जीवन में कठिनाइयाँ तथा मुसीबतें तब पैदा होती हैं, जब मनुष्य उसे जटिल, दुरुह और अधिक आडंबरपूर्ण बना लिया करता है। जीवन की सरलता ही सुखद है। व्यवहार में सरलता, विचार और आचरण में स्पष्टता बनी रहे तो मनुष्य के जीवन में कहीं कुछ भी कठिनाइयाँ, परेशानियाँ नहीं हैं।
सरलता का अर्थ विश्व को ऐसे रूप में निदर्शन करना है, जिसमें वह यथार्थ हो। यथार्थ परिस्थिति से भिन्न रूप बनाना ही जटिलता पैदा करता है, इसी से मुसीबतों का जन्म होता है। क्या आपने उस क्लर्क की कहानी पढ़ी है जिसने अपनी धर्मपत्नी पर अपनी आत्मश्लाघा के फलस्वरूप अपना वास्तविक रूप प्रकट नहीं किया? अधिक आय बताकर उसने दांपत्य जीवन में खाई पैदा कर ली। किसी विवाहोत्सव में सम्मिलित होने लिए पत्नी ने हार की याचना की, जिसे वह क्लर्क पूरा नहीं कर सकता था। किंतु अपनी महत्त्वाकांक्षा छिपाने के लिए किसी परिचित से हार माँगकर अपनी धर्मपत्नी को इच्छा पूरी की। घटनावश वह हार उत्सव में खो जाता है और उसकी कीमत चुकाने में उस क्लर्क को अपनी आय का आधा हिस्सा प्रति मास देना पड़ता है। आधी आय उन्हें नितांत गरीब का सा अभावग्रस्त जीवन जीना पड़ता है।
आज ऐसी ही कहानियाँ सर्वत्र देखने को मिल सकती हैं। साधारण जीवन व्यवहार से लेकर उत्सवों, विवाहों, पर्वो पर विद्यार्थी जीवन से लेकर सामाजिक व्यवहार तक सब जगह अस्पष्टता के दर्शन होते हैं। जिसकी आय ५० रुपये है, वह उसे छिपाकर १५० रुपये बताने में अधिक गौरव मानता है। घर की माली हालत अच्छी नहीं है पर बाहर निकलने के लिए वह सुसज्जित वेशभूषा चाहता है। इस जटिलता के कारण पारिवारिक जीवन में, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन में अनेकों समस्याएँ खड़ी होती हैं और मनुष्य का जीवन भार स्वरूप हो जाता है। उनसे न खुद को कोई प्रसन्नता होती है न औरों को। दांपत्य जीवन में विद्वेष, पारिवारिक जीवन में कलह तथा कटुता, व्यक्तिगत जीवन में ऊबन, उत्तेजना, अव्यवस्था, खरचे की तंगी, बच्चों की शिक्षा का पूरा न कर पाना आदि अनेक कठिनाइयाँ केवल इसलिए खड़ी हो रही हैं कि मनुष्य जिस स्थिति में है, उससे बहुत अधिक बढ़-चढ़कर अपने आप को व्यक्त करना चाहता है। यह बनावटीपन जहाँ भी पैदा होगा, वहाँ के जीवन में भोंडापन अवश्य आएगा। उसके फलस्वरूप मनुष्य का जीवन कठिनाइयों, चिंताओं तथा दुरूहताओं में ही फँसता चला जाएगा।
मनुष्य का यह अहंभाव यदि समाप्त हो जाता है तो वह अपने सरल जीवन में आ जाता है। इसमें उसे कुछ हानि नहीं होती। लोग छोटा मानेंगे ऐसी बात नहीं। ऋषियों के जीवन में बड़ी सादगी और सरलता थी, इस कारण उनका गौरव सर्वमान्य ही है। दरअसल बनावटीपन, शेखीखोरी तथा अहंभावना की निंदा की जाती है। नकली
चेहरा लगाकर आने वालों पर ही संसार हँसता है। जिसके अंदर सार्वभौम यथार्थता निर्दोष बनकर प्रतिबिंबित होती है, उसका जीवन आदर्श एवं अनुकरणीय होता है। वह जाग्रत हो जाता है और दूसरों के लिए नमूना बनता है। उसकी अनेक परेशानी उससे दूर रहती है और वह मस्ती का जीवन बिताता है।
जिसे हम स्वाभिमान या आत्माभिमान कहते हैं, वह इसी जीवन की सरलता का परिणाम है। हम जिस स्थिति में हैं उसी में संतुष्ट रहें तो दूसरों के आगे न हाथ फैलाना पड़े, न सहायता पौंगनी पड़े। आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ केवल इसीलिए जाग्रत नहीं होती क्योंकि लोगों को बाहरी बनावट से ही फुरसत नहीं मिलती। गुणों का विकास भी इसीलिए नहीं होता क्योंकि लोग अपने आप को बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करने में ही जीवन की सफलता मानते हैं और इसमें जिसको जितना सम्मान मिल जाता है, उसी में गर्व और संतोष का अनुभव कर लेते हैं। बुद्धि का जो भाग जीवन-विकास और आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण में लगना चाहिए था वह बाह्य विडंबना और आत्मप्रतारणा में हो बीतता रहता है। बौद्धिक स्तर का इससे विकास भले ही हो जाए किंतु आत्मिक स्तर दिन-दिन गिरता जाता है। नैतिक दृष्टि से ऐसे व्यक्तियों को पिछड़ा हुआ ही मानना चाहिए।
