Home ???? आंतरिक उल्लास का विकास भाग ६

???? आंतरिक उल्लास का विकास भाग ६

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प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को सजीव बनाइये      
 
लोग क्या कहते हैं ‘ ‘-इस आधार पर यदि, दुःखी होने की आदत डालेंगे तो सदैव दुःख भोगना पड़ेगा यह संभव नहीं कि सब लोग आपकी मनमर्जी के बन जावें और वैसे ही आचारण करें जैसे कि आप चाहते हैं। ” हम क्या करते हैं ‘ ‘-इस आधार पर यदि होने की आदत डालेंगे तो सदैव सुख ही सुख सामने पडेगा। ‘ अपने को मनमर्जी का बनाना अपने हाथ में है। इससे कौन रोक सकता है कि हम ‘ को अपना समझें, उन्हें प्यार करें और उस प्यार एवं अपनेपन कारण जो आनंद उपजे उसका उपयोग करें। स्वर्ग निर्माण की यही कुंजी है। अपने प्रेम भाव के कारण बहुत अंशों में ‘ दूसरों का व्यवहार नरम, मधुर, सुखकर हो जाता है। कदाचित कहीं अपवाद उपस्थित हो, किसी ऐसे जड से पाला पड़े जो उलटा ही उलटा चलता हो तो उसकी गतिविधियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखिए उसे अपनी मौत मरने दीजिए आप तो अपने कर्त्तव्य में प्रसन्न रहिए। संसार में अनेक दुष्टात्मा भरे पडे हैं उनके होने से आपको कुछ बड़ा भारी शोक- संताप नहीं होता फिर क्या कारण है कि अमुक व्यक्तिं के दोंषों का दंड आप अपने को दें। दूसरों के बुरे विचार और कार्यों से अपने को प्रभावित मत होने दीजिए। सहनशील और समझौते की नीति से काम लीजिए। बदला या कर्ज चाहने की इच्छा छोडकर विशुद्ध प्रेम का, आत्मभाव का प्रसार कीजिए इससे आप अपने लिए एक स्वर्ग की रचना बड़ी आसानी से कर सकेंगे।

आध्यात्मिक साधना में ‘ अहंभाव का विस्तार करना ‘-यह तत्त्व प्रधान  रूप में विद्यमान है। आत्मोन्नति यही तो है कि अपनेपन के दायरे को छोटे से बडा बनाया जाए। जिनका अपनापन केवल अपने शरीर तक ही है वे कीट-पतंग नीची श्रेणी के हैं जो अपनी संतान तक आत्मभाव को बढ़ाते हैं वे पशु-पक्षी उनसे कुछ ऊँचे हैं जिनका अहंकार अपनीं संस्था, राष्ट्र तक है वे मनुष्य हैं, जो, समस्त मानव जाति को अपनेपन से ओत-प्रोत देखते हैं, वे देवता हैं, जिनकी आत्मीयता  चर-अचर तक विस्तृत है वे जीवन मुक्त परम सिद्ध हैं।

जीव अणु है, छोटा है, सीमित है। ईश्वर महान है, विभु है, व्यापक है। जब जीव ईश्वर में तद्रूप होने के लिए आगे बढता है तो वह भी महानता, विभुता, व्यापकता के गुणों में समन्वित होने लगता है। जिन पर भूत चढ़ता है उनके वचन और आचरण भूत जैसे हो जाते हैं, ईश्वरीय कृपा की किरण जिन महात्माओं पर पडती है, उनकी स्पष्ट पहचान ‘ आत्मभाव का विस्तार ‘ है। जिसका स्वार्थ जितने कम लोगों तक सीमित है वह ईश्वर से उतना ही दूर है। जो आत्मभाव का जितना विस्तार करता है, अधिक लोगों को अपना समझता है, दूसरों की सेवा सहायता करना आवश्यक कर्त्तव्य समझता है और उनके सुख-दुःख में अपना सुख-दु :ख मानता है, वह ईश्वर के उतना ही निकट है। आत्मविस्तार और ईश्वर आराधन एक ही क्रिया के दो नाम हैं।

…. क्रमशः जारी

� पं श्रीराम शर्मा आचार्य

📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ९