Home Akhand Jyoti Magazine अकारण विरोध एवं विद्वेष से निपटने का राजमार्ग

अकारण विरोध एवं विद्वेष से निपटने का राजमार्ग

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इस समाज संसार में रहते हुए दूसरों से मतभेद स्वाभाविक हैं और यदि ये बढ़ जाएँ तो बात कलह-कलेश भरी कटुता तक आ पहुँचती है। मानवीय मन की प्रकृति, अहंकार के स्वरूप और लोकचलन के सम्मिलित प्रभाव के चलते यह कब दैनिक जीवन का हिस्सा बन जाए, घर-घर एवं समाज की कहानी बन जाए, पता नहीं चलता, लेकिन व्यक्ति से लेकर परिवार एवं समाज की सुख-शांति के लिए तथा सर्वतोमुखी विकास की दृष्टि से यह स्थिति वांछनीय नहीं है। सामूहिक उत्कर्ष के लिए आपसी तालमेल सामंजस्य एवं न्यूनतम उदारता सहिष्णुता की आवश्यकता रहती है।

आपसी मतभेद एवं भ्रम-संशय प्रायः बिना किसी ठोस आधार के भी पनप जाते हैं, जिसमें गलतफहमी प्रमुख कारण रहती है। इसका प्रधान आधार रहता है आपसी संवादहीनता। ऐसी स्थिति में मन में पनपा संशय-भ्रम का छोटा-सा बीज समय के साथ अंकुरित एवं पुष्पित-पल्लवित होकर विकराल रूप धारण करता जाता है। इसका सरल समाधान रहता है आपसी संवाद, जिसके आधार पर आपसी संशय, भ्रम का कुहासा आसानी से छूट जाता है। हाँ! इसके लिए दोनों ओर से न्यूनतम सहयोग की अपेक्षा रहती है यदि एक पक्ष अड़ियल रवैया अपनाए रहे, अपनी दुर्बलता या कमी को स्वीकार करने का साहस एवं सद्भाव नहीं जुटा पाए, तो फिर मतभेद जस के तस बने रहते हैं, लेकिन समाधान तो अंततः आपसी संवाद के आधार पर ही सुनिश्चित होता है |

दूसरा, जब आपसी मतभेद का कारण ईर्ष्या-द्वेष, दुर्भाव एवं नकारात्मक चिंतन हों, तो स्थिति और भी कठिन हो जाती है जिसमें मुख्य कारण परस्पर तुलना एवं प्रतिद्वंद्विता का भाव रहता है। प्रतिद्वंद्विता में कोई बुराई नहीं है, यदि यह स्वस्थ है। किसी को आगे बढ़ते देख यदि आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है, तो यह वांछित है। मानवीय प्रगति का इतिहास इसी तरह की प्रेरणा एवं स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पर व आधारित रहा है, जहाँ विभिन्न सभ्यताएँ एवं संस्कृतियाँ एकदूसरे के प्रगतिशील एवं विकसित स्वरूप से सीखती रहीं-फलस्वरूप आवश्यक आदान-प्रदान होता रहा तथा मानवीय समाज आज की विकसित स्थिति में आ पहुँचा।

मतभेद एवं ईर्ष्या द्वेष का एक कारण व्यक्ति की आंतरिक कुंठा भी रहती है, जिसके कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व हीनता के गहरे भाव से क्लांत होता है। ऐसे में वह दूसरों से प्रेरणा लेने के बजाय, उनकी निंदा, आलोचना, छिद्रान्वेषण कर झूठी संतुष्टि को पाने का प्रयास करता है। इसमें किसी भी तरह से आगे बढ़ रहे व्यक्ति को छोटा व नीचा दिखाने की कुचेष्टा काम कर रही होती है और उसके सकारात्मक पहलुओं की ओर से आँखें बंद रहती हैं।

इसमें सत्य का आधार अत्यल्प रहता है, छोटी सी बात को इसमें नमक-मिर्च लगाकर प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही संवादहीनता की स्थिति में व्यक्ति अंदर ही अंदर – कुढ़ रहा होता है और आगे बढ़ रहे व्यक्ति के प्रति मनःस्थिति क्रमशः विस्फोटक आक्रोश, द्वेष एवं ईर्ष्या का स्वरूप ले रही होती है। ऐसी स्थिति में आपसी संवाद एवं शांति समाधान की संभावनाएँ न्यून रहती हैं।

