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कहानी – अमृत पुत्र

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मृत्यु-हमने आपने मृत्यु नहीं देखी। हम लोगों ने मृतकों के इक्के-दुक्के शव देखे हो सकते हैं। उनको श्मशान पहुँचाने में सम्मिलित रहे हों, यह भी संभव है; किन्तु मृत्यु को ताण्डव करते देखा था उसने और उस महाताण्डव ने उसे लगभग पागल बना दिया था।

वह एक युवक ही था तब। युवक तो अब भी है, किन्तु उस पर उसके तन से अधिक मन पर जो बीती है, उसके कारण उसके केश श्वेत हो गये हैं। अब वह एक प्रौढ़ व्यक्ति दिखलाई पड़ता है। यूरोप के द्वितीय महासमर के प्रारम्भ से पूर्व वह विश्वविद्यालय में विज्ञान का छात्र था। युद्ध प्रारम्भ हुआ और देश के कर्णधारों ने अनिवार्य सैनिक भर्ती का आदेश दिया। पुस्तकों से विदा लेकर उसे कन्धे पर राइफल उठानी पड़ी। शीघ्र ही एक जहाज उसके जैसे ही अल्हड़ युवकों को लेकर इंग्लैण्ड के बन्दरगाह से चला और उन सबको यूरोप की मुख्य भूमि पर उतार गया।

उत्तेजना प्राप्त करने का एक सहारा था-राष्ट्रीय गान। दिन-रात दौड़-धूप राइफल मशीनगन की तड़तड़ाहट, बारूद की दुर्गन्ध और ऊपर आकाश में उड़ने वाले वायुयानों की घरघराहट। इन्हीं सबमें जैसे-तैसे कुछ पेट में भी डालते रहना और रात्रि में कभी खाई में, कभी कैम्प में कुछ समय नेत्र बन्द कर लेना। सैनिक के इस युद्ध कालीन जीवन को भी यदि जीवन मानना हो किन्तु वे सब इसके अभ्यस्त हो चले थे। उछलते-कूदते हथियार साफ करते, बन्दूकें भरते या मार्च करते भी खुलकर हँसते, परस्पर हँसी-मजाक करते रहते। समय मिलने पर पत्र लिखते उनको जिन्हें उनके समाचार की स्वदेश में प्रतीक्षा रहती थी।

एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे शिविर में वह बदलता रहा। मोर्चे पर जाने को ही आया था, पहुँच गया। शत्रु कहाँ है, किधर है, कुछ पता नहीं। ऊँची-नीची झाड़ियों से भरी वनभूमि थी। गोले फटते थे, गोलियों की बौछार आती थी और इधर से भी तोपें, मशीनगनें तथा राइफलें लगातार आग उगल रही थीं।

उसने एक साथी का बांया हाथ बम का एक विस्फोट उड़ा ले गया। दूसरे समीप के सैनिक की कनपटी में गोली लगी और वह ढेर हो गया। युद्धकाल में यह सब देखने की ओट लिए बढ़े जा रहे थे। कभी पेट के बल सरकते थे, कभी उठकर दौड़ पड़ते और कुछ दूर जाकर लेट जाते थे।

एक बार शत्रु को भागना पड़ा। कोई दीखा नहीं भागता; किन्तु जब सामने से गोले-गोली न आते हों, आगे बराबर बढ़ने को अवकाश मिले, शत्रु भग ही रहा हो सकता है। शत्रु-जिन्हें कभी देखा नहीं, जिनसे कभी का कोई परिचय नहीं, जिनका अपन ने कुछ बिगाड़ा नहीं, वे अन्य घोर घृणा के पात्र शत्रु हो गये। कैसे हो गये? यह सोचना भी उसके लिए राष्ट्रद्रोह था।

सहसा शत्रु ने ‘कुमक’ झोंक दी। अपनी ओर के नायकों में कुछ मंत्रणा हुई। एक-दो ट्रक भरकर कुछ दूसरी प्रकार के सैनिक लाए गए। वे लोग दिन भर पता नहीं पूरे मैदान में क्या करते रहे। भूमि में पतली नालियाँ उन्होंने खोदी, कुछ तार बिछाए और भी कुछ करते रहे। किन्तु उसे सब जानने-देखने की न आज्ञा थी, न सुविधा और न जिज्ञासा ही। उसे तो गरम राइफल भी एक ओर रखने की आज्ञा नहीं थी। गोलियों का निरन्तर कानों के पर्दे फाड़ता शब्द और बारूद की धुँआ।

