मानव जीवन अमोल रत्नों का भंडार है। अपरिमित विभूतियों का विधान है, किंतु इसकी विभूतियाँ प्राप्त उसे ही होती हैं, जो उनके लिए प्रयत्न करता है, उनके लिए पसीना बहाता है। आलसी और स्थगनशील व्यक्ति इसकी एक छोटी सी सिद्धि भी नहीं पा सकता।जीवन एक संग्राम है। एक आनंददायक संग्राम।
परंतु कब, जब मनुष्य इस संग्राम के हर मोर्चे पर एक वीर सैनिक की तरह लड़ने के लिए तैयार रहता है। जो भीरु है, पलायनवादी है, उसके लिए यह एक जलता हुआ नरककुंड ही है। वह हर कदम पर असफलता और निराशा से पराभूत होकर जिंदगी भर रोता-झींकता रहेगा। जीवन की बहुमूल्य विभूतियाँ पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए, अपने को पूरी तरह से दाँव पर लगा देना चाहिए। जो इसकी निधियाँ प्राप्त करने का संकल्प लेकर कार्य में जुटा रहता है, वह अवश्य ही सफल और सुखी होता है।
मानव जीवन की प्राप्ति को संसार की कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं मानना चाहिए। इस प्रकार का विचार रखने वाले ही उसमें छिपी हुई बहुमूल्य विभूतियों का लाभ नहीं उठा पाते हैं। मानव जीवन को सहज स्वाभाविक प्रक्रिया मानने वाले ही प्राय: इसे व्यर्थ में बरबाद कर डालते हैं। मानव जीवन एक दुर्लभ उपलब्धि है। एक अलौकिक अवसर है। यह बात ठीक-ठीक उन्हीं लोगों की समझ में आती है, जो उसका सदुपयोग करके इस लाभ को प्रत्यक्ष देख लेते हैं। मानव जीवन का क्या महत्त्व है, इसको केवल दो व्यक्ति ही बता सकते हैं, एक तो वे जिन्होंने इसके चमत्कारों को अपने अनुभवों में स्पष्ट देखा है, दूसरे वे जो इसे व्यर्थ में बरबाद करके इसके अंतिम बिंदु पर पहुँचकर पछता रहे हैं।
इस जीवन का एक-एक क्षण बहुत मूल्यवान है। मनुष्य को चाहिए कि वह पुरुषार्थ के बल पर इसकी पूरी कीमत लेने का प्रयत्न करे। जो साहसी है, सतर्क और सावधान है, मानव जीवन की अनंत विभूतियाँ केवल वही पा सकता है। जीवन-रण में केवल वही विजय प्राप्त कर सकता है, जो किसी भी परिस्थिति में हिम्मत नहीं हारता। जीवन उसी का सफल होता है, जिसके यापन के पीछे कोई सदुद्देश्य अथवा कोई ऊँचा लक्ष्य रहता है।
जीवन में सदुद्देश्यता रहने से ही मनुष्य आज तक इतनी उन्नति करता चला आया है। मनुष्य को निरंतर उन्नति और विकास की ओर बढ़ने की प्रेरणा देने वाली शक्ति सदुद्देश्यता ही है। जीवन का कोई उद्देश्य न होने से ही पशु सदैव ही अपनी पाशविक अवस्था में ही रहते हैं। न तो उन्होंने आज तक कोई उन्नति की है और न आगे ही
कर सकने की संभावना है। यही नहीं, बिना किसी सदुद्देश्य के जीवन बिताने वाले मनुष्य भी एक प्रकार के पशु ही हैं। वे भी अपने जीवन में कोई उन्नति नहीं कर सकते और एक दिन फिर मनुष्यता को खोकर पशुता में डूब जाएंगे।
मनुष्य को मानव जीवन यों हो बरबाद करने के लिए नहीं मिला है। उस सर्वशक्तिमान स्रष्टा ने संसार में किसी चीज को यों ही बरबाद होने के लिए नहीं बनाया है। यदि किसी चीज का उद्देश्य बरबादी होता तो उसके बनाने का अर्थ क्या?
