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संत तुकाराम की ईश्वरभक्ति

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भारत की पुण्यभूमि पर निर्गुण-निराकार ब्रह्म समय- समय पर सगुण-साकार रूप में प्रकट होते रहे हैं। भारत की यह पुण्यधरा कभी भगवान राम तो कभी भगवान कृष्ण की अद्भुत व अलौकिक लीलाओं की साक्षी रही है। यह पुण्यधरा युगों-युगों से ऐसे संतों, ऋषियों-मुनियों, योगियों, तपस्वियों की कर्मभूमि व तपोभूमि भी रही है, जिन्होंने विभिन्न योग साधनों के द्वारा सगुण-निर्गुण ब्रह्म की उपासना के द्वारा ब्रह्म का साक्षात्कार किया। उन्होंने अपने अमृत ज्ञान से पूरी मानवता को अभिसिंचित किया, आनंदित किया व आह्लादित किया।

संतों की उसी पावन पुण्यपरंपरा में संत तुकाराम का नाम भी बड़े आदर से लिया जाता है। तुकाराम महाराष्ट्र के एक महान संत थे। उनका जन्म देहू नामक ग्राम में भगवद्भक्तों के एक पवित्र कुल में सन् 1608 में हुआ था। इनके माता पिता का नाम कनकाबाई और बोलोजी था। तुकाराम में बचपन से ही वैराग्य की भावना बलवती थी। माता-पिता तथा बड़े भाई की मृत्यु के बाद इनके दुःख की कोई सीमा न रही। वहीं आर्थिक तंगी भी चरम पर थी, पर अभावों में भी उनकी उदारता देखते ही बनती थी।

एक बार वे खेत से गन्ने लेकर आ रहे थे। उन्हें गन्ने ले जाते देखकर कुछ बच्चे गन्नों के लिए उनके पीछे पड़ गए। वे प्रसन्नतापूर्वक बच्चों को गन्ने देते गए। अंत में सिर्फ एक गन्ना बचा, जिसे लेकर वे घर आए। उनके हाथ में मात्र एक गन्ना देखकर भूखी पत्नी को बड़ा क्रोध आया। उसने क्रोध में उसी गन्ने को उनकी पीठ पर दे मारा। उस एक गन्ने के दो टुकड़े हो गए। इस पर क्रोध करने के बजाय वे हँस पड़े और बोले- “तुम बहुत साध्वी हो। तुमने बिना कहे ही इस गन्ने के दो टुकड़े कर दिए। लो एक तुम्हारा हुआ और एक मेरा।”

एक बार उनकी पत्नी जिजाई ने बाजार से कुछ खरीद लाने के लिए उन्हें कुछ रुपये दिए, परंतु ज्यों ही वे बाहर निकले कि रास्ते में उन्हें एक दुखियारा मिला। उसे एक देखते ही उन्हें दया आ गई और उन्होंने सभी रुपये उसे सौंपदिए। उसी बीच वहाँ भयंकर अकाल पड़ा। उस अकाल में उनकी पत्नी व पुत्र भी चल बसे। शायद तुकाराम के वैराग्य को और प्रबल करने के लिए ही प्रभु उनके समक्ष ये सारी विपदाएँ प्रस्तुत कर रहे थे और उन्हें पूरी तरह अपनी शरण में आने को प्रेरित कर रहे थे।

घोर आर्थिक विपदा के साथ-साथ अपने सगे-संबंधियों, स्त्री, पुत्र सबको खो देने के बाद भी तुकाराम भगवद्भक्ति से कभी विचलित नहीं हुए। फिर विपदा में ही तो भक्त की भक्ति की असली परीक्षा होती है। उन सभी विपदाओं को प्रभु की इच्छा मानकर, अपना प्रारब्ध मानकर वे उन्हें सहते हुए अविचलित रहे। हे प्रभु! तेरी जैसी इच्छा । हे प्रभु! तेरी इच्छा पूर्ण हो- ऐसा कहते हुए वे विपदाओं, कष्टों, झंझावातों से, ममता व आसक्ति के बंधनों से पार होते रहे। ऐसी स्थिति में भी ईश्वर के मार्ग पर चलते रहना, यही तो सच्चे भगवद्भक्त की पहचान है। वह सदैव अपनी इच्छा को नहीं, वरन प्रभु की इच्छा को ही सर्वोपरि मानता है। वह यह मानता है कि ईश्वर सर्वव्यापी है, न्यायकारी है। अस्तु ईश्वर जो भी करता है; उसमें ही भक्त का भला, भक्त का हित, भक्त का कल्याण निहित है।

