पिछले पृष्ठों पर बताया जा चुका है कि परमार्थ और स्वार्थ, पुण्य और पाप, धर्म, अधर्म यह किसी कार्य विशेष पर निर्भर नहीं, वरन् दृष्टिकोण पर अवलम्बित है। दुनिया का स्थूल बुद्धि-कार्यों का रूप देखकर उसकी अच्छाई-बुराई का निर्णय करती हैं परन्तु परमात्मा के दरबार में काम के बाहरी रूप का कुछ महत्व नहीं वहां तो भावना ही प्रधान है। भावना का आरोपण मनुष्य की आन्तरिक पवित्रता से सम्बन्धित है। बनावट, धोखेबाज और प्रवंचना बाहर तो चल सकती है पर अपनी आत्मा के सामने नहीं चल सकती। अन्तःकरण स्वयमेव जान लेता है कि अमुक कार्य किस दृष्टिकोण से किया जा रहा है, वहां कोई छिपाव या दुराव काम नहीं दे सकता। वरन् जो बात सत्य है वह ही मनोभूमि में स्वच्छ पट्टिका पर स्पष्ट रूप से अंकित होती है। जिस कार्य प्रणाली के द्वारा अन्तःकरण में आत्म-त्याग, सेवा, प्रेम एवं सद्भाव का संचार होता हो वह कार्य सच्चा और पक्का परमार्थ है। वह कार्य निस्संदेह स्वर्ग और मुक्ति की ओर ले जाने वाला होगा, चाहे उस कार्य का बाह्य रूप कैसा ही साधारण या असाधारण, सीधा या विचित्र, छोटा या बड़ा क्यों न हो।
गृहस्थ संचालन के सम्बन्ध में भी दो दृष्टिकोण हैं। एक तो ममता, मालिकी, अहंकार और स्वार्थ का, दूसरा आत्म-त्याग, सेवा, प्रेम और परमार्थ का। पहला दृष्टिकोण बन्धन, पतन, पाप और नरक की ओर ले जाने वाला है। दूसरा दृष्टिकोण मुक्ति, उत्थान, पुण्य और स्वर्ग को प्रदान करता है। शास्त्रकारों ने, सन्त पुरुषों ने, जिस गृहस्थ की निन्दा की है, बन्धन बताया है और छोड़ देने का आदेश दिया है वह आदेश स्वर्ग मय दृष्टिकोण के सम्बन्ध में है। परमार्थ मय दृष्टिकोण का गृहस्थ तो अत्यन्त उच्चकोटि का आध्यात्मिक साधना है। उसे तो प्रायः सभी ऋषि, मुनि, महात्मा, योगी, यती, तथा देवताओं ने अपनाया है और उसकी सहायता से आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है। इस मार्ग को अपनाने से उनमें से न तो किसी को बन्धन में पड़ना पड़ा और न नरक में जाना पड़ा। यदि गृहस्थ बन्धन कारक, नरक मय होता तो उससे पैदा होने वाले बालक पुण्यमय कैसे होते। बड़े बड़े योगी यती इस मार्ग को क्यों अपनाते? निश्चय ही गृहस्थ धर्म एक पवित्र, आत्मोन्नति कारक, जीवन को विकसित करने वाला, धार्मिक अनुष्ठान है, एक सत् समन्वित आध्यात्मिक साधना है। गृहस्थ का पालन करने वाले व्यक्ति को ऐसी हीन भावना मन में लाने की कुछ भी आवश्यकता नहीं हैं कि वह अपेक्षाकृत नीचे स्तर पर है या आत्मिक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है या कमजोर है। अविवाहित जीवन और विवाहित जीवन में तत्वतः कोई अन्तर नहीं है। यह अपनी-अपनी सुविधा, रुचि और कार्य प्रणाली की बात है, जिसे जिसमें सुविधा पड़ती हो वह वैसा करे। जिसका कार्यक्रम देशाटन का हो उन्हें स्त्री बच्चों का झंझट पालने की आवश्यकता नहीं परन्तु जिन्हें एक स्थान पर रहना हो उसके लिये विवाहित होने में ही सुविधा है। इसमें पिछड़े हुए और बढ़े हुए की कुछ चीज नहीं, दोनों का दर्जा बिल्कुल बराबर है। मानसिक स्थिति और कार्य प्रणाली के आधार पर तुच्छता और महानता होती है। जहां भी ऊंचा दृष्टिकोण होगा वहां ही महानता होगी।
