वीरपुर (गुजरात) में एक किसान थे। उनका नाम था जलाराम। वे कृषि कार्य करते थे। जो अनाज पैदा होता उसे दीन-दुखियों तथा संत-महात्माओं के लिए खरच करते रहते। वे खेत पर रहते, उनकी पत्नी भोजन बनाती रहतीं। घर पर हर समय भोजन करने वालों की लाइन लगी रहती। बाल बच्चों का झंझट उनके सिर पर था नहीं।
उनकी दयालुता और श्रद्धा की परीक्षा लेने एक दिन भगवान साधु-वेश में उनके घर आए। उन्होंने कहा- “उनका बिस्तर अगले तीर्थ तक पहुँचना है। कोई प्रबंध करो।” जलाराम मजदूर देने की स्थिति में नहीं थे। उनकी पत्नी उस बिस्तर को सिर पर रखकर चल दीं। जलाराम आधे दिन खेत का काम करते, आधे दिन भोजन पकाते-खिलाते।
संत के रूप में आए भगवान की परीक्षा पूरी हो गई। वे कुछ ही दूर आगे चलकर गायब हो गए। उस महिला को अन्नपूर्णा झोली दे गए। घर लौटकर उसने उस झोली को एक कोठरी में टाँग दिया। उस कोठरी में से अन्न कभी कम नहीं पड़ा। अभी भी हजारों लोग उस अन्नपूर्णा झोली का प्रसाद लेने आते हैं। भंडार चुकता नहीं। बापा जलाराम की
झोली आज भी सबको भोजन के लिए खुली है। जो दूसरों की सेवा-सहायता करता है, परोपकार करता है, ईश्वर भी उस पर दैवी अनुदान बरसाते हैं।
अमृत कण ( सचित्र बाल वार्ता )
युग निर्माण योजना , मथुरा