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जीवन में साधना का महत्त्व

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साधना को परम पुरुषार्थ कहा गया है, क्योंकि यह जीवन-पहेली की समाधान कुंजी है और इसके संग जीवन परिष्कार के साथ मिलने वाली फलश्रुति के समक्ष इस संसार की बड़ी से बड़ी उपलब्धि भी छोटी पड़ती है। सांसारिक उपलब्धियों को पाने के लिए कितने ही पुरुषार्थ क्यों न किए जाएँ व कितनी ही बड़ी सफलताएँ क्यों न प्राप्त की जाएँ, वे व्यक्ति को पूरी तरह से संतुष्ट नहीं कर पातीं; क्योंकि इनका स्वरूप नश्वर होता है, अस्थायी होता है जबकि साधना के साथ प्राप्त आत्मिक उपलब्धियाँ स्थायी होती हैं, टिकाऊ होती हैं और ये सांसारिक उपलब्धियों एवं सुख भोगों को भी एक सार्थक स्वरूप प्रदान करती हैं।

प्रश्न उठता है कि साधना की आवश्यकता क्यों ? क्या बिना साधना के जीवन नहीं जिया जा सकता ? तो इसका कारण मन की प्रकृति है, संसार का मायावी स्वरूप है, जिसके कारण व्यक्ति सतत बाहर विषय भोगों में संलिप्त रहना चाहता है। संसार का गुरुत्व सदा उसे नीचे गिरने के लिए प्रेरित करता रहता है। इसके साथ जन्म-जन्मांतरों के अभ्यास एवं आदतें व्यक्ति को जीवन के अंतहीन कुचक्र में उलझाए रहती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, अहंकार जैसे षड्रिपु पग-पग पर व्यक्ति को सांसारिक जंजाल में उलझाए रहते हैं।

ऐसे में यदि साधना का अवलंबन न लिया गया तो इस धरा पर जन्म ले रहे हर व्यक्ति का जीवन एक ढर्रे पर लुढ़कना सुनिश्चित है तब समाज में निर्वाह लायक कुछ नीति नियमों का पालन करने तक ही जीवन की इतिश्री – समझी जाएगी। आश्चर्य नहीं कि इसी आधार पर समाज में धर्म एवं नैतिकता के नाम पर कितनी सारी कुरीतियों को व्यक्ति सहर्ष गले लगाए फिरता है, जो मानवीय चेतना के उन्मुक्त विकास में अवरोध बनकर सामाजिक पतन की परिस्थितियाँ उत्पन्न किए रहती हैं।

ऐसे में बिगड़ैल मन, दूषित प्राण एवं कुसंस्कारों से जकड़े चित्त को लिए व्यक्ति किसी भी तरह से जीवन की गाड़ी धकेलता रहता है, जीवन में बाहर उपलब्धियों के अंबार, धन समृद्धि एवं वैभव-विलास बटोरता रहता है, लेकिन इनके बावजूद आंतरिक रूप से वह विपन्न अवस्था में ही रहता है और उसके जीवन में कुछ सार्थक एवं जीवंत दिखाई नहीं पड़ता, जिस पर संतोष किया जा सके।

ऐसे में व्यक्ति का मानवीय गरिमा से गिरना स्वाभाविक है, एक प्राकृतिक घटना है और यह पशुओं की अपेक्षा मानव में और अधिक सहज एवं खतरनाक ढंग से घटित होती है; क्योंकि उसमें बुद्धि का अतिरिक्त तत्त्व भी विद्यमान है, जो अपने शातिरपन के कारण उसे और घातक बना देता है। पशु तो एक सीमित दायरे में ही क्षति पहुँचाने में सक्षम होते हैं, लेकिन मनुष्य तो गिरने पर असुर, पिशाच एवं दैत्य के स्तर पर गिरकर स्वयं की दिव्य संभावनाओं से स्खलित होने के साथ समाज एवं परिवेश में भी दुःख, अशांति एवं आतंक का वातावरण खड़ा करते हैं।

इस स्थिति से उबरने एवं इस अवस्था से ऊपर उठने की शक्ति सामर्थ्य केवल जीवन-साधना ही प्रदान करती है। दुदाँत दैत्यों, अपराधियों से लेकर वासना में लिप्त पतितों का उद्धार इसी आधार पर संभव हुआ है। इतिहास के पन्ने इसकी गवाही देते हैं। हालाँकि इनमें किसी समर्थ की कृपा का महत्त्व सदा रहा है, लेकिन अंततः वैयक्तिक साधनात्मक पुरुषार्थ के बल पर ही वे अपने जीवन का कायाकल्प एवं उद्धार करने में सक्षम हुए तथा एक सार्थक एवं प्रेरक जीवन जी सके।