जीवन का परम लक्ष आत्मा को परमात्मा में मिला लेना है, व्यक्तिगत स्वार्थ को प्रधानता न देते हुए लोकहित की भावना से काम करना, यही आध्यात्मिक साधना है। इस साधना को क्रियात्मक जीवन में लाने के लिए भिन्न भिन्न तरीके हो सकते हैं। इन तरीकों में से एक तरीका गृहस्थ योग भी है। बालक, घर में से ही आरम्भिक क्रियाएं सीखता है। जीवन के लिये जितने काम चलाऊ ज्ञान की आवश्यकता है उसका आधे से अधिक भाग घर में ही प्राप्त होता है। हमारी सात्विक साधना भी घर से ही प्रारंभ होनी चाहिये। जीवन को उच्च, उन्नत, संस्कृत, संयमित, सात्विक, सेवामय एवं परमार्थ पूर्ण बनाने की सबसे अच्छी प्रयोगशाला अपना घर ही हो सकता है। स्वाभाविक प्रेम, उत्तरदायित्व, कर्तव्य पालन, परस्पर अवलम्बन, आश्रय, स्थान, स्थिर क्षेत्र, लोक लाज आदि अनेक कारणों से यह क्षेत्र ऐसा सुविधाजनक हो जाता है कि आत्मत्याग और सेवामय दृष्टिकोण के साथ काम करना इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक सरल होता है।
गृहस्थ योग के साधक के मन में यह विचारधारा चलती रहनी चाहिये कि— ‘‘यह परिवार मेरा स्थान क्षेत्र है। इस वाटिका को सब प्रकार सुन्दर, सुरभित और पल्लवित बनाने के लिये सच्चे हृदय से सदा शक्ति भर प्रयत्न करते रहना मेरा कर्मकाण्ड है। भगवान ने जिस वाटिका को सींचने का भार मुझे दिया है, उसे ठीक तरह सींचते रहना मेरी ईश्वर परायणता है। घर का कोई भी सदस्य ऐसा हीन दर्जे का नहीं है जिसे मैं तुच्छ समझूं, उपेक्षा करूं या सेवा से जी चुराऊं, मैं मालिक, नेता, मुखिया या कमाऊं होने का अहंकार नहीं करता यह मेरा आत्म निग्रह है। हर एक सदस्य के विकास में अपनी सेवाएं लगाते रहना मेरा परमार्थ है। बदले की जरा सी भी इच्छा न रखकर विशुद्ध कर्तव्य भाव से सेवा में तत्पर रहना मेरा आत्म त्याग है। अपनी सुख-सुविधाओं की परवाह न करते हुए, औरों को सुख सुविधा बढ़ाने का प्रयत्न करना मेरा तप है। घर के हर सदस्य को सद्गुणी, सत् स्वभाव का, सदाचारी एवं धर्म परायण बना कर विश्व की सुख शान्ति में वृद्धि करना मेरा यज्ञ है। सबके हृदयों पर जिसका मौन उपदेश हो, अनुकरण से सुसंस्कार बनें, अपना आचरण ऐसा पवित्र एवं आदर्शमय रखना मेरा व्रत है। धर्म उपार्जित अन्न से जीवन निर्वाह करना और कराना यह मेरा संयम है। प्रेम उदारता सहानुभूति की भावना से ओत-प्रोत रहना और रखना, प्रसन्नता, आनन्द और एकता की वृद्धि करना मेरी आराधना है। मैं अपने गृह-मन्दिर में भगवान की चलती फिरती प्रतिमाओं के प्रति अगाध भक्ति भावना रखता हूं। सद्गुण, सत् स्वभाव और सत् आचरण के दिव्य श्रृंगार से इन प्रतिमाओं को सुसज्जित करने का प्रयत्न ही मेरी पूजा है। मेरा साधन सच्चा है, साधना के प्रति मेरी भावना सच्ची है, अपनी आत्मा के सम्मुख मैं सच्चा हूं। सफलता असफलता की जरा भी परवाह न करके सच्चे निष्काम कर्मयोगी की भांति मैं अपने प्रयत्न की सचाई में संतोष अनुभव करता हूं। मैं सत्य हूं, मेरी साधना सत्य है। मैंने सत्य का आश्रय ग्रहण किया है उसे सत्यता पूर्वक निबाहने का प्रयत्न करूंगा।’’
