परमात्मा की आज्ञा मनुष्य के लिए क्या है? इसी एक प्रश्न का विवेचन करने के लिए हमने अब तक निरंतर विचार किया है, एक से एक ऊंचे महापुरुषों से परामर्श किया है। इस प्रश्न के उत्तर में हमें सर्वसम्मति से एक ही बात बताई गई है, स्वयं अपनी उन्नति करो और उस उन्नति को दूसरों के लिए खर्च करो। स्वयं उन्नति करो पर उस उन्नति से अहंकार को तृप्त न करो वरन् दूसरों को उन्नत बनाने में लगा दो। मनुष्य की सेवा ईश्वर की पूजा है। ईश्वर चापलूस, खुशामदी या रिश्वतखोर हाकिम नवाब या अमीर उमराव की तरह नहीं है जिसे अपनी प्रशंसा, स्तुति, चापलूसी, खुशामद, भेंट, मिठाई, टहल चाकरी की जरूरत हो। वह समर्थ है। हम उसे भोजन न करावे तो भी वह भूखा न मरेगा, हम उसके सामने दीपक न जलाएं तो भी उनकी आंखें सब कुछ देखने में समर्थ है। हम उसकी महिमा बारंबार न गावें तो भी उसकी महिमा सर्वविदित है। वह इन बातों की जरा भी परवाह नहीं करता और न इन कर्मकांड को देखकर किसी से खुश या नाखुश होता है। परमात्मा को वे प्यारे हैं, जो उनकी आज्ञा मानते हैं। दूसरों की सेवा करो, अपने घरवालों से, कुटुंबियों से, संबंधियों से, मित्रों से, परिचितों से, अपरिचितों से सेवामय, प्रेम पूर्ण, उदारता और त्याग से भरा हुआ बर्ताव करो। अपने लिए कम चाहो और दूसरों को अधिक दो। अपने अंदर शक्ति उत्पन्न करो किन्तु उस शक्ति को भोग विलास में खर्च न करो वरन् गिरे हुओं को उठाने में लगा दो।
– अखंड ज्योति दिसंबर 1944 पृष्ठ 4