आहार-विहार, रहन-सहन, वेशभूषा, विचार तथा जीवन-निर्माण में मौलिक सरलता का समावेश होना आवश्यक है। मनुष्य का जीवन एक उद्देश्य है, जिसे निष्प्रयोजन नहीं होने देना चाहिए। आत्मा की आंतरिक स्फुरणा के साथ मनुष्य विकसित हो, यह उसकी मूल आवश्यकता है। उसके जीवन में स्नेह, प्रेम, आत्मीयता, दया, करुणा, उदारता, सौमनस्यता तथा सहिष्णुता का आदान-प्रदान बना रहे इसके लिए यह आवश्यक है कि उसका जीवन शुद्ध और सरल बना रहे। इससे उसका मनोबल क्षीण न होगा। वह हतोत्साह, परावलंबो तथा उदासीन न होगा। उसके जीवन में निरंतर एक ऐसी दैवी प्रतिभा का विकास होता रहेगा, जिसकी समीपता में उसके उपर्युक्त मानवीय गुण फलते-फूलते तथा अभिषिंचित होते रहेंगे।
जटिलता जीवनवृत्तियों को बाह्योपचारों में लगाती है, सरलता आत्मिक स्तर को, अंत:करण को विशाल बनाती है। सत्य का व्यावहारिक स्वरूप सरलता है । इससे मनुष्य का हृदय विस्तीर्ण होता है, भावनाएँ परिष्कृत होती हैं। जैसे-जैसे उसकी वृत्तियाँ अंतर्वी होती जाती है, वैसे ही वैसे वह संसार को भी अत्यंत स्वच्छ और
स्पष्ट रूप में देखने लगता है। संसार के सच्चे रूप को देखना ही आत्मा की मूल आवश्यकता है। ईश्वर की आकांक्षा को कोई व्यक्ति भुलाकर सर्वव्याप्त सद्गुणों को ही अपने अंतर्गत अवगाहन करता रहे तो आस्तिकता की सारी आवश्यकताएँ इसी से पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्य के जीवन में जब मिथ्याहंकार तथा खोखलापन आता है, तभी उसे सत्य की वास्तविकता से विभ्रम होता है और वह नास्तिकता के कूटचक्र में फंसकर जीवन को कठिन बना डालता है।
मानसिक अशांति का कारण क्या है? मनुष्य चाहते हैं कि संसार के सब पदार्थ अपने-अपने स्वभाव को छोड़कर उन्हीं की इच्छानुकूल बरताव करने लग जाएँ, परंतु पदार्थ ऐसा करने से लाचार हैं। वे जिन प्राकृतिक नियमों से बंधे हैं, उनका उल्लंघन नहीं कर सकते। इसलिए जब वे मनुष्य की इच्छापूर्ति नहीं करते तभी वह दुखी होने लगता है। भलाई तो इसमें थी कि वह वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को देखकर अपनी आवश्यकताओं को उनके अनुकूल बनाने का प्रयत्ल करता। परंतु यह तभी संभव है जब अपनी मानसिक वृत्तियों का नियंत्रण किया जाए और उन्हें स्थिति की परिधि से बाहर न होने दिया जाए। इच्छाएँ, आकांक्षाएँ बढ़ें, इससे हर्ज नहीं, पर वे साधनों के घेरे को तोड़कर बाहर न फैलने पावें, इतना ध्यान बना रहे तो कोई भी प्रगति अनर्थकारक न होगी। संपन्नता, शक्ति और समृद्धि हमारी शान तो है किंतु वे यथार्थ होनी चाहिए। केवल प्रदर्शन मात्र न होना चाहिए।बाहरी और भीतरी साधन और विस्तार में पारस्परिक मेल- मिलाप बना रहे तो वह उन्नति सर्वांगीण कही जाएगी।
मौलिक सरलता इतनी सजीव होती है कि मनुष्य जब प्रत्येक वस्तु से अपना अधिकार छोड़ देता है और परिस्थितियों के साथ संयोग करता है तभी उसे अपने भीतर का खोखलापन अनुभव हो जाता है और विनम्रता, धैर्य, करुणा तथा विवेक का जागरण होने लगता है। आत्मा सरल है और उसके समर्थन के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं। जटिलता तो केवल दुर्गुणों तथा पापवृत्तियों के कारण उत्पन्न होती है। अत: मनुष्य जब तक स्वयं पूर्ण जीवन अभिव्यक्ति न कर ले, उन्हें अपने मनोविकारों के शोधन-परिमार्जन में ही लगे रहना चाहिए। अंत:करण में कलुष न रह जाए और बाह्य जीवन में दंभ न शेष बचे उसी पुरुष का जीवन निश्चयात्मक शांति एवं दैवी प्रतिभा से ओत-प्रोत होता है।
आध्यात्मिक उन्नति और सच्चे सुख को प्राप्त करने का राजमार्ग वृत्तियों पर शासन है। जो लोग वृत्तियों के दास बनकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के प्रयत्नों में उचित-अनुचित का विचार नहीं करते उनकी आत्मा दुर्बल रहती है। आवश्यक सामग्री के उपस्थित न होने पर उन्हें जैसा, जितना तीव्र दु:ख होता है, उसकी प्रतिक्रिया औरों पर भी उसी गति से होती है। कपटता में अकेले एक व्यक्ति नहीं अनेकों और भी संलग्न हो जाते हैं। इस दु:ख में फंसकर लोग अनर्थ करने लगते हैं। इससे छुटकारा तभी संभव है, जब मनुष्य इच्छाओं को दासता को अस्वीकार कर केवल औचित्य पर ध्यान दे।
कलात्मक जीवन जिएँ ( व्यक्तित्व मनोविज्ञान )
~पं. श्रीराम शर्मा आचार्य