उपरोक्त मंत्र हर गृहस्थ योगी को भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिये। दिन में कई बार इस मन्त्र को दुहराना चाहिए। एक छोटे कार्ड पर सुन्दर अक्षरों में लिखकर इस मन्त्र को अपने पास रख लेना चाहिये और जब भी अवकाश मिले एक एक शब्द का मनन करते हुए इस मन्त्र को पढ़ना चाहिये। हो सके तो अक्षरों में लिख कर सुन्दर चित्र की भांति इसे अपने कमरे में लगा लेना चाहिए। प्रातः निद्रा त्यागने पर पलंग पर पड़े-पड़े ही कई बार इस मन्त्र को मन ही मन दुहराना चाहिए और निश्चय करना चाहिए कि आज दिन भर इन भावनाओं को अधिक से अधिक मात्रा में सतर्कता पूर्वक ध्यान रखूंगा। इस निश्चय के साथ शय्या त्याग करने का अवसर दिन भर रहता है प्रातःकाल जो आदेश अन्तर्मन को दिये हैं अधिक गहरे उतर जाते हैं, वे जल्दी विस्मरण नहीं होते और यथा अवसर वे ठीक समय पर स्मरण हो आते हैं। इसलिए प्रातःकाल इस मन्त्र का नियमित रूप से अवश्य ही दुहराना चाहिए—
‘‘मैं गृहस्थ योगी हूं। मेरा जीवन साधनामय है। दूसरे कैसे हैं क्या करते हैं, क्या सोचते हैं, क्या कहते हैं, इसकी मैं तनिक भी परवाह नहीं करता। अपने आप में सन्तुष्ट रहता हूं, मेरी कर्तव्य पालन की सच्ची साधना इतनी महान है, इतनी शांतिदायिनी, इतनी तृप्तिकारक है कि उसमें मेरी आत्मा आनन्द में सराबोर हो जाती है। मैं अपनी आनन्दमयी साधना को निरन्तर जारी रखूंगा गृह क्षेत्र में परमार्थ भावनाओं के साथ ही काम करूंगा।’’ यह संकल्प दृढ़तापूर्वक मन में जमा रहना चाहिए। जब भी मन विचलित होने लगे, जब भी पैर पीछे डिगने की संभावना प्रतीत हो तभी इस संकल्प को मनोयोग पूर्वक दृढ़ करना चाहिए।
रात्रि को सोने से पूर्व दिन भर के कार्यों पर विचार करना चाहिए। (1) आज परिवार से सम्बन्ध रखने वाले क्या क्या कार्य किये? (2) उसमें क्या भूल हुई? (3) स्वार्थ से प्रेरित होकर क्या अनुचित कार्य किया? (4) भूल के कारण क्या अनुचित कार्य हुआ (5) क्या क्या कार्य अच्छे, उचित और गृहस्थ योग की मान्यता के अनुरूप हुए? इन पांच प्रश्नों के अनुसार दिन भर के पारिवारिक कार्यों का विभाजन करना चाहिए और आगे से त्रुटियों के सुधार का उपाय सोचना चाहिए। (1) भूल की तलाश करना (2) उसे स्वीकार करना, (3) गलती के लिए लज्जित होना और (4) उसे सुधारने का सच्चे मन से प्रयत्न करना यह चार बातें जिसे पसन्द हैं, जो इस मार्ग पर चलता है, उसकी गलतियां दिन दिन कम होती जाती हैं और वह शीघ्र ही दोषों से छुटकारा पा लेता है।
गृहस्थ योग की साधना के मार्ग पर चलते हुए साधक के मार्ग में नित नई कठिनाइयां आती रहती हैं। कभी अपनी भूल से, कभी दूसरों की भूल से, ऐसी घटनाएं घटित हो जाती हैं जिनका नियत सिद्धान्त से मेल नहीं खाता। इच्छा रहती है कि अपना हर एक आचरण ठीक रहे, हर प्रक्रिया सिद्धान्तानुकूल हो, परन्तु अक्सर भूलें होती रहती हैं, साधक कुछ दिन तक सोचता है कि दस बीस दिन में या महीने में यह दूर हो जायेगी और मेरी सम्पूर्ण क्रियायें