सो संत तुकाराम अपने जीवन में आई विपदाओं के दावानल से वैराग्य-कंचन होकर ही निकले। अब वे योगक्षेम का सारा भार भगवान के भरोसे छोड़कर भगवद्भजन करने लगे। वे प्रायः या तो कीर्तन में या ध्यान में रहने लगे। उनकी सच्ची भक्ति के कारण प्रभु की प्रेरणा से चैतन्य नाम के एक सिद्ध संत ने तुकाराम को स्वप्न में दर्शन दिए। उन्होंने स्वप्न में ही तुकाराम को ‘रामकृष्ण हरि’ मंत्र का उपदेश दिया। प्रात: काल नित्य कर्म से निवृत्त होकर वे विट्ठल भगवान के : मंदिर में जाते, वहाँ वे उनकी पूजा-पाठ और सेवा किया करते ।

वहाँ से फिर वे इंद्रायणी नदी के पार कभी भागनाथ पर्वत तो कभी गोंडा या भाराडारा पर्वत पर चढ़कर वहीं एकांत में ‘ज्ञानेश्वरी’ या ‘एकनाथी भागवत’ का पारायण करते और फिर दिन भर नामस्मरण करते रहते। संध्या होने पर वे गाँव लौटते और हरिकीर्तन सुनते, जिसमें लगभग आधी रात बीत जाती। उनके ही पूर्वजों के द्वारा बनवाया गया विट्ठल भगवान का मंदिर बहुत जीर्ण-शीर्ण हो गया था। उन्होंने उस मंदिर की अपने हाथों से मरम्मत की। तुकाराम ने साधना के दौरान संत ज्ञानेश्वर और नामदेव जैसे पूर्वकालीन संतों के ग्रंथों का बहुत ही गहराई व श्रद्धा से अध्ययन किया था, स्वाध्याय किया था। कठिन साधनाओं के उपरांत अंततः तुकाराम की चित्तवृत्ति भगवन्नाम के स्मरण व ध्यान में लीन होने लगी। उनका चित्त निर्मल हो गया।

जब साधक का चित्त निर्मल हो जाता है तब उस पर भगवान का अनुग्रह अनुदान वरदान बरसना भी शुरू हो जाते हैं। भगवान भी उसे अपना यंत्र, उपकरण बना लेते हैं। उसे भगवत्कार्य सौंपने लगते हैं। तुकाराम ने भी अब भगवान के यंत्र, उपकरण बनने की पात्रता प्राप्त कर ली थी। भगवत्कृपा से कीर्तन करते समय उनके मुख से ‘अभंग ‘वाणी’ (ईश्वर की वाणी) प्रस्फुटित होने लगी। उनके मुख से काव्य रूप में प्रस्फुटित ईश्वरीय ज्ञान को सुनकर बड़े बड़े विद्वान व साधु-संत उनके चरणों में नतमस्तक होने लगे।

उनकी प्रसिद्धि देखकर कई विद्वान पंडित उनसे ईर्ष्या भी करने लगे। उन्हीं में से एक थे पंडित रामेश्वर भट्ट। तुकाराम जैसे इतर जाति के व्यक्ति के मुख से अभंग निकले और लोग उसे संत मानकर पूजें, यह बात उन्हें जरा भी पसंद न आई। उन्होंने देहू के हाकिम से तुकाराम जी को देहू छोड़कर कहीं चले जाने की आज्ञा दिलाई। इस पर तुकाराम पंडित रामेश्वर भट्ट के पास गए और उनसे बोले- “मेरे मुख से जो ये अभंग निकलते हैं, वो भगवान पांडुरंग की आज्ञा से ही निकलते हैं। आप ब्राह्मण हैं, आपकी आज्ञा है तो मैं अभंग बनाना (ईश्वर पर आधारित कविताएँ रचना) छोड़ दूँगा, पर जो अभंग बन चुके हैं और लिखे रखे हैं, उनका क्या करूँ?” भट्ट जी ने कहा- “उन्हें नदी में डुबो दो।”

