Home ???? भक्तिगाथा (भाग १०७)

???? भक्तिगाथा (भाग १०७)

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एक शून्य निवेदन है भक्ति


महर्षि कहोड़ के स्वर सभी के हृदयसरोवर में भाव बनकर थिरक रहे थे, लेकिन फिर भी स्थिरता थी। भावउर्मियों के इन तीव्र स्पन्दनों के बावजूद सब ओर बाहर-भीतर निःस्पन्दता थी। स्वरों के रव में नीरव संव्याप्त हो रहा था। एक अद्भुत समां था। भक्ति का अनुभवरस बरस रहा था और सब लोग उसमें सब तरफ से भीग रहे थे। ऋषि कहोड़ कह रहे थे- ‘‘भक्त का न तो कोई कर्त्तृत्व होता है और न कोई व्यक्तित्व। भक्त तो बस मौन है, एक शून्य निवेदन है।’’ महर्षि के इस कथन के साथ पूर्व दिशा की लालिमा सघन होकर सूर्योदय में परिवर्तित होने लगी थी। आज का भक्तिसंगम ब्रह्मबेला में की जाने वाली गायत्री उपासना के बाद तत्काल प्रारम्भ हो गया था।

शास्त्र कहते हैं- प्रातः सन्ध्या का विधान-

उत्तमा तारकोयेता मध्यमा लुप्ततारका।

कनिष्ठा सूर्य सहिता प्रातः संध्या त्रिधा स्मृता॥१॥

प्रातःकाल की उत्तम संध्या का समय तब है, जब आकाश में तारागण हों, जबकि तारागणों के लुप्त हो जाने पर इस समय को प्रातः संध्या के लिए मध्यम माना जाता है। यदि आकाश में सूर्यदेव उदित हो जायें तो यह समय प्रातः संध्या के लिए कनिष्ठ कहा जाता है।

इस समागम में प्रायः सभी शास्त्रों का सम्यक अनुसरण करने वाले ही नहीं बल्कि शास्त्रमर्मज्ञ और शास्त्रों के रचयिता भी थे। सो ऐसे में भला किससे और कहाँ शास्त्रों की उपेक्षा व अवहेलना होती। सभी ने प्रातःकाल की संध्या इसके लिए निर्धारित सर्वोत्तम समय पर कर ली थी। इसके तुरन्त बाद आज का भक्तिसमागम प्रारम्भ हो गया था। सभी महर्षि कहोड़ के अनुभव अमृत में भीग रहे थे। इस अनुभव अमृत की सुगन्धि कुछ ऐसी दिव्य थी कि इससे आज का सूर्योदय भी सुवासित हो गया। सूर्योदय के इन क्षणों में सभी ने पक्षियों के मनोहारी कलरव संगीत के साथ गायत्री महामन्त्र का सस्वर उच्चारण करते हुए भगवान् भुवन भास्कर का नमन-अभिनन्दन किया।

इस नमन में भक्ति की सम्पूर्ण झलक थी। वैसे भी ऋषि कहोड़ की गायत्रीभक्ति अनूठी थी। उनकी सम्पूर्ण चेतना गायत्रीमय थी। महर्षि अपने कथन की कड़ियों को जोड़ते हुए कह रहे थे कि ‘‘भक्ति के अनुभव की सघनता व सम्पूर्णता अतिविरल है। यदि जीवन में यह किसी तरह से आ भी जाय तो इसे कहना बताना सम्भव नहीं हो पाता।’’ इतना कहकर वे बोले-

शून्य नहीं होता परिभाषित

रहता मात्र नयन में

मन्वंतर, संवत्सर, वत्सर

कब बंधते लघु क्षण में

रहते सभी अनाम न कोई

कभी पुकारा जाता

रह जाती अभिव्यक्ति अधूरी

जीवन शिशु तुतलाता।

भक्ति की भावनाओं में असीम-अनन्त परमात्मा की सचेतन संवेदनाएँ लहराती हैं। इस अनन्त-असीम को भला सामान्य बुद्धि-मन-वाणी कैसे कहे? लेकिन यदा-कदा अपवाद भी घटित होते हैं। कहीं किसी विरले भक्त की भक्ति से परमेश्वर प्रकट होने लगता है। ऋषि कहोड़ के इस कथन ने देवर्षि नारद को थोड़ा सचेष्ट-सचेत किया और किञ्चित चौंकाया भी। और अनायास उनके मुख से एक सूत्र स्वरित हुआ-

‘प्रकाशते क्वापि पात्रे’॥ ५३॥

किसी विरले योग्य पात्र में ऐसा प्रेम प्रकट भी होता है।

देवर्षि के मुख से अनायास निकले इस सूत्र ने ऋषि कहोड़ को पुलकित कर दिया। उन्होंने बड़े स्नेहिल नेत्रों से नारद की ओर देखा और कहा- ‘‘ऋषि नारद भक्तिमर्मज्ञ हैं। उनका कथन सर्वथा सत्य है। कभी-कभी कोई सौभाग्यशाली ऐसा महापात्र होता है कि उसमें परमात्मा प्रकाशित होता है लेकिन जरा यह भेद तनिक समझने योग्य है। अभिव्यक्त नहीं प्रकाशित। किसी विरले भक्त में भक्ति इतनी बह उठती है कि उनके पात्र के ऊपर से बहने लगता है परमात्मा।

…. क्रमशः जारी

� डॉ. प्रणव पण्ड्या

📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१३