संसार की हर चीज का एक मतलब है, एक उद्देश्य है और वह यह कि उसका सीमांत सदुपयोग किया जाए। संसार की सारी जड़-चेतन वस्तुओं में मानव जीवन सबसे अधिक महत्त्व एवं मूल्य रखता है। यदि उसका उद्देश्य भी विषय-वासना तथा भोगों का उपभोग होता तो निश्चित रूप से अन्य पशु-पक्षियों तथा कीड़े- मकोड़ों की भांति इसे भी विवेक-बुद्धि और ज्ञान की संपत्ति नहीं दी जाती। मनुष्य का विवेकवान होना ही यह सिद्ध करता है कि उसके जीवन का उद्देश्य अन्य प्राणियों से भिन्न है और वह है-अपने निर्माता को पहचानना और उसे पाने का प्रयत्न करना।
समुद्र की तरह जीवन-मंथन करने से भी मनुष्य को सुख-शांति के असंख्यों रत्न मिलते हैं। जीवन-मंथन का अर्थ है-सामने आए हुए संघर्षों तथा बाधाओं से अनवरत लड़ते रहना। जो प्रतिकूलताओं को देखकर डर जाता है, मैदान छोड़ देता है, वह जीवन की अनंत उपलब्धियों में से एक कण भी नहीं पा सकता। संसार में मानव जीवन सभी को एक तरह से और क्षमता के साथ मिलता है, किंतु जो सावधानीपूर्वक इसका सदुपयोग करता है वह अन्यों को अपेक्षा अधिक सफलता पाता है। वे भी मनुष्य हैं, जिनकी जीवन-गाथाएँ पढ़ी जाती हैं और वे भी मनुष्य हैं, जो उनकी गाथाएँ आश्चर्यपूर्वक पढ़ा करते हैं। दोनों का यह अंतर केवल इस
बात पर निर्भर करता है कि इनमें से एक ने अपने जीवन का साहस, उत्साह और उल्लास के साथ सदुपयोग किया है और दूसरे ने इसको आलस्य, प्रमाद अथवा वितृष्णाओं की तृप्ति में केवल बरबाद किया है।
मानवता केवल इसमें नहीं है कि हमने जोवन क्षेत्र में साधनों को किस सीमा तक अपनी स्वार्थ-परिधि में घेर रखा है। मानवता इसमें है कि हमने अपने प्राप्त साधनों को किस सीमा तक संसार के कल्याण में नियोजित किया है।
जीवन की असंख्य जटिलताओं के बीच भी मनुष्य को कुछ श्रेयस्कर करना है। उसे मानव जीवन के चरम-लक्ष्य तक पहुंचना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे अपने स्वार्थों को भी परमार्थ के रूप में बदलना है। उसे जो कुछ खाना-पीना और करना-धरना है, वह केवल अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए करना है।
स्वार्थपूर्ण जीवन और परमार्थपूर्ण जीवन में कोई विशेष विपरीतता नहीं है, केवल एक दृष्टिकोण का अंतर है। जिस प्रकार स्वार्थी व्यक्ति खाता-पीता और व्यवहार करता है, उसी प्रकार एक परमार्थी व्यक्ति भी। उसकी जीवनक्रम कोई विलक्षण अथवा विचित्र प्रकार से नहीं चलता। स्वार्थी और परमार्थी के बीच जो अंतर है, वह केवल इतना कि एक जो कुछ चाहता या पाता है, वह केवल अपने लिए, अपने तक सीमित रखने को होता है और परमार्थी की सारी इच्छाओं एवं उपलब्धियों का लाभ दूसरों के लिए रहता है। यह बात ठीक है कि जीवन के भौतिक स्वार्थों में लाभों का भी एक स्थान है। किंतु एक किसी आवश्यक सीमा तक ही संसार के भौतिक स्वार्थ एवं लाभ साधन मात्र हैं, साध्य नहीं। जीवन-लक्ष्य निस्संदेह इन संकीर्ण स्वार्थों एवं लाभों से परे है मनुष्य को यह न भूलना चाहिए कि वह इस विश्व ब्रह्मांड में किसी विशेष उद्देश्य के लिए जन्मा है और वह विशेष उद्देश्य है- आध्यात्मिक आदर्शों की प्राप्ति करना। आध्यात्मिक आदर्शों की प्राप्ति अथवा पूर्ति के लिए उसे भौतिकतापूर्ण संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठना होगा। तभी उसकी आत्मा का विकास होगा और उद्देश्य की पूर्ति के
लिए प्रशस्त मार्ग दिखलाई देगा।
आध्यात्मिक आदर्शों की पूर्ति के लिए यह आवश्यक नहीं कि साधारण जीवन की सारी आवश्यकता तथा उसके कर्तव्यों को छोड़कर अध्यात्म साधना में लग जाएँ। मनुष्य को करना यह चाहिए कि वह साधारण जीवनक्रम को ही आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ओत-प्रोत कर ले। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम जीविका और जीवन-निर्वाह का बहाना ले घोर स्वार्थी बन जाएँ और दूसरे का ध्यान छोड़कर केवल अपने तक ही सीमित रहें।
जीवन-निर्वाह की बात को उसकी अपनी सीमा तक ही रखना चाहिए। जिस दिन मनुष्य जीवन-निर्वाह को सामने रखकर स्वार्थों का पोषण करना छोड़ देगा और सोचने लगेगा कि जिस प्रकार मेरे लिए जीवन-निर्वाह आवश्यक है, उसी प्रकार दूसरे के लिए भी, उसी दिन संसार से बहुत से दु:खों का तिरोधान हो जाएगा।
कलात्मक जीवन जिएँ ( व्यक्तित्व मनोविज्ञान )
~पं. श्रीराम शर्मा आचार्य