सिद्धान्ताकूल होने लगेंगी, पर जब काफी समय बीत जाता है और तब भी भूलें समाप्त नहीं होती तो चिन्ता, निराशा और पराजय की भावनाएं मन में घूमने लगती हैं। साधक सोचता है, इतने दिन से प्रयत्न कर रहा हूं, पर स्वभाव पर विजय ही नहीं मिलती, नित्य गलतियां होती है, ऐसी दशा में साधना चल नहीं सकती। कभी सोचता है हमारे घर वाले उजड्ड, गंवार, मूर्ख और कृतघ्न हैं यह लोग मुझे परेशान और उत्तेजित करते हैं और मेरे जीवन को साधना की नियत दिशा में चलने देते तो साधन व्यर्थ है, इस प्रकार के निराशाजनक विचारों से प्रेरित होकर वह अपने व्रत को छोड़ देता है।
उपरोक्त कठिनाई से हर साधक को आगाह हो जाना चाहिए। मनुष्य स्वभाव में त्रुटियां और कमजोरियां रहना निश्चित है। जिस दिन मनुष्य पूर्ण रूपेण त्रुटियों से परे हो जायेगा उसी दिन वह परम पद को प्राप्त कर लेगा, जीवन मुक्त हो जायेगा। जब तक उस मंजिल तक नहीं पहुंच जाता, जब तक मनुष्य योनि में है, देव योनि से पीछे है, तब तक यही मानना पड़ेगा कि मनुष्य त्रुटिपूर्ण हैं। जहां कई ऐसे व्यक्तियों का सम्मिलन है जिसमें कोई तो आध्यात्मिक भूमिका में बहुत आगे, कोई बहुत पीछे है ऐसे क्षेत्र में नित नई त्रुटियों का कठिनाइयों का सामने आना स्वाभाविक है। इन में से कुछ अपनी गलती के कारण उत्पन्न हुई होंगी कुछ अन्यों की गलती से। यह क्रम धीरे दूर होता जाता है पर यह कठिन है कि अपना परिवार पूर्ण रूपेण देव परिवार हो जाय, इसके लिए बहुत कठिनाई से डरने घबराने या विचलित होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। समाज का अर्थ ही— ‘‘त्रुटियों के सुधार का अभ्यास’’ है। अभ्यास को निरन्तर जारी रखना चाहिए। योगीजन नित्य प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा-ध्यान आदि की साधना करते हैं, क्योंकि उनको मनोभूमि अभी दोषपूर्ण है, जिस दिन उनके दोष सर्वथा समाप्त हो जायेंगे उसी दिन, उसी क्षण वे ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त कर लेंगे। दोषों का सर्वथा अभाव, यह अन्तिम सीढ़ी का सिद्ध अवस्था का लक्षण है। वहां तक पहुंच जाने पर तो कुछ करना ही बाकी नहीं रह जाता। साधकों को यह आशा न करनी चाहिये कि थोड़े ही समय में इच्छित भावनाएं पूर्ण रूप से क्रिया में आ जायेंगी। विचार क्षण भर में बन जाता है पर उसे संस्कार का रूप धारण करने में बहुत समय लगता है हथेली पर सरसों नहीं जमती। पत्थर पर निशान करने के लिए रस्सी की रगड़ बहुत समय तक जारी रहनी चाहिए। स्मरण रखिए से सर्वथा मुक्ति—लक्ष है, ध्येय है, सिद्ध अवस्था है। साधक का आरंभिक लक्षण यह नहीं है। आम का पौधा उगते ही यदि मीठे आम तोड़ने के लिए उसके पत्तों को टटोलेंगे तो मनोकामना पूर्ण न होगी।
