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गूंगे का गुड़ है भक्ति
महर्षि कहोड़ के इस कथन को देवर्षि सहित सभी सुनते रहे। वे जो कह रहे थे, उसमें सार था। सब जानते थे कि गायत्री की साधना ने विशेष तौर पर गायत्रीभक्ति ने महर्षि को जीवन के सत्य एवं तत्त्व का मर्मज्ञ बना दिया है। उनकी वाणी में मन्त्रमयता है और अन्तस् में ऋषित्व। वे जो भी कहते हैं, वह वेदवचन हो जाता है। उनके व्यक्तित्व का ऐसा होना स्वाभाविक ही था क्योंकि वेदमाता के वरद्पुत्र के स्वरों में यह तेजस् वर्चस न होगा तो भला अन्यत्र कहाँ होगा।
वे बोल रहे थे और सभी सुन रहे थे। महर्षि कहोड़ आगे बोले- ‘‘भक्ति का अनुभव अन्य सभी अनुभवों से अलग है। अन्य अनुभव या तो इन्द्रियों के होते हैं अथवा फिर मन के। इन्द्रियों के अनुभव छूने, सूंघने, स्वाद लेने, सुनने, देखने तक सीमित हैं। इन्द्रियाँ सीमित को अपने सीमित दायरे में अनुभव करती हैं इसलिए उसकी बौद्धिक व्याख्या सम्भव है। यही अवस्था मन की है। मन का क्षेत्र इन्द्रियों की तुलना में बड़ा होते हुए भी असीम नहीं है। इसलिए इसकी भी बौद्धिक व्याख्या हो जाती है।
हाँ! इन दोनों में एक भेद अवश्य है। इन्द्रियाँ प्रायः दृश्य जगत-पदार्थ जगत् की अनुभूतियाँ करती हैं इसलिए इनकी तार्किक, वैज्ञानिक व्याख्या होती है। इन्हें दुहराया जा सकता है परन्तु मन इन्द्रियों से परे के सच का अनुभव भी करता है। इसलिए ये अनुभव अधिक व्यापक होते हैं। इसी वजह से इनकी उतनी विशद् व्याख्या नहीं हो पाती क्योंकि इनके अनुभव में दृश्य के साथ अदृश्य घुला होता है और कभी-कभी तो केवल अदृश्य ही अदृश्य होता है। ऐसे में इन्हें बताने के लिए, कहने के लिए, बुद्धि को पुरजोर प्रयास करने पड़ते हैं। फिर भी इसे ठीक-ठीक सफलता नहीं मिलती। जितनी भी सफलता इस प्रयास में मिलती है, उससे अनुभव की अभिव्यक्ति दार्शनिक सूत्रों में, काव्य में अथवा अन्य रहस्यमय भाषाओं में होती है। जिसका सत्य केवल वे ही समझ पाते हैं, जिनकी मानसिक चेतना उस तल पर जा पहुँची हो। बाकी सब तो यूं ही भटकते और औरों को बेकार में भटकाते हैं।’’
महर्षि कहोड़ का स्वर शान्त था। वे बड़े ही प्रमुदित-प्रसन्न मन से कह रहे थे। सुनने वालों को भी लग रहा था कि महर्षि का कथन न केवल श्रवणीय है, बल्कि चिन्तनीय, मननीय एवं स्मरणीय भी है। सभी शान्त थे और एकाग्रता के साथ सुन रहे थे क्योंकि उन सबको पता था कि महर्षि के द्वारा कहा जा रहा प्रत्येक अक्षर अनुभव के अमृतरस में डूबा है। वे कुछ देर के लिए ठहरे फिर बोले- ‘‘भक्ति का अनुभव, इन सभी अनुभवों से अलग है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह अनुभव इन्द्रियों अथवा मन के दायरे से परे और पार, शुद्ध चित्त में होता है। यहाँ से यह सम्पूर्ण आत्मा एवं अस्तित्त्व में संव्याप्त हो जाता है।
इस अनुभव को पाने वाला पहले तो स्वयं ही अपना होश खो बैठता है। उसकी भावचेतना स्वतः ही विसर्जन एवं विलय की भावदशा में पहुँच जाती है। स्थिति कुछ ऐसी बनती है जैसे कि नमक का पुतला समुद्र को मापने जाय। अब जब पुतला ही नमक का बना है तो समुद्र की गहराई को छूते ही गल जाएगा। भला ऐसे में जब उसका अपना अस्तित्त्व ही विलीन एवं विसर्जित हो गया, तब वह लौट कर समुद्र के बारे में किस तरह व कैसे बताएगा? कुछ ऐसी ही स्थिति भक्ति का अनुभव पाने वाले भक्त की होती है। वह अनुभव करता है कि उसकी भावचेतना सम्पूर्णता में भगवती में विलीन एवं विसर्जित हो चुकी है। ऐसे में उसकी स्थिति गुड़ खाने वाले गूंगे की भाँति हो जाती है। अब भला यह अति व्यापक एवं अलौकिक अनुभव की बात कौन कहे? किससे कहे?’’
…. क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २११