Home Akhand Jyoti Magazine आवश्यक है बच्चों की सुरक्षा के प्रति संवेदनशीलता

आवश्यक है बच्चों की सुरक्षा के प्रति संवेदनशीलता

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भारत में बच्चों की सुरक्षा पर खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। उनके खिलाफ अपराध में तेजी आ रही है, लेकिन कानून व्यवस्था के मोर्चे पर जैसे काम और इंतजाम होने चाहिए, उनका घोर अभाव दिखाई पड़ता है। एक के बाद एक यौन उत्पीड़न की घटनाएँ होती रहती हैं और सुधार के लिए की गई अच्छी सिफारिशें फाइलों में ही पड़ी रह जाती हैं। जिम्मेदार लोगों को एहसास नहीं है कि उन्होंने देश को बच्चों के लिए कितना असुरक्षित बना रखा है। वे सुधार और सुरक्षा माँग रहे हैं और ऐसे जरूरी बदलाव के लिए आज संघर्ष की आवश्यकता प्रतीत होती है।

इन अपराधों की पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करें तो यह बच्चों की सुरक्षा के प्रति गहरी संवेदनहीनता का परिणाम है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने भारत में अपराधों पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी नहीं की है। पिछले तीन वर्षों में हुए बलात्कार पीड़ितों की संख्या की जब हम तुलना करते हैं तो 18 या उससे कम उम्र की पीड़ितों की औसत संख्या में तीन गुना से भी ज्यादा इजाफा हुआ है; जबकि इसी दौर में 18 से ज्यादा उम्र की पीड़ितों की संख्या में लगभग दुगना इजाफा हुआ है।

हमारी अपराध न्याय व्यवस्था ऐसे मामलों से निपटने में कितनी कारगर है ? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो सजा मिलने और बरी होने के आँकड़े इसका उत्तर हैं। पोक्सो के तहत सजा दर 28.2 प्रतिशत थी; जबकि बच्चों के विरुद्ध सभी तरह के अपराधों में सजा दर 30.7 प्रतिशत थी। सजा दर का यह अंतर मेट्रोपॉलिटन शहरों में ज्यादा था। इन बड़े शहरों में सजा दर 29.3 प्रतिशत और 41.8 प्रतिशत थी। इन आँकड़ों से पता चलता है कि मामला बड़े शहरों का हो या छोटे शहरों या गाँवों का, बच्चों के विरुद्ध अपराध से निपटने में कानून व्यवस्था समान रूप से अक्षम सिद्ध हो रही है।

ये आँकड़े बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों की एक निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। सैद्धांतिक रूप से कोर्ट में आरोपियों के जमानत पाने में कुछ भी गलत नहीं है,लेकिन अलीगढ़ जैसी जघन्य घटनाएँ बताती हैं कि ऐसे ही मामलों में आरोपियों को जमानत पर छोड़ना कितना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। ऐसे अपराध में जमानत पर छूटने वाले अपराधी खुले घूम रहे हैं और सुनवाई के दौरान भी वे अपराध को फिर दोहरा सकते हैं। ऐसे मामले सोचने पर मजबूर करते हैं कि हमारी अदालतों को ऐसे जघन्य अपराध के आरोपियों को जमानत देने से पहले पूरी तरह सोच विचार कर लेना चाहिए।

मुजफ्फरपुर जैसा मामला भारतीय अपराध न्याय व्यवस्था के लिए आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए। वर्ष 2012 में भारत सरकार ने जस्टिस जे०एस० वर्मा के नेतृत्व में एक समिति गठित की थी। समिति को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वह यौन उत्पीड़न के मामलों में तेज सुनवाई और अधिकतम सजा के लिए जरूरी बदलाव की सिफारिश करे।

दिसंबर, 2012 में दिल्ली की एक छात्रा से सामूहिक दुष्कर्म के बाद बड़े पैमाने पर हुए विरोध प्रदर्शन के बाद सरकार ने वह फैसला लिया था। समिति की रिपोर्ट बहुत ध्यान देने योग्य है। समिति ने अपनी रिपोर्ट के बाल यौन उत्पीड़न अध्याय में महिला आश्रय गृह, रोहतक का दौरा करने के बाद लिखा है कि यहाँ बच्चियों को बँधुआ मजदूर की तरह काम करने के लिए मजबूर किया जाता था। जरूरी भोजन और कपड़ों से भी वंचित रखा जाता था और आश्रय गृह के निदेशक और उनके परिवार के सदस्यों द्वारा शारीरिक और यौन हिंसा का शिकार भी होना पड़ता था। समिति ने पाया कि आश्रय गृह चलाने वाले प्रबंधक और स्थानीय पुलिस अफसरों के बीच करीबी रिश्ते थे।

समिति की रिपोर्ट अपने अवलोकनों में बहुत दुःखद तस्वीर पेश करती है। जो लोग भी इस आश्रय गृह में आते थे, यहाँ तक कि न्यायिक मजिस्ट्रेट ने भी अपने कर्त्तव्य को नजरअंदाज कर दिया था। यह केंद्र सरकार और उसकी एजेंसियों की घोर विफलता है, जिसने गरीबों को सशक्त बनाने की अपनी मूलभूत जिम्मेदारी को दूसरों के भरोसे छोड़ दिया है।

समिति ने सलाह दी कि इन आश्रय गृहों को निजी संगठनों के नियंत्रण से वापस ले लिया जाए और उच्च न्यायालयों की देख-रेख के अधीन तब तक रहें, जब तक संसद कड़े कारगर कानून नहीं बना लेती, जब तक योग्य देख-भालकर्त्ता, शिक्षक और मनोचिकित्सक नियुक्त नहीं हो जाते ।

समिति ने पाया कि इन बच्चों को मुख्य धारा में लाने के लिए मनोचिकित्सा की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि केवल बच्चों के खिलाफ अपराध के समय ही पुलिस, अदालत और सरकारी एजेंसियों की संवेदनहीनता सामने आती है। इस वर्ष जारी अजीम प्रेम जी विश्वविद्यालय और सीएसडीएस-लोकनीति की संयुक्त अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि हर पाँच में से केवल एक व्यक्ति पुलिस और कोर्ट की कारगर और प्रक्रियागत निष्पक्षता के प्रति सकारात्मक राय रखता है। इसके विपरीत 41 से 58 प्रतिशत लोगों की इन दोनों संस्थानों के बारे में राय नकारात्मक है।

लोगों की ऐसी नकारात्मक राय बहुत दुःखद है; क्योंकि पुलिस और कोर्ट को अन्याय के खिलाफ निवारण माध्यम के रूप में देखा जाता है। यह जरूरी है कि हम अपराध से अपने बच्चों को बचाने के लिए संघर्ष की ने जरूरत महसूस करें, बिना ऐसा किए संपूर्ण व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन संभव नहीं हो सकता है।

अखंड ज्योति

मई, 2021

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