देश की एकता और अखंडता सर्वोपरि है। जब तक देश अँगरेजी राज के अधीन था, तब तक देश के सभी आंदोलनों और नीतियों का एक ही उद्देश्य था विदेशी शासकों को बाहर निकालकर स्वतंत्रता हासिल करना, लेकिन स्वतंत्रता के बाद नए भारत का क्या चेहरा होगा? हम किस दिशा में आगे बढ़ेंगे? इन पहलुओं पर गंभीर विचार की जरूरत थी। ऐसे लोग थे, जिन्होंने उस समय भी इन प्रश्नों पर विचार किया था।
गांधी जी ने स्वयं अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में स्वतंत्र भारत का अपना विचार रखा था। इससे पहले लोकमान्य तिलक ने अपनी पुस्तक ‘गीता रहस्य’ में उस समय दुनिया में फैले विचारों पर तुलनात्मक चर्चा की थी। क्रांतिकारी भी अपने तरीके से स्वतंत्रता के लिए काम कर रहे थे। कांग्रेस ने लोकतांत्रिक समाजवाद को अपना लक्ष्य घोषित किया था।
विश्व में दूसरे देश भी हैं। उन्होंने पिछले एक हजार वर्षों में अभूतपूर्व प्रगति की है। हम अपने देश को कहाँ और कैसे ले जाना चाहते हैं? इसके लिए हमें पश्चिम के विभिन्न आर्थिक और राजनीतिक सिद्धांतों के आधार और उनकी वर्तमान स्थिति को भी ध्यान में रखना चाहिए। हमारे देशवासियों के सर्वांगीण विकास के सपने को पूरा करने के लिए हमें कौन-सी दिशा लेनी चाहिए।
हर देश की अपनी अनूठी ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियाँ होती हैं। दूसरी तरफ, जरूरी नहीं कि समय और स्थान के अनुसार कहीं उपजने वाले सभी विचार और आदर्श स्थानीय ही हों। इसलिए दूसरे समाजों में हुए पिछले और वर्तमान विकास की पूरी तरह से अनदेखी करना निश्चित तौर से मूर्खतापूर्ण है। दूसरे समाजों के ज्ञान को आत्मसात् करते समय सही होगा कि हम उनकी गलतियों और विकृतियों को नहीं अपनाएँ।
यहाँ तक कि उनके ज्ञान को भी हमारी खास परिस्थितियों के अनुकूल किया जाना चाहिए। संक्षेप में, जहाँ तक शाश्वत सिद्धांतों और सत्यों की बात है, हमें संपूर्ण मानवता के ज्ञान और लाभ को आत्मसात् करना चाहिए। इनमें से जो हमारे बीच में उत्पन्न हुए हैं, उन्हें स्पष्ट करके बदलते समय के अनुरूप ढालना होगा और जिन्हें हमने दूसरे समाजों से लिया है, उन्हें अपनी परिस्थितियों के अनुरूप ढालना होगा।
राष्ट्रवाद देशों के बीच में संघर्ष को बढ़ाता है और उसके कारण वैश्विक संघर्ष बढ़ते हैं। जबकि यथास्थिति को विश्व शांति का पर्याय माना जाए तो बहुत से छोटे राष्ट्रों को स्वतंत्र होने की आकांक्षा कभी पूरी नहीं होती। कुछ लोग वैश्विक एकता और राष्ट्रवाद को दबाने की बात कहते हैं: जबकि दूसरे लोग वैश्विक एकता को काल्पनिक आदर्श मानते हैं और जोर देते हैं कि राष्ट्र का हित सर्वोपरि होना चाहिए। इसी तरह की मुश्किल समाजवाद और लोकतंत्र के बीच सामंजस्य बनाने में भी आती है।
लोकतंत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अनुमति देता है, लेकिन ठीक इसी को पूँजीवाद के साथ मिलाकर शोषण और एकाधिकारवाद के लिए प्रयोग किया गया। समाजवाद को शोषण खतम करने के लिए लाया गया, लेकिन इसने व्यक्ति की स्वतंत्रता और सम्मान को खतम कर दिया। पश्चिमी आदर्श मानव विचार और सामाजिक संघर्ष में हुई क्रांति का उत्पाद हैं। ये मानव जाति की एक दूसरी आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनकी अवहेलना करना उचित नहीं होगा। हम यह स्वीकार करते हैं कि जीवन में विविधता और बहुलता है, लेकिन हमने हमेशा उनके पीछे एकता को खोजने की कोशिश की। यह कोशिश पूरी तरह से वैज्ञानिक है। हम न केवल सामूहिक या सामाजिक जीवन में, बल्कि निजी जीवन में भी जीवन को एकीकृत रूप में लेते हैं।