यदि कोई इस आधार पर आपकी आलोचना, निंदा करता है, दुष्प्रचार करता है या कीचड़ उछालता है, तो फिर इससे प्रभावित होने व इस आधार पर अपना मूल्यांकन करने व बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं रहती। एक बार ऐसी निराधार बातों एवं झूठे आरोपों को सुनकर विचलित होना स्वाभाविक है, लेकिन यदि हम अपने सत्य के प्रति सजग एवं अडिग हैं व आवश्यक सुधार के लिए तैयार हैं, तो फिर ये आरोप हमारे लिए चित्त शुद्धि एवं आत्मपरिष्कार के सुअवसर बन जाते हैं और ये हमें जीवन के प्रति और स्पष्ट तत्त्वदृष्टि का वरदान देकर जाते हैं।

ऐसे में प्रतिपक्षी को उसी की भाषा में जवाब देने का अर्थ हुआ कि हम भी उसी के स्तर तक गिर रहे हैं। यदि वह कीचड़ उछाल रहा है तो हम भी कीचड़ उछाल कर उसका जवाब दे रहे हैं। इस कीचड़ की होली में दोनों पक्ष के चेहरे बदरंग होने सुनिश्चित हैं, लेकिन समाधान की दृष्टि से हाथ में कुछ भी लगने वाला नहीं, बल्कि तमाशा देखने वालों के लिए दोनों पक्ष मनोरंजन का माध्यम अवश्य बन जाते हैं।

ऐसी स्थिति में आवश्यकता दूसरे के आरोपों, निंदा, अपमान, कटु वचन आदि के मर्म को समझने की है, इसमें निहित सार तत्त्व को ग्रहण करते हुए, यदि कुछ सत्य है तो उसको हृदयंगम करते हुए अपने किले को सशक्त एवं अभेद्य करने की है। ऐसे में व्यक्ति को संयम, स्वाध्याय, साधना एवं सेवा के मानदंडों पर कसते हुए, उपासना-साधना एवं आराधना की त्रिवेणी में स्नान करते हुए अपने अस्तित्व की जड़ों को और सुदृढ़ किया जा सकता है।

ऐसे में प्रतिपक्षी का अनावश्यक क्रोध, आक्रोश एवं दुर्भाव उसी तक सीमित रहते हैं और अपनी शांति, स्थिरता एवं धैर्य अपनी मुट्ठी में रहते हैं। यदि प्रतिपक्षी थोड़ा भी समझदार व संवेदनशील होगा तो अपने आवेश, आवेग एवं क्रोध के शांत होने पर अपनी गलती का एहसास अवश्य करेगा व अपने आचरण में वांछित सुधार करेगा और यदि उसके असुरक्षा, दुर्बलता, संशय, नकारात्मकता, अहं व स्वार्थ के भाव गहरे हैं, तो इसमें अधिक समय लग सकता है। ऐसे नासमझ, भ्रमित, नकारात्मक, भय-आशंका और अज्ञानता से ग्रसित व्यक्ति से उलझने में कोई लाभ नहीं। अपने स्तर को उसके स्तर तक गिराने में कोई समझदारी नहीं यह हर दृष्टि से घाटे का ही सौदा रहता है।

ऐसे में महर्षि पतंजलि की मानें तो ऐसे व्यक्ति के प्रति उपेक्षा व मौन का भाव ही उचित रहता है। ऐसा करने पर हम आरोप-प्रत्यारोप के कुचक्र से बच जाते हैं और अपने मन की शांति, स्थिरता एवं प्रसन्नता भी अपनी मुट्ठी में रहती हैं। इस तरह नकारात्मक मनःस्थिति से आक्रांत व्यक्ति को उसके हाल पर छोड़ना ही उचित रहता है। ईश्वरीय विधान पर आस्था हमें अपने श्रेष्ठ कर्मों पर केंद्रित होने की समझ व शक्ति देती है।

अतः अकारण विरोध एवं विद्वेष होने पर हम इनमें उलझने के बजाय अपने शुभ कर्मों, अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित रहें, अपने पुण्य एवं तप के कोश में वृद्धि करते रहें। समाज एवं लोकहित में जो भी कुछ बन पड़ रहा हो, उसमें संलग्न रहें। विराट लक्ष्य पर केंद्रित यह मनःस्थिति ही अकारण विद्वेष एवं विरोध से निपटने का राजमार्ग है।

जनवरी, 2022 अखण्ड ज्योति

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