शारीरिक स्वास्थ्य की अवनति या बीमारियों की चढ़ाई अपने आप नहीं होती, वरन् उसका कारण भी अपनी भूल है। आहार में असावधानी, प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा, शक्तियों का अधिक खर्च, स्वास्थ्य नाश के यह प्रधान हेतु हैं जो लोग तन्दुरूस्ती पर अधिक ध्यान देते हैं, स्वास्थ्य के नियमों का ठीक तरह पालन करते हैं, वे मजबूत और निरोग बने रहते हैं। यूरोप अमेरिका के निवासियों के शरीर कितने स्वस्थ एवं सुदृढ़ होते हैं। हमारी तरह वे भाग्य का रोना नहीं रोते, वरन्ï आहार-विहार के नियमों का सख्ती के साथ पालन करते हैं, बुद्धि ओर विवेक का उपयोग निरोगता के लिए करते हैं, जिससे वे न तो बहुत जल्द बीमार पड़ते हैं, न दुर्बल होते हैं और न अल्पायु में मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं।
मनुष्य का मन शरीर से भी अधिक शक्तिशाली साधन है। इसके निर्द्वन्द रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक उन्नति कर सकता है। किन्तु खेद है कि आज लोगों की मनोभूमि बुरी तरह विकार-ग्रस्त बनी हुई है। चिंता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ और आवेगों का भूकंप उसे अस्त-व्यस्त बनाये रहता है। स्थिरता, प्रसन्नता और सदाशयता का कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होता। ईर्ष्या, द्वेष और रोष, क्रोध की नष्टïकारी चिताएँ जलती और जलाती ही रहती हैं। लोग मानसिक विकारों, आवेगो और असद्विचारों से अर्ध विक्षिप्त से बने घूम रहे हैं। यदि इस प्रचंड मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मन:शांति का महत्त्व समझने और नि:स्वार्थ निर्लोभ एवं निर्विकारता द्वारा उसको सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते चलें, तो मानसिक विकास के क्षेत्र में बहुत दूर तक आगे बढ़ सकते हैं।
भोगवाद की बढ़ती अतृप्त लालसा ने जन मानस को विशृंखलित बना दिया है। विकसित एवं विकासशील देशों में आये दिन होने वाली आत्महत्याओं और विभिन्न अपराधों में वृद्धि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आत्महत्या में अमेरिका व कनाडा का पहला स्थान है जबकि जापान दूसरे नम्बर पर है। विश्लेषण करने वाले कई प्रकार से इसका विवेचन कर सकते हैं, किन्तु यह सुनिश्चित है कि भोगवादी जीवन अध्यात्मवाद से परे होने के कारण कई प्रकार के संत्रास, विक्षोभ, तनाव एवं कष्ट सभी के लिए लाया है। आत्महत्याओं के अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु विशेष कारणों में निराशा, पारिवारिक कलह, आर्थिक कठिनाई, शराब तथा अनीश्वरवाद की गणना की जाती है।
कहना न होगा कि यह सब कारण भौतिक भोगवाद की ही देन हैं। इतने कारोबारी तथा शक्ति संपन्न देश में निराशा का क्या कारण? क्या कारण है कि इन्हीं देशों में आत्महत्या करने के एक सौ पचास उपाय बातने वाली ‘फाइनल एक्जीट’ नामक पुस्तक सर्वाधिक बिक्री वाली पुस्तक है। स्पष्ट है कि भोगवाद का अंत निराश में ही होता है। भोगवादी शीघ्र ही मिथ्या एवं नश्वर सुखों में अपनी सारी शक्तियाँ नष्ट कर डाला करते हैं, जिससे अकाल ही में खोखले होकर निर्जीव हो जाते हैं। ऐसी दशा में न तो उनके लिए किसी वस्तु में रस रहता है और न जीवन में अभिरुचि। स्वाभाविक है उन्हें एक ऐसी भयानक निराशा आ घेरे जिसके बीच जी सकना मृत्यु से भी कष्टकर हो जाये। पर मुसीबत यह कि उनके आसपास का भोगपूर्ण वातावरण उन्हें अधिकाधिक ईर्ष्यालु, चिंतित तथा उपेक्षित बनाकर जीने योग्य ही नहीं रखता और वे अनीश्वरवादी होने से, आत्मा-परमात्मा को भूले हुए कोई आधार न पाकर आत्महत्या के जघन्य पाप का ही सहारा लेते हैं।
भोगवाद, पूँजीवाद व साम्यवाद की मृगमरीचिका के टूटने के बाद अब अध्यात्मवाद ही एक मात्र मार्ग रह गया है, जो जन-जन के मनों को शांति दे सकता है। अध्यात्मवाद जीवन जीना सिखाता है। भोग करते हुए कैसे त्याग वाला जीवन जियें, इसके सूत्र हमें देता है। अच्छा हो हम समय रहते सँभलें, पाश्चात्य सभ्यता के आक्रमण से स्वयं को बचायें व अपनी संस्कृति के मूल तत्त्व अध्यात्म को जीवंत बनाए रखें।
आज की सारी समस्याओं का एक सामान्य हल है अध्यात्मवाद। यदि शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में अध्यात्मवाद का समावेश कर लिया जाये और अपना दृष्टिकोण सर्वथा आध्यात्मिक बना लिया जाये, तो सारी समस्याओं का समाधान साथ-साथ होता चले और आत्मिक प्रगति के लिए अवसर एवं अवकाश भी मिलता रहे।
–पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, जनवरी 1995