रात्रि का अन्धकार आया। खाइयों में घुटने-घुटने दल-दल में खड़ा रहना पड़ता था। मच्छरों ने दुर्गति कर रखी थी। एक बार निकल कर शत्रु पर टूट पड़ने का आदेश मिलता। वह प्रसन्न ही होता। जीवन की अपेक्षा मृत्यु अधिक वाँछनीय लगने लगी थी उसे।

शत्रु सम्भवतः उसके लोगों का पता पा गया था। विपक्ष से आते गोले-गोलियाँ की बौछार बढ़ती गयी। शत्रु सैनिकों के शब्द आने लगे। संभवतः अगली खाई पर आक्रमण हो गया था। कुछ मिनट गए और शत्रु की एक टुकड़ी उसकी खाई के समीप आ गयी। अन्धाधुन्ध गोली चलाए जा रहा था वह।

‘पानी! हैनरी दो घूँट पानी।’ एक क्षीण स्वर के समीप से उसे पुकारा। उसने झुककर पानी की बोतल खोली और नीचे देखा। गोली लगने से उसका एक साथी खाई की कीचड़ में गिर पड़ा था और तड़प रहा था।

सहसा लगा कि पूरी पृथ्वी फट गयी। चीत्कार से दिशाएँ गूँज उठीं। खाई के बाहर से चिथड़ों की वर्षा उसके सिर पर हुई पूरी वर्दी गरम चिपचिपे पदार्थ से गीली हो गयी। जिसे वह पानी पिलाने झुका था, वह प्यास की सीमा के पार जा चुका था। खाई के दूसरे सैनिकों को उसे स्मरण नहीं। वह राइफल उठाए बाहर निकला और एक ओर दौड़ा।

अन्धकार में लाशों की ठोकरें, रक्त का कीचड़, कटे-फटे शवों पर जब पैर पड़ता था…लेकिन रात्रि से दारुण दिन का प्रकाश। उस प्रकाश में उसने जो कुछ देखा-माँस का ढेर पड़ा था चारों ओर। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, पृथ्वी पर रक्त जमा था और उसमें आँतें, लाशें बिछी थीं। राइफलें, मशीनगनें जहाँ-तहाँ पड़ी थीं। कर्णभेदी क्रन्दन अब भी जहाँ तहाँ से उठ रहा था।

वह पागल हो गया। जब तक उसके पास कारतूस रहे, वह उन क्रन्दन करते, छटपटाते, तड़पते लोगों को मृत्यु की निर्मम पीड़ा से शान्ति की निद्रा में सुलाता चला गया। पूरा मैदान पटा पड़ा था। अपने पराए का भेद कैसा, सबके शरीरों के चिथड़े थे। वहाँ। लेकिन उसके कारतूस समाप्त हो गये थे। वह राइफल से ही कई की कपाल क्रिया कर देता, किन्तु ठोकर खाकर गिरा और मूर्छित हो गया।

यह लम्बी मूर्छा एक अस्पताल में टूटी। उसे युद्धभूमि से अस्पताल भेजा गया था और वहाँ से इंग्लैण्ड। अस्पताल वालों ने उसे पागल घोषित कर दिया था, सो उसे बंदीगृह में रहना पड़ा। युद्धकाल में उस जैसे अर्धविक्षिप्त को देश में अटपटी बातें फैलाने के लिए स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता था। लेकिन महायुद्ध समाप्त होने के पश्चात् उसे घर लौट जाने की स्वतंत्रता मिल गयी।

मैं मरना नहीं चाहता। वे सबको मार देंगे। मुझे बचाओ। मुझे मृत्यु से बचने का मार्ग बताओ। हैनरी का यही पागलपन है। उसे लगता है कि राष्ट्र के कर्णधार फिर युद्ध करेंगे और जो वीभत्स दृश्य उसने देखा है, वह नगरों में ही उपस्थित होगा। मृत्यु से वह अत्यन्त आतंकित हो गया है। वह अमरत्व उसे कौन दे दे।

मुझे मृत्यु से बचने का मार्ग बताओ। अनेक गिरजाघरों में वह जा चुका है। लाउ विशप तक से रोकर पूछ चुका है। कोई उसकी बात नहीं सुनता। पागल की बात कौन सुने। सुनकर भी कोई क्या कर सकता है। मृत्यु से बचने का उपाय किसके पास धरा है।

