निमाई और रघुनाथ सहपाठी थे, दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी। रघुनाथ ने एक ग्रंथ लिखा और समीक्षा के उद्देश्य से निमाई को दिया। कुछ दिनों पश्चात रघुनाथ ने निमाई से उसके संबंध में पूछा तो निमाई ने कहा- “अति उत्तम, त्रुटिहीन ।” तब निमाई ने अपना न्यायशास्त्र पर लिखा हुआ एक भाष्य दिखाया। रघुनाथ ने जैसे ही उसकी चंद पंक्तियाँ पढ़ीं, उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। निमाई के बार-बार पूछने पर रघुनाथ बोले – ” मित्र! तुम्हारी कृति के सामने मेरी कृति नगण्य है। उसे कोई भी पढ़ना पसंद नहीं करेगा।” “बस, इतनी सी बात।” ऐसा कहते हुए निमाई ने अपनी रचना से अपना नाम काटकर रघुनाथ नाम लिख दिया। रघुनाथ ने बहुत मना किया, परंतु निमाई ने कहा – “यह मेरी ओर से उपहार समझकर रख लो।” रघुनाथ मित्र की महानता व प्रेम से गद्गद हो उठे।कालांतर में निमाई ही चैतन्य महाप्रभु के नाम से सुविख्यात हुए और रघुनाथ की कई कृतियाँ जनमानस का मार्गदर्शन करने में अग्रणी सिद्ध हुईं।
अखंड ज्योति
जुलाई, २०२१