बादल, नदी, पहाड़, वन, उद्यान आदि सब अपने हैं। इनमें से जब जिसके साथ रहना हो रहें, जिसका जितना उपयोग करना हो करें, इसमें कोई रोक-टोक नहीं है, लेकिन संग्रह करना दुःखदायी है। यदि नदी को रोककर अपनी बनाना चाहेंगे और किसी दूसरे के पास न आने देंगे, उपयोग करने नहीं देंगे, तो समस्या उत्पन्न होगी। एक जगह जमा किया हुआ पानी अमर्यादित होकर बाढ़ के रूप में उभरने लगेगा और आपकी निजी खेत-खलिहानों को भी डुबो देगा। बहती हुई हवा कितनी सुरभित है, पर उसे आप अपने ही पेट में भरना चाहेंगे, तो आपका पेट फूलेगा और फटेगा। इसी में औचित्य है कि जितनी जगह फेफड़े में है, उतनी ही सांस लें और बाकी हवा दूसरों के लिए छोड़ दें। भगवान आपके हैं और उसके राजकुमार होने के नाते सृष्टि की हर वस्तु पर आपका समग्र अधिकार है। उसमें से जब जिस चीज की जितनी आवश्यकता होती है,उतनी लें और आवश्यकता निबटने ही अगली बात सोचें। मिल-बाँटकर खाने की नीति ही सुखकर है। संसार में सुखी और सम्पन्न रहने का यही तरीका है। परमात्मा के अनन्त वैभव से विश्व में कभी किसी बात की कमी नहीं है।
( संकलित व संपादित)
– अखंड ज्योति जनवरी 1985 पृष्ठ 1