उषाकाल का मनोरम समय था। उद्यान के एक कोने में मंदार के पुष्प अपने सौंदर्य के नशे में डूबे, मकरंद के वैभव-विलास के अहं में इतरा रहे थे। वहीं दूसरे कोने में चाँदनी का छोटा पौधा भी था। मंदार पुष्पों में से एक ने चाँदनी के पुष्प की ओर उपेक्षा भरी दृष्टि से देखते हुए कहा- “अरे! तुम्हारा भी कोई जीवन है। रुग्ण जैसी दिखाई देने वाली दुर्बल काया, रंगविहीन पंखड़ियाँ – लगता है विधाता ने तुम्हें किन्हीं पूर्वकर्मों का दंड दिया है। तनिक मेरी ओर देखो। हृष्ट-पुष्ट कलेवर के साथ रंग-बिरंगी रूप राशि और मकरंद की विपुल संपदा भी मुझे मिली है।” उसकी हेय दृष्टि से सकुचाई सी चाँदनी चुपचाप सुनती रही, पर मन-ही-मन उसने संकल्प लिया – अपने को संघबद्ध कर माली को सौंप देने का। गोधूलि वेला में माली आया। चाँदनी के पुष्पों का मूक आमंत्रण उसे उनके पास ले गया। माली ने उन्हें अपनाया और माला के रूप में पिरो दिया।
उसी उद्यान के देव मंदिर में देव प्रतिमा के गले में वह माला अर्पित हो गई। चाँदनी पुष्प प्रसन्न थे। चाँदनी के पुष्पों के सुखद-गौरवपूर्ण स्थान को देखकर मंदार पुष्पों के का अहं गल गया। उन्होंने चाँदनी से इस स्थिति का रहस्य पूछा। चाँदनी ने उत्तर दिया – “बंधुवर ! निरहंकारयुक्त सहयोग, सहकार, स्नेह का सद्भाव तथा अनुशासन ही इसका रहस्य है। हम सभी एक महान लक्ष्य को समर्पित थे। इसी कारण प्रेम के सूत्र में आबद्ध होना स्वीकार कर लिया।”
मंदार पुष्पों ने जिज्ञासा की – “क्या इसके लिए तुम्हें कुछ त्याग करना पड़ा ?” चाँदनी ने कहा – “कुछ अधिक नहीं। मात्र स्वार्थ की संकीर्ण प्रवृत्ति, जिसे मेरे गुरु माली ने सुई से छेद-छेदकर अंतर्मन से निकाल दिया और उसकी जगह दिया प्रेम का सूत्र बस, यही है गौरव प्राप्ति का रहस्य ।” अब तो मंदार पुष्प भी माली की प्रतीक्षा में खड़े थे।
अखंड ज्योति
जुलाई, २०२१