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नवदुर्गाओं में गायत्री साधना

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यों तो वर्षा, शरद, शिशिर, हेमन्त, वसन्त, ग्रीष्म ये छ: ऋतुएँ होती हैं और मोटे तौर से सर्दी, गर्मी, वर्षा यह तीन ऋतु मानी जाती हैं, पर वस्तुत: दो ही ऋतु हैं—(१) सर्दी (२) गर्मी ।

वर्षा तो दोनों ऋतुओं में होती है। गर्मियों में मेघ सावन-भादों में बरसते हैं, सर्दियों में पौष-माघ में वर्षा होती है । गर्मियों की वर्षा में अधिक पानी पड़ता हैं, सर्दियों में कम ।इतना अन्तर होते हए भी दोनों ही बार पानी पड़ने की आशा की जाती है।

इन दो प्रधान ऋतओं के मिलने की संधि वेला को नवदुर्गा कहते हैं।िन और रात्रि के मिलन काल को सन्ध्याकाल कहते हैं और उस महत्त्वपूर्ण सन्ध्याकाल को बड़ी सावधानी से बिताते हैं ।

सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भजन करना, सोते रहना, मैथुन करना, यात्रा आरम्भ करना आदि कितने ही कार्य वर्जित हैं। उस समय को ईश्वराराधन, सन्ध्यावन्दन, आत्म-साधना आदि कार्यों में लगाते हैं, क्योंकि वह समय जिन कार्यों के लिये सूक्ष्म दृष्टि से अधिक उपयोगी है, वही कार्य करने में थोड़े ही श्रम से अधिक और आश्चर्यजनक सहायता मिलती है।

इसी प्रकार जो कार्य वर्जित हैं, वे उस समय में अन्य समयों की अपेक्षा हानिकारक होते हैं। सर्दी और गर्मी की ऋतुओं का मिलन दिन और रात्रि के मिलन के समान सन्ध्याकाल है, पुण्य पर्व है ।

पुराणों में कहा है कि ऋतुयें नौ दिन के लिये ऋतुमयी, रजस्वला होती हैं । जैसे रजस्वला को विशेष आहार-विहार और आचार-विचार आदि का ध्यान रखना आवश्यक होता है, वैसे ही उस सन्ध्याकाल का सन्धि वेला में-रजस्वला अवधि में-विशेष स्थिति में रहने की आवश्यकता होती है।

आरोग्य शास्त्र के पण्डित जानते हैं कि आश्विन और चैत्र में जो सूक्ष्म ऋतु परिवर्तन होता है, उसका प्रभाव शरीर पर कितनी अधिक मात्रा में होता है। उस प्रभाव से स्वास्थ्य की दीवारें हिल जाती हैं और अनेक व्यक्ति ज्वर, जूड़ी, हैजा, दस्त, चेचक, अवसाद आदि अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं ।

वैद्य-डॉक्टरों के दवाखानों में उन दिनों बीमारों का मेला लगा रहता है । वैद्य लोग जानते हैं कि वमन, विरेचन, नस्य, स्वेदन, वस्ति, रक्तमोक्षण आदि शरीर-शोधन-कार्यों के लिये आश्विन और चैत्र का महीना ही सबसे उपयुक्त है।

इस समय में दशहरा और राम नवमी जैसे दो प्रमुख त्योहार नवदुर्गाओं के अन्त में होते हैं। ऐसे महत्त्वपूर्ण त्योहारों के लिये यही समय सबसे उपयुक्त है।

नवदुर्गाओं के अन्त में भगवती दुर्गा प्रकट हुई। चैत्र की नवदुर्गाओं के अन्त में भगवान् राम का अवतार हुआ। यह अमावस्या पूर्णमासी की सन्ध्या उषा जैसी ही है, जिनके अन्त में सूर्य या चन्द्रमा का उदय होता है।

