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समग्र स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु एक अभूतपूर्व कदम

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मनुष्य के द्वारा ग्रहण किया जाने वाला अन्न भी उसके शरीर का निर्माण करता है। शरीर को ग्रहण किया गया अन्न, औषधि-वनस्पतियों का रूपांतरण कहा जा सकता है। यदि शरीर को ये पोषक पदार्थ न प्राप्त हों तो शरीर का स्वयं को जीवित रख पाना संभव न हो सकेगा। इन पोषक पदार्थों में उपस्थित रासार्या तत्त्वों का परस्पर संतुलन ही मानवीय काया की जीवनीशक्ति का मूल आधार कहा जा सकता है इसलिए ग्रहण किए जाने वाले आहार में यदि असंतुलन अथवा विषाक्तता का समावेश हो जाए तो शरीर रोग, विकृतियाँ इत्यादि पनपने लगते हैं।

इन विकृतियों को सुधारने के लिए चाहे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान हो अथवा वनौषधि विज्ञान-सभी प्रयत्न ये ही करते हैं कि इस रासायनिक असंतुलन को सम्यक रूप से पुनर्स्थापित किया जाए। विषाक्त तत्त्वों को शरीर से निकालने की एवं आवश्यक तत्त्वों की शरीर में पूर्ति ही कमोबेश हर चिकित्सापद्धति का आधार मानी जा सकती है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारतीय आयुर्वेद या वनौषधि विज्ञान, वनस्पतियों का आश्रय लेता है, ताकि कम पड़ रहे खनिज, लवण, पोषक तत्त्वों की पूर्ति सहजता की जा सके। खनिज एवं लवण यदि औषधियों के माध्यम से लिए जाते हैं तो उनका पाचन सहजता से संभव हो पाता है, अन्यथा उनको पचा पाना संभव नहीं हो पाता।

प्रकृति ने कुछ ऐसी व्यवस्था की है कि जिस भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले निवासियों को जिस तत्त्व की कमी होती है-वह उन तत्त्वों को उसके निकटवर्ती क्षेत्र में उसी तरह की औषधियाँ, वनस्पतियाँ लगा करके कर देती है। जीव जंतु इसी आधार पर अपने कष्टों व रोगों का निवारण स्वयं कर लेते हैं। जंगल में भला उन्हें चिकित्सा की सुविधाएँ कौन उपलब्ध कराएगा? इसी ज्ञान को आधार बनाकर महर्षि चरक ने भारतवर्ष की लगभग सभी जड़ी-बूटियों एवं वनस्पतियों का गुण संग्रह जनसामान्य के हित के लिए उपलब्ध करा दिया था। सारांश में यह कहा जा सकता कि उनके प्रयत्न का ही यह परिणाम था कि मनुष्य इस सत्य से भिज्ञ हो सका कि शरीर की रुग्णता और दुर्बलता से सहज ही लड़ा जा सकता है, शर्त एक ही है कि उन औषधियों पोषक पदार्थों का सही एवं सटीक ज्ञान हो।

इसी ज्ञान के आधार पर सुषेण वैद्य ने संजीवनी बूटी का उल्लेख करके भगवान लक्ष्मण का उपचार किया था। हुमायूँ से लेकर इब्राहिम लोधी के कष्टों का निवारण तरह के ज्ञान से संभव हो पाया था। च्यवन ऋषि की नेत्र ज्योति अश्विनी कुमार ने इसी ज्ञान के आधार पर लौटा दी थी। उसी के उपरांत च्यवनप्राश अवलेह जनसाधारण के लिए सहजता से उपलब्ध कराया जाता रहा है। शरीर की जीर्ण एवं रोगी हो चुकी कोशिकाओं को क्षय करके नई एवं नूतन कोशिकाओं को कायाकल्प के प्रयोग के माध्यम से सफल बनाया जाता था। साँप के जहर से लेकर कैंसर जैसे असाध्य रोगों की चिकित्सा ऐसे ही प्रयोगों द्वारा वर्षों से की जाती रही।

इसे एक दुर्भाग्य ही कहेंगे कि प्रकृतिप्रदत्त इन दिव्य अनुदानों को भूलकर आज मानवीय समुदाय केमिकलों, टॉनिकों, ऐंटीबायटिकों के पीछे बुरी तरह से भागता नजर आता है। तकलीफों के रात भर में निवारण करने की जिद ने इनसान की समझ को कुंद कर दिया है और वह यह भूल सा बैठा है कि इन तीव्र, उत्तेजक, मादक पदार्थों को बारंबार लेने का दुष्परिणाम क्या होता है। रोग तो थोड़े दिन में चला जाता है, पर उन जहरीली दवाइयों का जहर लंबे समय तक इनसान को भाँति-भाँति के कष्ट उपहार में देता रहता है। उपचार की आशा के साथ गए लोग नए संकट और नवीन परेशानियाँ लेकर के लौटते हैं।

मानवीय समुदाय में बुरी तरह से व्याप्त इन समस्याओं का सटीक समाधान देने के उद्देश्य से ही परमपूज्य गुरुदेव ने इस ऋषि परंपरा का पुनर्जीवन शांतिकुंज के पुनीत प्रांगण में किया। यहाँ पर उनके द्वारा चलाए गए अनेकों अद्भुत प्रयोगों में एक प्रयोग इस ऋषि परंपरा का पुनर्जीवन करना है रहा है। भारत की इस प्राचीन एवं सशक्त चिकित्सा प्रणाली को पुनर्जीवन देना संपूर्ण भारतीय संस्कृति के लिए एक अनुपम उदाहरण के रूप में गिना जा सकता है। हमारे अपने ज्ञान के प्रति स्वाभिमान का भाव जगाने के अतिरिक्त इस परंपरा को पुनर्जीवन देने का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह हुआ है कि अनेक लोग जो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के महँगे इलाजों को करा पाने के लिए आर्थिक आधार को नहीं रखते हैं, वे इसके माध्यम से अपने रोगों का सहज समाधान पा लेते हैं।

आज शांतिकुंज में स्थापित आयुर्वेद फार्मेसी में 80 से ज्यादा औषधियों का निर्माण किया जाता है। प्रज्ञापेय से लेकर सरस्वती पंचक जैसी अद्भुत औषधियों का निर्माण यहाँ पर किया जा रहा है, जिनको लेने के लिए देश-विदेश से व्यक्तियों का ताँता सदा लगा रहता है। अद्भुत बात यह है कि जहाँ ज्यादातर आयुर्वेदिक फार्मेसियों में इन औषधियों के दाम आसमान छूते नजर आते हैं और उनको लेना एलोपैथी की दवाई से भी ज्यादा महँगा शौक बताया जा रहा है, वहाँ शांतिकुंज की फार्मेसी में आज भी औषधियाँ नगण्य दामों पर, जितना कम-से-कम संभव हो सके, उतने दामों पर मिलती नजर आती हैं।

इनका विक्रय करने में शांतिकुंज के अर्थतंत्र को भारी घाटा उठाना पड़ता है, पर इसके बावजूद परमपूज्य गुरुदेव के द्वारा दी गई इस सोच को यथावत् रखा गया है कि इन औषधियों को सामान्य व्यक्ति के आर्थिक आधार को ध्यान में रखकर ही विक्रय किया जाए। शांतिकुंज की फार्मेसी का आधार व्यवसाय करना नहीं, बल्कि ऋषि परंपरा का पुनर्जीवन करना है।

आज इन वनौषधियों को उनके शुद्ध रूप में प्राप्त करना भी बहुत चुनौतीपूर्ण हो गया है। पुराने समय में पंसारियों की दुकानों पर जड़ी-बूटियाँ मिल जाया करती थीं, पर आजकल तो इन सबका स्थान बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थानों ने ले लिया है। बड़ा मुनाफा कमाने की दौड़ में वे असली-नकली का ध्यान भी नहीं रखते और इसीलिए कई बार इन वनौषधियों को लेने के बाद भी व्यक्ति को कुछ लाभ नहीं होता दिखता है।

पुराने समय में इन औषधियों, पोषक तत्त्वों, वनस्पतियों को ढूँढ़ करके लाने का कार्य वैद्य किया करते थे। आजकल उन वैद्यों का स्थान मजदूरों ने ले लिया है, जिन्हें यह भी ढंग से नहीं पता होता कि किस औषधि का चिकित्सकीय गुण उसके कौन से हिस्से में है इसीलिए बड़े-बड़े नामों बड़ी-बड़ी आयुर्वेदिक फार्मेसियों की दवाइयाँ भी कारगर नहीं हो पाती हैं।

इस समस्या का बेहतर समाधान परमपूज्य गुरुदेव ने वर्षों पहले ही कर दिया था, जब उन्होंने व्यवस्था बनाई कि शांतिकुंज की आयुर्वेदिक फार्मेसी मात्र परिचित वैद्यों से ही जड़ी-बूटियों को लिया करेगी। कई सारी जड़ी-बूटियाँ तो हजारों किलोमीटर की यात्रा करके मँगवायी जाती हैं। यह ही कारण है कि आज इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी शांतिकुंज फार्मेसी द्वारा बनाई जाने वाली जड़ी-बूटियों की गुणवत्ता में तनिक-सा भी अंतर नहीं आया है। इन वनौषधियों का निर्माण करने के अतिरिक्त सही जड़ी-बूटियाँ कैसी होती हैं-इसका उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए देव संस्कृति विश्वविद्यालय में एवं ब्रह्मवर्चस में एक विशेष उद्यान को भी लगाया गया है, ताकि लोग उन औषधियों को उनके मूल स्वरूप में कभी भी देख सकें।

इन कदमों को भी मात्र यहीं नहीं रोका गया है, बल्कि निरंतर चलने वाले वनौषधि प्रशिक्षण सत्रों के माध्यम से इस ज्ञान को भारत के कोने-कोने में ले जाया जा रहा है। इन औषधियों के चमत्कारिक गुणों से अवगत होने पर एवं उनके विषय में सही ज्ञान रखने पर गाँव-गाँव से इस तरह के प्रयास उत्पन्न हो सकेंगे, जिनसे इन तकलीफों को दूर करने को एक कारगर व्यवस्था बनाई जा सके। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा शांतिकुंज में स्थापित इस प्रकल्प के माध्यम से जो परिणाम सामने निकल करके आए हैं, उनको देखकर यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि यदि इस प्रयोग की पुनरावृत्ति अन्य जगहों पर भी हो सकी तो संपूर्ण मानव जाति के कल्याण का पथ सुनिश्चित रूप से प्रशस्त हो सकेगा। सभी के समग्र स्वास्थ्य की प्राप्ति की दिशा में इसे एक महत्त्वपूर्ण कदम कहा जा सकता है।

दिसंबर, 2021 अखण्ड ज्योति

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