पंडित जी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुकाराम ने ऐसा ही किया। सारी अभंगें इंद्रायणी की धारा में डुबो दी गईं, पर ऐसा करने से तुकाराम का हृदय बहुत व्यथित हुआ। भगवत्प्रेमोद्गार रूपी अभंगों को डुबोकर वे बहुत व्यथित हुए। उन्होंने अन्न जल का त्याग कर दिया। वे विट्ठल भगवान के मंदिर के सामने एक शिला पर बैठ गए, इस प्रण के साथ कि या तो अब भगवान मिलेंगे या इस जीवन का अंत होगा।

इस प्रकार कठोर प्रण के साथ भक्त तुकाराम श्री पांडुरंग (श्री विट्ठल भगवान) के साक्षात् दर्शन की लालसा लिए, एक शिला पर बैठ गए। वे बिना खाए-पिए तेरह दिन और तेरह रात वहीं पड़े रहे। अंततः तुकाराम की सच्ची भक्ति को देखकर भक्तवत्सल भगवान निर्गुण-निराकार ब्रह्म सगुण-साकार रूप में प्रकट हुए। तुकाराम के हृदय तो वे पूर्व से विराज ही रहे थे, अब वे बाल-वेश धारणकर – तुकाराम के समक्ष प्रकट हो गए।

तुकाराम भगवान के चरणों में गिर पड़े। भगवान ने उन्हें दोनों हाथों से उठाकर छाती से लगा लिया। तत्पश्चात भगवान ने कहा – ” पुत्र! मैंने तुम्हारे अभंगों की बहियों को नदी की धारा में सुरक्षित रखा था। आज उन्हें तुम्हारे भक्तों को दे आया हूँ।” यह कहकर भगवान फिर अंतर्धान हो गए। प्रभु के साक्षात्कार के बाद तुकाराम का शरीर पंद्रह वर्षों तक इस लोक पर रहा। वे जब तक रहे, उनके मुख से सतत भगवत् अमृतधारा बरसती रही, बहती रही। उस धारा में नहा- नहाकर, उनके उपदेशों को सुन-सुनकर लोग कृतार्थ होने लगे।

वे प्रायः लोगों को सांसारिक माया मोह से मुक्त होने का उपदेश देते और कहते- “बार-बार तुम क्यों मरना चाहते हो? क्या इससे छूटकर भागने का कोई उपाय तुम्हारे पास नहीं है। अरे भाई! यह शरीर बड़ा अद्भुत है। यह ईश्वर को पाने का साधन है। इस साधन से भला क्या नहीं प्राप्त हो सकेगा ? भक्तिपूर्ण भजन से, भगवद्ज्ञान से, भगवान की शरण से हमें साक्षात् भगवत्कृपा प्राप्त हो सकती है। हमें भगवान प्राप्त हो सकते हैं। वे प्रभु हमारे हृदय में आ विराज सकते हैं, फिर उसी से हमारा जीवन धन्य होगा। भगवान का नाम सुमिरन, भजन, ध्यान करने के लिए हमें कोई कौड़ी भी खरच नहीं करनी पड़ती। भगवन्नाम के स्मरण से सांसारिक प्रपंच, सांसारिक बंधनों से, सांसारिक माया-मोह से हमें मुक्ति मिल सकती है। बस, महत्त्वपूर्ण यही है कि हम सच्चे मन से भगवन्नाम का स्मरण, भजन, ध्यान किया करें। एक दिन भगवान की कृपा आप पर भी होगी, वैसे ही जैसे मुझ दीन पर भी भगवान ने कृपा की। “

संत तुकाराम द्वारा दिखाया गया भगवत्प्राप्ति व माया से मुक्ति का मार्ग हम सबके लिए भी सुलभ है, हम भी इस मार्ग पर चलकर भगवत्कृपा प्राप्त कर सकते हैं। हम स्वयं को माया मोह व प्रपंचों से मुक्त कर सकते हैं।

अखंड ज्योति

मई, 2021

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