मृत्यु से बचने का उपाय है। उस दिन उस भारतीय गेरुआ धारी ने चौंका दिया सबको। वह साधु एक सभा में कुछ कहने खड़ा हुआ था। उसने जैसे ही सम्बोधन किया-अमर पुत्रों! पागल हैनरी दौड़ता मंच पर जा चढ़ा और उसने साधु के हाथ पकड़ लिए। कातर वाणी थी उसकी-मुझे मृत्यु से बचने का उपाय बताओ? तुम्हारे पास वह उपाय है? तुम्हें भारत चलना पड़ेगा। साधु रामकृष्ण मिशन के थे। वे संभवतः उसे अपने गुरु स्वामी ब्रह्मानंद से मिलाना चाहते थे।

“मैं कहीं भी चलूँगा। जो कहो, करूँगा हैनरी दृढ़ था और साधु के आदेश पर वह मंच से नीचे आकर चुपचाप बैठ गया, प्रवचन सुनने प्रवचन समाप्ति पर हैनरी उस साधु के पीछे लग गया। अब वह इस साधु का पीछा छोड़ने को भला कैसे तैयार हो। निवास स्थान पर आकर साधु ने हैनरी से पूछा तुम कौन हो?

मैं हैनरी विलसन सीधा उत्तर था। ‘लेकिन हैनरी विल्सन कौन?’ साधु समझाने के स्तर पर आ गए-तुम्हारी अंगुली मैं काट दूँ तो कटी अंगुली हैनरी विल्सन रहेगी क्या?’

‘वह केवल हैनरी विल्सन की अंगुली होगी।’ हैनरी विज्ञान का छात्र रह चुका था। उसे बहुत शीघ्र यह बात समझ में आ गयी कि शरीर हैनरी विल्सन नहीं है। वह तो हैनरी विल्सन का शरीर मात्र है।

यह शरीर हैनरी विल्सन का नहीं है।’ साधु ने अब एक नयी बात उठायी। प्रतिभाशाली हैनरी चौका’; किन्तु थोड़ी देर में उसने यह तथ्य भी समझ लिया। रोटी, चावल मक्खन आदि से बना यह शरीर जो बचपन में कुछ था, अब कुछ है उसका कैसे हो सकता है।

प्लेट में रखा मक्खन, मक्खन है और पेट में जाने पर वह हैनरी विल्सन?

साधु ने पूछा-फिर तुम जो गन्दगी शौचालय में पेट से निकाल आते हो, वह भी हैनरी विल्सन है या नहीं?’

वाह! बड़ा मूर्ख निकला मैं! खुलकर हँसा हैनरी। वह अर्ध विक्षिप्त उठकर कूदने लगा।

जो हैनरी नहीं है, उसके मरने जीने की चिन्ता हैनरी को क्यों? साधु फिर मूल प्रश्न पर आ गए, वह तो मरेगा ही। उसे मृत्यु से बचाया नहीं जा सकता।

‘मरने दो उसे।’ हैनरी उसी प्रसन्नता में कह गया। लेकिन उसकी प्रसन्नता क्षणिक नहीं थी। सचमुच मृत्यु के भय से वह अपने को मुक्त पाने लगा था।

हैनरी विल्सन को मैंने मृत्यु से बचाने का वचन दिया है। साधु का स्वर स्थिर था-मैं अपने वचन पर दृढ़ हूँ।

‘आप हैनरी को ही मृत्यु से बचने का मार्ग बताए स्वस्थ स्वर था हैनरी का।

हैनरी कभी मरता नहीं। उसे कोई मार नहीं सकता, वह तो अमृत पुत्र है।’ साधु ने कहा।

‘अमृत का पुत्र!’ हैनरी की समझ में बात नहीं आयी। इतनी सीधी सरल बात तो नहीं कि झटपट समझ ली जाय।

‘हैनरी कौन?’ कुछ क्षण रुककर स्वयं हैनरी ने पूछा। वह अब गंभीर हो गया था। चिन्तन करने लगा था। ‘नहीं आज मुझे सोचने दीजिए। मैं फिर आऊँगा आपके समीप।’ साधु को उसने रोक दिया बोलने से। वह उठ खड़ा हुआ। विदा होते-होते उसने कहा-आप ठीक कहते हो। मुझे भारत जाना पड़ेगा। अमरत्व का सन्देश जिस भूमि से उठा, वहीं उसे प्राप्त किया जा सकता है।’

हैनरी भारत आया, वह उस साधु से कदाचित् मिला भी नहीं। हाँ, उत्तराखण्ड की ओर उसे एक बार साधारण भारतीय साधु के वेश में देखा गया था। सर्वथा प्रसन्न उल्लसित, आखिर वह अमृत पुत्र जो था।

अखंड ज्योति

जून 1995

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