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प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को सजीव बनाइये
नित्य कई आदमी मरते हुए आप देखते हैं, मरघट में आए दिन चिताऐं जलती रहती हैं, इसका जरा भी प्रभाव नहीं होता, एक उपेक्षा भरी दृष्टि से उस शव संस्कार को देखकर अपने काम में लग जाते हैं। पर जब अपना कोई प्रियजन मरता है तब तो फूट-फूट कर रोते हैं, आँसुओं की झड़ी नहीं रुकती, दुनियाँ सूनी दीखती है। भूख-प्यास उड़ जाती है, दुःख-शोक की व्याकुलता में चारों ओर अंधेरा छा जाता है। पड़ोसी का भाई मरा था तब चेहरे पर जरा सी शिकन भी न आई थी, पर आज इतनी व्याकुलता क्यों? मरते तो सभी एक समान हैं, पर एक की मृत्यु का जरा भी शोक न हो दूसरे के लिए इतनी वेदना क्यों? कारण यह है जिस व्यक्ति में आत्मभाव सम्मिलित कर रखा था, वह प्रिय था, प्रिय के विछोह में ही तो दुःख होता है। अपने घर पुत्र पैदा हुआ तो खुशी से फूले नहीं समाते, पडोसी के घर बच्चा जन्मे तो कुछ प्रयोजन नहीं।
यह स्वाभाविक बात है। कुछ शिकायत या भर्त्सना के रूप में यह पंक्तियाँ नहीं लिखी जा रही हैं। हमारा प्रयोजन केवल यह बताने का है कि गुण- अवगुण के कारण ही हम वस्तुओं को प्यार नहीं करते वरन प्रमुख कारण उसमें आत्मभाव का अपने स्वार्थ का समन्वित होना है। जिससे जितना स्वार्थ है वह उतना ही अधिक प्रिय लगेगा। शोक का कारण भी यही है जिसके अभाव में अपनी जितनी क्षति मालूम पडेगी उसी मात्रा में उसके लिए वेदना होगी। उपन्यास पढने मे वह पात्र आपको पसंद आता है जिसके साथ मन ही मन आत्मीयता की एक पतली सी डोरी बाँध लेते हैं। उस समय पर जब विपत्ति पडती है या सफलता पाता है, विजयी होता है तो आपका हृदय भी उसी प्रकार की भावनाओं से तरंगित हो उठता है। सिनेमा, नाटक खेल देखने जाते है, जिस अभिनेता के साथ किसी कारणवश आत्म भाव का पतला तार बँध जाता है, उसकी हार-जीत, आशा-निराशा के साथ आपका मन भी तरंगित होता है। मनोरंजन दिलचसिपी भावान्दोलन का रहस्य यही है। यदि किसी अभिनेता या पात्र के साथ एकीभाव स्थापित न कर सकें तो उस खेल के देखने या उपन्यास के पढने में जरा भी मजा न आवेगा। दर्शनीय स्थलों को देखकर कुछ व्यक्ति तो बहुत प्रसन्नता अनुभव करते हैं, तरंगित होते हैं, परंतु कुछ ऐसे भी होते हैं जिन पर उन दृश्यों का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता। कारण यह है कि उस सुंदर दर्शनीय स्थान से जो व्यक्ति एक मानसिक संबंध जोडता है, स्थापित करता है, उस वातावरण की अनुभूति अपने में आकर्षित करता है, उसे आनंद आता है। जो ‘ हमें क्या मतलब, हमको क्या लाभ ‘ ऐसा सोचकर देखता है, उसे कुछ भी विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। किसी अद्भुत दृश्य को वह कौतूहल की दृष्टि से देख तो सकता है परंतु भावुक हृदय व्यक्ति उस दृश्य से आनंद ग्रहण करता है, यह दूसरी ही बात है।
तत्त्वस्थिति यह है कि संसार की एक भी वस्तु न तो प्रिय है, न अप्रिय। किसी कारणवश आकर्षित होकर जब उसमें आत्मभाव जोड दिया जाता है तो वह प्रिय लगने लगती है। जिससे स्वार्थ का विरोध पड़ता है वह बुरी लगती है और जिससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ भी संबंध नहीं, उसके प्रति उपेक्षा रहती है। यही प्रिय और अप्रिय का दार्शनिक विवेचन है।
…. क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ४