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    मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिए क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है । आलस्य और दरिद्र, पाप और पतन जहाँ रहते हैं वहीं मलिनता या गन्दगी का निवास रहता है । जो ऐसी प्रकृति के हैं उनके वस्त्र घर, सामान, शरीर, मन, व्यवहार, वचन, लेन-देन सबमें गन्दगी और अव्यवस्था भरी रहती है । इसके विपरीत जहाँ चैतन्यता, जागरूकता, सुरुचि, सात्विकता होगी वहाँ सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जाएगा । सफाई, सादगी और सुव्यवस्था में ही सौन्दर्य है, इसी को पवित्रता कहते हैं ।

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    संसार में जितनी प्रकार की श्रेष्ठ-शक्तियाँ हैं वे भगवान की प्रदान की हुई हैं । धन की शक्ति भी उन्हीं के द्वारा उत्पन्न की गई है और उन्होंने ‘लक्ष्मी’ के रूप में उसे संसार के कल्याणार्थ प्रेरित किया है । मनुष्य का कर्तव्य है कि इसे भगवान् की पवित्र धरोहर समझकर ही व्यवहार करे । इतना ही नहीं उसे इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह शक्ति ऐसे लोगों के पास न जा सके जो इसका दुरुपयोग करके दूसरों का अनिष्ट करने वाले हों ।

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    घन इसलिए जमा करना चाहिए कि उसका सुदपयोग किया जा सके और उसे सुख एवं सन्तोष देने वाले कामों में लगाया जा सके, किन्तु यदि जमा करने की लालसा बढ़कर तृष्णा का रूप धारण कर ले और आदमी बिना घर्म-अघर्म का ख्याल किए पैसा लेने या आवश्यकताओं की उपेक्षा करके उसे जमा करने की कंजूसी का आदी हो जाय तो वह धन धूल के बराबर है । घन का गुण उदारता बढ़ाना है, हदय को विशाल करना है, कंजूसी या बेईमानी के भाव जिसके साथ सम्बद्ध हों, वह कमाई केवल दुःखदायी ही सिद्ध होगी ।

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    धन उचित अभावों की पूर्ति के लिए है, उसके द्वारा अहंकार तथा अनुचित कार्य नहीं किए जाने चाहिए । धन का उपार्जन केवल इसी दृष्टि से होना चाहिए कि उससे अपने तथा दूसरों के उचित अभावों की पूर्ति हो । शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के विकास के लिए सांसारिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए घन का उपयोग होना चाहिए और इसीलिए उसे कमाना चाहिए ।

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    विपत्ति से घबराओ मत। विपत्ति कड़वी जरूर होती है, पर याद रखो, चिरायता और नीम जैसी कड़वी चीजों से ही ताप का नाश होकर शरीर निर्मल होता है। विपत्ति में कभी भी निराश मत होओ। याद रखो, अन्न उपजाकर संसार को सुखी कर देने वाली जल की बूँदें काली घटा से ही बरसती हैं। विपत्ति असल में उन्हीं को विशेष दु:ख देती है, जो उससे डरते हैं। जिनका मन दृढ़ हो, संसार की अनित्यता का अनुभव करता हो और हर बात में भगवान की दया देखकर निडर रहता हो , उसके लिए विपत्ति फूलों की सेज के समान है ।

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    साधारण लोग कठिनाइयों को दुर्भाग्य की बात समझते हैं । पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है। जिन लोगों ने कभी जीवन की कठोरता के दर्शन नहीं किए हैं, वे अनेक दृष्टियों से कच्चे रह जाते हैं । इसलिए भगवान ने जहाँ सुखों की सृष्टि की है, वहाँ दुःखों और कठिनाइयों की
    रचना भी कर दी है। इनका अनुभव हुए बिना मनुष्य अपूर्ण रह जाता है और उसका उचित विकास नहीं हो पाता।

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    गायत्री का पाँचवाँ अक्षर ‘तु’ आपत्तियों और कठिनाइयों में धैर्य रखने की शिक्षा देता है l आपत्तिग्रस्त होने पर भी प्रयत्न करना आत्मा का धर्म है। प्रयत्न की महिमा और प्रतिष्ठा अपार कही गई है ।”
    मनुष्य के जीवन में विपत्तियाँ, कठिनाईयाँ, विपरीत परिस्थितियाँ, हानियाँ और कष्ट की घड़ियाँ आती ही रहती हैं । जैसे काल-चक्र के दो पहलू-काल और दिन हैं, वैसे ही संपदा और विपदा, सुख और दुःख भी जीवन रथ के दो पहिये हैं । दोनों के लिए ही मनुष्य को निस्पृह वृत्ति से तैयार रहना चाहिए । आपत्ति में छाती पीटना और संपत्ति में इतराकर तिरछा चलना, दोनों ही अनुचित हैं।

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    अस्वाद का अर्थ है-स्वाद का गुलाम न होना। अस्वाद का यह अर्थ नहीं है कि हम संसार के भोग्य पदार्थों का सेवन न करें, या षटरसों का पान न करें या जिह्वा की रस-ज्ञान की शक्ति को खो दें। अस्वाद व्रत ऐसा नहीं कहता, वह तो कहता है कि शरीर के पोषण, स्वास्थ्य तथा रक्षा के लिए जिन-जिन पदार्थों की आवश्यकता हो उनका अवश्य सेवन करो,परंतु कभी जीभ के चोचले पूरा करने के लिए किसी वस्तु का सेवन न करो।

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    इंद्रियनिग्रह का मूल मंत्र अपने को आवेशों से बचाए रहना है । जिस व्यक्ति के भीतर तरह-तरह के मनोवेगों का तूफान उठता रहता है, उसका मानसिक संतुलन स्थिर नहीं रह सकता और इससे वह इंद्रियों को वशीभूत रखने में भी असमर्थ हो जाता है । इसीलिए जो लोग इंद्रियों को संयत रखना चाहें उनको अपने मनोवेगों पर भी सदैव दृष्टि रखना आवश्यक है।

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    इंद्रियाँ आत्मा के औजार हैं, सेवक हैं, परमात्मा ने इन्हें इसलिए प्रदान किया है कि इनकी सहायता से आत्मा की आवश्यकताएँ पूरी हों और सुख मिले। सभी इंद्रियाँ बड़ी उपयोगी हैं। सभी का कार्य जीव को उत्कर्ष और आनंद प्राप्त कराना है। यदि उनका सदुपयोग किया जाए तो मनुष्य निरंतर जीवन का मधुर रस चखता हुआ जन्म को सफल बना सकता है।