शहरों, कस्बों और गाँवों में रावण के पुतलों को जलाने की तैयारियाँ देखकर दशहरा के आगमन का अनुमान होने लगा है। 15 अक्टूबर 2002 को विजयादशमी के मनाए जाने की खबर सभी को लग गयी है। इस दिन बाँसों की खपच्चियों से बने रावण के पुतले बड़ी धूम-धाम से जलेंगे। आतिशबाजियों की आँखों को चौंधिया देने वाली रोशनी होगी, कान फोड़ने वाला भारी शोर होगा और दशहरे की रस्में पूरी हो जाएँगी।
दशहरे की सच्चाई क्या केवल इन रस्मों के पूरी होने तक है? अथवा फिर इस महापर्व के साथ कुछ विजय संकल्प भी जुड़े हैं? ये सवाल वैसे ही जलते-सुलगते रह जाएंगे। शायद ही किसी के मन इनका जवाब पाने के लिए विकल-बेचैन हो। अन्यथा ज्यादातर जनों की जिन्दगी दशहरा की रस्में जैसे-तैसे पूरी करके फिर से अपने उसी पुराने ढर्रे पर ढुलकने, लुढ़कने और फिसलने लगेगी।यही हमारे सामाजिक जीवन की विडम्बनाग्रस्त सच्चाई है।
सभी अपनी आपाधापी में परेशान हैं। सब को अपने-अपने स्वार्थ और अपनी अहंता की कारा घेरे है। ऐसे में साँस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय महत्त्व के बिन्दुओं पर सोचने का जोखिम कौन उठाए? यह हमारा राष्ट्रीय और साँस्कृतिक प्रमाद नहीं तो और क्या है कि हममें से प्रायः सभी अपने पूर्वज ऋषियों-मनीषियों द्वारा बतायी गयी पर्वो की प्रेरणाओं को पूरी तरह भुला बैठे हैं। पर्यों में समायी साँस्कृतिक संवेदना हमारी अपनी जड़ता के कुटिल व्यूह में फँसकर मुरझा गयी है। सत्य को जानने, समझने और अपनाने का साहस और संकल्प शायद हम सभी में चुकता जा रहा है।जबकि विजयादशमी इसी साहस और संकल्प का महापर्व है। जीवन की इन दो महत्त्वपूर्ण शक्तियों को जाग्रत् करने और उन्हें सही दिशा में नियोजित करने की महान् प्रेरणाएँ इसमें समायी हैं।
विजयादशमी के साथ जितनी भी पुराण कथाएँ अथवा लोक परम्पराएँ जुड़ी हुई हैं, सबका सार यही है। इस पर्व से जुड़ी हुई सबसे पुरातन कथा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री राम की है। यह राम कथा महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के साथ विभिन्न पुराणों एवं क्षेत्रीय, प्रान्तीय भाषाओं के विभिन्न महाकाव्यों में अनेकों तरह से कही गयी है। अलग-अलग महाकवियों ने अपने-अपने ढंग से इसके माध्यम से प्रभु श्री राम के विजय संकल्प को शब्दांकित किया है।
कहते हैं कि वह तिथि भी विजयादशमी थी जब लोकनायक श्री राम ने महर्षियों के आश्रम में ‘निसिचर हीन करौं महि’ का वज्र संकल्प लिया था। और इसके कुछ वर्षों बाद घटनाक्रम में आए अनेकों मोड़ों के बाद वह तिथि भी विजयादशमी ही थी, जब समर्थ प्रभु ने अपने संकल्प को सार्थकता देते हुए रावण का वध किया था।
कुछ लोक कथाओं एवं लोक काव्यों में दिए गए विवरण को यदि हम प्रेरणादायी माने तो भगवती महिषमर्दिनी ने इसी पुण्यतिथि को महिषासुर के आसुरी दर्प का दलन किया था। एक अन्य लोक कवि के अनुसार जगदम्बा ने अपनी विभिन्न शक्तियों के साथ शारदीय नवरात्रि के नौ दिनों तक शुम्भ-निशुम्भ की आसुरी सेना के साथ युद्ध किया। और अन्त में नवें-दसवें दिन क्रमशः निशुम्भ और शुम्भ का वध करके देवशक्तियों का त्राण किया। विजयादशमी माता आदिशक्ति की उसी विजय गाथा की प्रतीक है ।
जिन्हें केवल ग्रन्थों की छानबीन एवं ऐतिहासिक आँकड़ों के आँकलन का खेल पसन्द है। उन्हें हो सकता है कि लोक काव्यों के ये प्रसंग इतिहास-सत्य न लगें। पर जिन्हें जीवन के भाव-सत्य से प्यार है, वे इन प्रसंगों से प्रेरणा लेकर अपनी भक्ति एवं शक्ति की अभिवृद्धि की बात जरूर सोचेंगे।