बिगड़े मन को ठीक करते हुए विकृत प्राण को शुद्ध करते हुए, इन्हें ऊर्ध्वमुखी गति देना कोई सरल सहज कार्य नहीं, इसके लिए अधिक सजग सचेष्ट रहने एवं अतिरिक्त पुरुषार्थ करने की आवश्यकता होती है, जिसे जीवन-साधना कहा जाता है। इसमें अपने ही मन की चंचलता एवं स्वार्थ अहंकार की मायावी कुचालों को समझते हुए और गहन स्तर पर स्वयं का परिष्कार करते हुए अपनी क्षुद्रता को परिमार्जित करते हुए अस्तित्व को व्यापक आयाम दिया जाता है।

परमपूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में अध्यात्म के वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक प्रयोगों के आधार पर जीवन – साधना के सरल एवं प्रभावी सूत्रों को दिया है, जो प्रातः आत्मबोध से शुरू होकर रात को तत्त्वबोध तक व्यक्ति का मार्गदर्शन करते हैं। साथ ही उपासना-साधना एवं आराधना के अंतर्गत संयम, स्वाध्याय, सेवा और तप के व्रत बंधनों में स्वयं को बाँधते हुए, जीवन को ऊर्ध्वगामी दिशा देते हैं।

संयम से ऊर्जा का संरक्षण होता है, स्वाध्याय अपने अस्तित्व की श्रेष्ठ संभावनाओं के साथ हठीले कुसंस्कारों एवं विकृत दृष्टिकोण से परिचय करवाता है और तप इनका परिशोधन करते हुए चित्त शुद्धि की दुर्द्धर्ष प्रक्रिया को संपन्न करता है, जिससे व्यक्तित्व को मनचाहे रूप में ढाला जा सके। इसके लिए युद्धस्तर पर कार्य करना पड़ता है। इनके विरुद्ध एक तरह का धर्मयुद्ध छेड़ना पड़ता है। इस तरह साधक, जीवन के रणक्षेत्र में अर्जुन बनकर आंतरिक महाभारत में प्रवृत्त होता है। भगवान श्रीकृष्ण के रूप में सद्गुरु को जीवनरथ का सारथी बनाते हुए साधना समर का साक्षी बनता है और जीवन को एक सार्थक निष्कर्ष की ओर ले जाता है।

निश्चित रूप से इसके लिए दैनिक जीवन में अपने लिए समय देना पड़ता है, जीवन की प्राथमिकताओं को स्पष्ट करना पड़ता है। तप की आँच में जीवन की गलाई ढलाई करनी पड़ती है। स्वयं को गढ़ने की इस प्रक्रिया को विश्व का सबसे कठिन कार्य माना गया है, लेकिन यदि इसमें जुटा जाए तो फिर इससे अधिक रोमांचक कुछ और कार्य भी नहीं। इसका शुभारंभ प्रायः एक जिज्ञासु एवं अभीप्सु के रूप में होता है, लेकिन अंततः एक शिष्य साधक बनकर – इसको अंजाम दिया जाता है।

इसके लिए पूरे जीवन को होश में जीना पड़ता है। प्रत्येक दिन को जीवन की इकाई मानते हुए हर पल को पूर्णता में जीना होता है। इसके बाद ही फिर रात को चैन की नींद और विश्रांति सुनिश्चित हो पाती है। दैनिक आधार पर किया गया यह साधनात्मक पुरुषार्थ अपने सम्मिलित रूप में जीवन के अंतिम पलों में चिरविश्रांति के साथ महायात्रा के अगले पड़ाव की गरिमामयी पृष्ठभूमि तैयार करता है। यह सब साधनात्मक सजगता एवं पुरुषार्थ के आधार पर ही संभव होता है।

इस तरह जीवनपर्यंत साधना के आधार पर ही व्यक्ति का आत्यांतिक उत्कर्ष एवं समग्र सफलता सुनिश्चित होते हैं। शांति-सुकून से भरा जीवनयापन इसी आधार पर शक्य होता है और जीवनयात्रा का संतोषपूर्ण अवसान संभव होता है। इस तरह साधना लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सँवारने-सुधारने का एक सुनिश्चित विज्ञान-विधान है, जिसे हम जितना शीघ्र जीवन का अंग बना लें, हितकर रहता है।

दिसंबर, 2021 अखण्ड ज्योति

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