जब लोगों का समूह एक लक्ष्य, एक मिशन और एक आदर्श के साथ रहता है और किसी खास भूमि को अपनी मातृभूमि मानता है तो यह समूह राष्ट्र का निर्माण करता है। राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन संस्थाओं का निर्माण किया जाता है। परिवार, जाति, संघ आदि इसी तरह की संस्थाएँ हैं। संपत्ति, विवाह भी संस्थाएँ हैं।समाज में वर्ग होते हैं। यहाँ भी जातियाँ रही हैं, लेकिन हमने एक जाति से दूसरी जाति के बीच संघर्ष को कभी इसके पीछे का मूलभूत विचार नहीं माना चार जातियों के हमारे विचार में उन्हें विराट पुरुष के चार अंगों के रूप में माना गया है।
माना जाता है कि विराट पुरुष के सिर से ब्राह्मण, हाथों से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई। ये अंग एकदूसरे के पूरक ही नहीं हैं, बल्कि इससे भी ज्यादा ये एक स्वतंत्र इकाई हैं। अगर इस विचार को नहीं समझा गया तो जातियों में एकदूसरे का पूरक बनने के बजाय संघर्ष पैदा होगा। इसलिए शरीर की रक्षा करनी चाहिए। धर्म मंदिरों और मसजिदों तक सीमित नहीं है।
भगवान की पूजा धर्म का बस एक हिस्सा भी है। धर्म कहीं ज्यादा व्यापक सिद्धांत है। पूर्व में मंदिर लोगों को धर्म के बारे में शिक्षा देने का प्रभावी माध्यम होते थे, हालाँकि जिस तरह विद्यालय स्वयं ज्ञान को नहीं बनाते, उसी तरह मंदिर धर्म को नहीं बनाते। एक बच्चा प्रतिदिन विद्यालय जाकर भी अशिक्षित रह सकता है। इसी तरह हो सकता है कि एक व्यक्ति प्रतिदिन मंदिर या मसजिद जाकर भी धर्म के बारे में कुछ नहीं जान पाए। मंदिर या मसजिद पंथ, मत, संप्रदाय का निर्माण तो करते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि धर्म का निर्माण भी करते हों।
धर्म और पंथ (रिलिजन) अलग-अलग हैं। हमें पता है कि धर्म के नाम पर भी लड़ाइयाँ लड़ी गईं। फिर भी पंथ के नाम पर हुई लड़ाई और धर्म के नाम पर हुई लड़ाई, दोनों अलग चीजें हैं। पंथ का मतलब है- एक संप्रदाय या मत इसका मतलब धर्म नहीं है। धर्म बहुत व्यापक विचार है। यह जीवन के सभी पहलुओं से जुड़ा है। यह समाज को सँभालता है। इससे भी बढ़कर यह पूरे विश्व को सँभालता है। इसका मतलब जो सँभाले वह ‘धर्म’ है।
धर्म का मूलभूत सिद्धांत अनंत और सार्वभौमिक है। देश का संविधान एक मौलिक दस्तावेज है, जो देश में बने सभी कानूनों पर लागू होता है। एक संघ में इकाइयों की संप्रभुता होती है। संघीय व्यवस्था में राज्यों को मूलभूत शक्ति माना जाता है और केंद्र मात्र राज्यों का संघ होता है।
आर्थिक व्यवस्था के जरिए उन सभी बुनियादी चीजों का उत्पादन होना चाहिए, जो व्यक्ति के विकास और रख रखाव के साथ-साथ राष्ट्र के विकास और सुरक्षा के लिए जरूरी हैं। उपभोग और उत्पादन की अंधी दौड़ में शामिल होना बुद्धिमानी नहीं होगी, उससे लगता है जैसे मानव को मात्र उपभोग के लिए बनाया गया है।
पूँजीवादी सोचते हैं कि पूँजी और उद्योग-उत्पादन के महत्त्वपूर्ण घटक हैं, इसलिए अगर वे लाभ का बड़ा हिस्सा लेते हैं तो उन्हें लगता है कि यह उनका ही हिस्सा है। दूसरी तरफ साम्यवादी उत्पादन के लिए केवल कामगार वर्ग को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसलिए वे उत्पादन का बड़ा हिस्सा कामगारों को देते हैं। दोनों ही विचार सही नहीं हैं। सही माने में हमारा नारा होना चाहिए कि जो कमाता है, वह खिलाएगा और प्रत्येक व्यक्ति के पास पर्याप्त भोजन होगा।
किसी भी आर्थिक व्यवस्था को मानव जीवन की न्यूनतम बुनियादी जरूरतों को अवश्य पूरा करना चाहिए। मोटेतौर पर भोजन, कपड़ा और मकान बुनियादी जरूरतें हैं इसी तरह व्यक्ति को शिक्षित करना समाज की जिम्मेदारी है, जिससे वह व्यक्ति समाज के प्रति अपने दायित्वों को निभा सके। किसी व्यक्ति के बीमार होने पर समाज को उसके इलाज और भरण-पोषण की व्यवस्था करनी चाहिए अगर इन आवश्यकताओं को पूरा किया जाए तो सही माने में धर्म का राज होगा; नहीं तो अधर्म का राज होगा। इसी से राष्ट्र का विकास होगा।
जनवरी, 2022 अखण्ड ज्योति