ऋतु परिवर्तन का अवसर वैसे सामान्य दृष्टि से तो कष्टकारक, हानि-प्रद जान पड़ता है, उस समय अधिकांश लोगों को कुछ न कुछ शारीरिक कष्ट, कोई छोटा-बड़ा रोग हो जाता है, पर वास्तव में बात उलटी होती है । उस समय शारीरिक जीवन शक्ति में ज्वर की सी अवस्था उत्पन्न होती है और उसके प्रभाव से पिछले छ: मास में आहार-विहार में जो अनियमिततायें हुई हैं, हमने कुअभ्यास या स्वादवश जो अनुचित और अतिरिक्त सामग्री ग्रहण करके दूषित तत्त्वों को बढ़ाया, वह शक्ति उनके निराकरण का उद्योग करने में लगती है ।

यही दोष निष्कासन की प्रतिक्रिया सामान्य जूड़ी-बुखार, जुकाम-खाँसी आदि के रूप में प्रकट होती है ।

यदि उपवास या स्वल्प आहार दारा शरीर को अपनी सफाई आप कर लेने का मौका दें और जप उपासना द्वारा मानसिक क्षेत्र के मल-विक्षेपों को दूर करने का प्रयत्न करें, तो आगामी कई महीनों के लिये रोगों से बचकर स्वस्थ जीवन बिताने के योग्य बन सकते हैं। गायत्री का यह लघु अनुष्ठान इस दृष्टि से परमोपयोगी है।

क्वार और चैत्र मास शुक्लपक्ष में प्रतिपदा (पड़वा) से लेकर नवमी तक नौ दुर्गायें रहती हैं। यह समय गायत्री-साधना के लिये सबसे अधिक उपयुक्त है।

इन दिनों में उपवास रखकर चौबीस हजार मन्त्रों के जप का छोटा-सा अनुष्ठान कर लेना चाहिये । यह छोटी साधना भी बड़ी के समान उपयोगी सिद्ध होती है।

एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल, एक समय आहार, एक समय फल-दूध का आहार, केवल दूध का आहार इनमें से जो भी उपवास अपनी सामर्थ्यानुकूल हो उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिये।

प्रात:काल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शौच, स्नान से निवृत्त होकर पूर्व वर्णित नियमों को ध्यान में रखते हुए बैठना चाहिये।

नौ दिन में २४ हजार जप करना है। प्रतिदिन २६६७ मन्त्र जपने हैं । एक माला में १०८ दाने होते हैं। प्रतिदिन २७ मालायें जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है । ीन-चार घण्टे में अपनी गति के अनुसार इतनी मालायें आसानी से जपी जा सकती हैं।

यदि एक बार में इतने समय लगातार जप करना कठिन हो, तो अधिकांश भाग प्रात:काल पूरा करके न्यून-अंश सायंकाल को पूरा कर लेना चाहिये । अन्तिम दिन हवन के लिये है। उस दिन पूर्व वर्णित हवन के अनुसार कम से कम १०८ आहुतियों का हवन कर लेना चाहिये। ब्राह्मण भोजन और यज्ञ पूर्ति की दान-दक्षिणा की भी यथाविधि व्यवस्था करनी चाहिये।

यदि छोटा नौ दिन का अनुष्ठान नवदुर्गाओं के समय में प्रति वर्ष करते रहा जाए, तो सबसे उत्तम है। स्वयं न कर सकें, तो किसी अधिकारी सपात्र ब्राह्मण से वह करा लेना चाहिये।

ये नौ दिन साधना के लिये बड़े ही उपयुक्त हैं। कष्ट निवारण, कामनापूर्ति और आत्मबल बढ़ाने में इन दिनों की उपासना बहुत ही लाभदायक सिद्ध होती है ।

आगामी नवदुर्गायें निकट हैं। पाठक उस समय एक छोटा अनुष्ठान करके उसका लाभ देखें।

नवदुर्गाओं के अतिरिक्त भी छोटा अनुष्ठान उसी प्रकार कभी भी किया जा सकता है। सवालक्ष का जप चालीस दिन में होने वाला पूर्ण अनुष्ठान है।

नौ दिन का एक पाद (पञ्चमांश) अनुष्ठान कहलाता है । सुविधा और आवश्यकतानुसार उसे भी करते रहना चाहिये । यह तपोधन जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित किया जा सके, उतना ही उत्तम है।

गायत्री महाविज्ञान भाग-१

-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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