गृहस्थ योग की अपनी साधना आरम्भ करते हुए आप इस बात के लिए कमर कस कर तैयार हो जाइए कि भूलों त्रुटियों कठिनाइयों और असफलताओं का आपको नित्य सामना करना पड़ेगा, नित्य उनसे लड़ना पड़ेगा, नित्य उनका संशोधन और परिमार्जन करना होगा, और अन्त में एक ना एक दिन सारी कठिनाइयों को परास्त कर देना होगा। जैसे भूख, निद्रा, मल त्याग आदि नित्य कर्मों में रोज करते हैं तो भी दूसरे दिन फिर उनकी जरूरत पड़ती है, इस रोज रोज के झमेले से कोई निराशा या अनुत्साहित नहीं होता वरन् धैर्य पूर्वक नित्य ही उसकी व्यवस्था की जाती है। इसी प्रकार गृहस्थ योग की साधना में अपनी या दूसरों की कमजोरी से जो भूलें हों उनसे डरना या निराश न होना चाहिए वरन् अधिक दृढ़ता एवं उत्साह से परिमार्जन का धैर्य पूर्वक प्रयत्न करते रहना चाहिए।
पूर्ण रूप से सुधार हुआ है या नहीं यह देखने की उपेक्षा यह देखना चाहिए कि पहले की अपेक्षा सात्विकता में कुछ वृद्धि हुई है या नहीं? यदि थोड़ी बहुत भी बढ़ोतरी हुई हो तो यह आशा, उत्साह, प्रसन्नता और सफलता की बात है। बूंद बूंद से घड़ा भर जाता है, कन कन जमा होने से मन जमा हो जाता है, राई राई इकट्ठा करने से पर्वत बन जाता है, यदि प्रति दिन थोड़ी थोड़ी सफलता भी मिले तो हमारे शेष जीवन के असंख्य दिनों में वह सफलता बड़ी भारी मात्रा में जमा हो सकती है। यह सम्पत्ति किसी प्रकार नष्ट होने वाली नहीं है। यह जमा होने का क्रम अगले जन्म में भी जारी रहेगा और लक्ष तक एक न एक दिन पहुंच ही जाया जायेगा, धीरे धीरे सफलता मिले तो अधिक उत्साह से काम करना चाहिए। निराश होकर छोड़ बैठने की कोई आवश्यकता नहीं है।
आप सब आत्म निरीक्षण द्वारा अपनी भूलों को देखें तो देखकर निराश न हों वरन् इस भावना को मनःक्षेत्र में स्थान दें— ‘‘वीर योद्धा की तरह मैं जीवन युद्ध में रत हूं। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते समय के जो बुरे संस्कार अभी हम लोगों में लगे हुए शेष रह गये हैं, वे बार बार मार्ग में विघ्न उपस्थित करते हैं, कभी मैं गलती कर बैठता हूं कभी दूसरे गलती कर देते हैं, आये दिन ऐसे विघ्न सामने आते रहते हैं, परन्तु मैं उससे जरा भी विचलित नहीं होता, मैं नित्य इन कठिनाइयों से लड़ूंगा। ठोकर या चोट खाकर भी चुप न बैठूंगा। गिर पड़ने पर फिर उठूंगा और धूलि झाड़कर फिर युद्ध करूंगा। लड़ने वाला ही गिरता और घायल होता है, कुसंस्कार यदि मुझे गिरा देते हैं तो भी मुझे उनके विरुद्ध युद्ध जारी रखना चाहिए। मैं सत्य मार्ग का पथिक हूं सच्चिदानन्द आत्मा हूं, अपने और दूसरे के कुसंस्कारों से निरन्तर युद्ध जारी रखना और उन्हें परास्त कर देने तक दम न लेना ही मेरा कर्तव्य है। मैं अपने संकल्प, व्रत, साधन और उद्देश्य के प्रति सच्चा हूं। अपनी सच्चाई की रक्षा करूंगा और इन कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करके रहूंगा। भूलों को नित्य परखने, पकड़ने और उन्हें हटाने का कार्य मैं सदा एक रस उत्साह के साथ जारी रखूंगा।’’
उपरोक्त मन्त्र की सफलता के निरीक्षण के साथ मनन करना चाहिए। इससे निराशा नहीं आने पाती। गृहस्थ योग के मूलभूत सिद्धान्तों का बीज मन्त्र, दृढ़ता का संकल्प और त्रुटियों में धर्म युद्ध जारी रखने की प्रतिक्षा यह तीनों ही महामंत्र साधक की मनोभूमि में खूब गूंजने चाहिये। अधिक से अधिक समय इन विचारधाराओं में ओत-प्रोत रहना चाहिये।
गृहस्थ एक योग साधना
-पंडित श्रीराम शर्मा