शक्ति के उपासक क्षत्रियों में पुरातन काल में इस पर्व को बड़ी ही धूम-धाम से मनाने का प्रचलन था। देश का मध्ययुगीन इतिहास भी इसके छुट-पुट प्रमाण देता है। महान् प्रतापी राणा प्रताप के साहस, संकल्प, शौर्य, तेज एवं तप के पीछे विजयादशमी के महापर्व की ही प्रेरणाएँ थी। वह घास की रोटी खाकर, राजा होते हुए फकीरों की सी जिन्दगी जीकर अपने अकेले दम पर साम्राज्यवाद की बर्बरता से जीवन पर्यन्त लोहा लेते रहे। वे न कभी डरे, न कभी झुके और न ही कभी अपने संकल्प से डिगे। महावीर शिवाजी के समर्थ सद्गुरु स्वामी रामदास ने भी अपने प्रिय शिष्य को इसी महापर्व से प्रेरित होने का पाठ पढ़ाया था। विजयादशमी को अपराजेय वीर छत्रपति शिवाजी हमेशा ही साहस और संकल्प के महापर्व के रूप में मनाते थे।
धुंधले और धूमिल होते जा रहे इस प्रेरणादायी महापर्व की परम्परा के कुछ संस्मरण महान् क्रान्तिकारी वीर रामप्रसाद बिस्मिल एवं चन्द्रशेखर आजाद से भी जुड़े हैं। ये क्रान्तिवीर इस पर्व को बड़े ही उत्साहपूर्वक मनाया करते थे। चन्द्रशेखर आजाद का इस सम्बन्ध में कहना था, कि हमारे सभी पर्व-त्यौहारों में जितनी ओजस्विता एवं प्रखरता दशहरा में है, उतनी किसी अन्य पर्व में दिखाई नहीं देती। वह कहा करते थे कि यह तो देशभक्त दीवानों का पर्व है। पं. रामप्रसाद बिस्मिल महान् क्रान्तिकारी होने के साथ अच्छे सुकवि भी थे। उन्होंने इस पर्व की प्रेरणा को दर्शाते हुए कुछ काव्य पंक्तियाँ भी लिखी थीं। जो अब काल प्रवाह में लुप्तप्राय है। परन्तु उनके समसामयिक लोगों ने उनके जो संस्मरण लिपिबद्ध किए हैं- उनमें इसके भावों का समावेश है। इसके अनुसार बिस्मिल जी का कहना था कि विजयादशमी साहस और संकल्प का महापर्व है। परन्तु ध्यान रहे साहस का प्रयोग आतंकवादी बर्बरता के प्रति हो, अपनों के प्रति नहीं।
इसी तरह संकल्प देश के लिए मर मिटने का होना चाहिए, अहंता के उन्माद के लिए नहीं।क्रान्तिवीर बिस्मिल की ये बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी की पहले कभी थी। हमारा साहस और संकल्प आज दिशा भटक गए हैं। हम साहसी तो हैं, पर नवनिर्माण के लिए नहीं, बल्कि तोड़-फोड़ के लिए इसी तरह हम अपने संकल्पों की शक्ति निज की अहंता के उन्माद को फैलाने और साम्प्रदायिक दुर्भाव को बढ़ाने में लगाते हैं। देश की समरसता एवं सौहार्द्र में विष घोलने का काम करते हैं। जबकि साहस और संकल्प की ऊर्जा आतंकवादी बर्बरता के गढ़ का विध्वंस करने में नियोजित करना चाहिए। हमारा समर्थ साहस और वज्र संकल्प उन्हें खण्ड-खण्ड करने में अपनी प्रतिबद्धता दिखाए जो देश की अखण्डता को नष्ट करने में तुले हैं।
इस बार की विजयादशमी हम सबके लिए विजय का संकल्प बनकर आयी है। अच्छा हो कि हम सब मिलजुलकर इसको इसी रूप में मनाए। हममें से हर एक साहस भरा संकल्प ले अपनी निज की और सामूहिक रूप से समाज की दुष्प्रवृत्तियों को मिटाने का, अनीति और कुरीति के विरुद्ध संघर्ष करने का, आतंक और अलगाव के विरुद्ध जूझने का। हमारे इस संकल्प में ही इस महापर्व की सच्ची सार्थकता है। इस साहसी संकल्प के अनुरूप व्रतशील जीवन जीकर ही हम यह प्रमाणित कर सकेंगे कि हम विजयादशमी को महापर्व का स्वरूप प्रदान करने वाले भगवान् श्री राम के सच्चे भक्त हैं। जगन्माता महिषमर्दिनी की सुयोग्य सन्तानें हैं। इस विजय पर्व पर यदि हम दुष्प्रवृत्तियों का रावण जला सके तो ही समझना चाहिए कि हमने सही ढंग से दशहरा मनाया।
अखंड ज्योति ,अक्टूबर 2002
-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य