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आत्म−नियंत्रण की आवश्यकता

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असंयम को अपना कर हमने अपना स्वास्थ्य खोया है। चटोरेपन और कामवासना पर नियंत्रण करने का जिस दिन निश्चय कर लिया उसी दिन बिगड़ी बनने लगेगी। आहार और विहार का संयम रखकर जब सृष्टि के एकोएक प्राणी गेंद की तरह उछलते-कूदते, निरोगिता और दीर्घ जीवन का लाभ उठाते हैं तो हम क्यों न उठा सकेंगे? बन्दरिया मरे बच्चे को जैसे छाती से चिपटाये फिरती है उसी प्रकार असंयम की भुजाओं में कस कर हम भी अस्वस्थता को छाती से चिपटाये फिर रहे हैं। जहाँ यह कसकर पकड़ने की प्रक्रिया ढीली हुई नहीं कि अस्वस्थता और अकाल मृत्यु से पीछा छूटा नहीं।

तुच्छ स्वार्थों की संकीर्णता ने हमारे मनःक्षेत्र को गंदा कर रखा है। उदार और विशाल दृष्टि से न सोचकर हर बात को हम अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति की दृष्टि से सोचते हैं, अपना लाभ ही हमें लाभ प्रतीत होता है। दूसरों का लाभ, दूसरों का हित, दूसरों का दृष्टिकोण, दूसरों का स्वार्थ भी यदि ध्यान में रखा जा सके, अपने स्वार्थ में दूसरों का स्वार्थ भी जोड़कर सोचा जा सके, अपने सुख दुख में दूसरों का सुख-दुख भी सम्मिलित किया जा सके तो निश्चय ही विशाल और उदार दृष्टिकोण हमें प्राप्त होगा। और फिर उसके आधार पर जो कुछ सोचा या किया जायेगा सब कुछ पुण्य और परमार्थ ही होगा। वासना और तृष्णा ने हमें अन्धा बना दिया है संयम और सेवा की रोशनी यदि अपनी आँखों में चमकने लगे तो पिछले क्षण तक जो सर्वत्र नरक जैसा अन्धकार फैला दीखता था वह स्वर्गीय प्रकाश में परिवर्तित हो सकता है। तुच्छता को महानता में, स्वार्थ को परमार्थ में, संकीर्णता को उदारता में परिणत करते ही मनुष्य तुच्छ प्राणी न रहकर महामानव बन जाता है— देवताओं की श्रेणी में जा पहुँचता है।

मन स्फटिक मणि के समान स्वच्छ है। हमारा अविवेक ही उसे मलीन बनाये हुए हैं। दृष्टिकोण का परिवर्तन होते ही उसकी मलीनता दूर हो जाती है और स्वाभाविक स्वच्छता निखर पड़ती है। स्वच्छ मन वाला व्यक्ति आनन्द की प्रतिमूर्ति ही तो है। वह अपने आपको तो हर घड़ी आनन्द में सराबोर रखता ही है, उसके समीपवर्ती लोग भी चन्दन के वृक्ष के समीप रहने वालों की तरह सुवासित होते रहते हैं। अपने मन का, अपने दृष्टिकोण का परिवर्तन भी क्या हमारे लिए कठिन है? दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है—पर आप को क्यों नहीं सुधारा जा सकेगा? विचारों की पूँजी का अभाव ही सारी मानसिक कठिनाइयों का कारण है। विवेकशीलता का अन्तःकरण में प्रादुर्भाव होते ही कुविचार कहाँ टिकेंगे? और कुविचारों के हटते ही अपना पशु−जीवन देव−जीवन में परिवर्तित क्यों न हो जायेगा?

✍???? पं श्रीराम शर्मा आचार्य

???? अखण्ड ज्योति फरवरी 1962