं। अतः मुख्य दायित्व परिवार के बड़े सदस्यों का है क्योंकि उनके आचरण, व्यवहार, संस्कार एवं विनिर्मित वातावरण पर बच्चों का समग्र विकास निर्भर करता है।

अखण्ड ज्योति, जून 2010

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